लक्ष्मी आँगन में बसी, रहता संग कुबेर।
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
जो चाहूँ वो ही मिले, मुट्ठी में तकदीर।
अटल इरादे राखिये, रखना है बस धीर।
जोश भरा आह्वान हो, गरजो बनकर शेर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
आस्था धन बल बुद्धि हो, मांगे जीवन शेष।
चमके जग में ही सदा, मेरा भारत देश।
दुश्मन खुद हो जाएंगे, पल भर में सब ढेर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
है जीवन आदर्श ये, सुन्दर है सब काम।
जग में ऊंचा हो रहा, देखो मेरा नाम।
आशा की मंजिल मिली, बढ़ते मेरे पैर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
स्वस्थ निरोगी चाहिए, काया की पहचान।
लेखन, वाणी, प्रेम से, मिले सदा ही मान।
प्रबल सोच विस्तार से, सबके मन को फेर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम
विधान-दोहा चार चरणों से युक्त एक अर्धसम मात्रिक छंद है जिसके पहले व तीसरे चरण में १३, १३ मात्राएँ तथा दूसरे व चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं, दोहे के सम चरणों का अंत गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों में जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है ! अर्थात दोहे के विषम चरणों के अंत में यगण(यमाता १२२) मगण (मातारा २२२) तगण (ताराज २२१) व जगण (जभान १२१) का प्रयोग वर्जित है जबकि वहाँ पर सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
जो चाहूँ वो ही मिले, मुट्ठी में तकदीर।
अटल इरादे राखिये, रखना है बस धीर।
जोश भरा आह्वान हो, गरजो बनकर शेर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
आस्था धन बल बुद्धि हो, मांगे जीवन शेष।
चमके जग में ही सदा, मेरा भारत देश।
दुश्मन खुद हो जाएंगे, पल भर में सब ढेर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
है जीवन आदर्श ये, सुन्दर है सब काम।
जग में ऊंचा हो रहा, देखो मेरा नाम।
आशा की मंजिल मिली, बढ़ते मेरे पैर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
स्वस्थ निरोगी चाहिए, काया की पहचान।
लेखन, वाणी, प्रेम से, मिले सदा ही मान।
प्रबल सोच विस्तार से, सबके मन को फेर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम
विधान-दोहा चार चरणों से युक्त एक अर्धसम मात्रिक छंद है जिसके पहले व तीसरे चरण में १३, १३ मात्राएँ तथा दूसरे व चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं, दोहे के सम चरणों का अंत गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों में जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है ! अर्थात दोहे के विषम चरणों के अंत में यगण(यमाता १२२) मगण (मातारा २२२) तगण (ताराज २२१) व जगण (जभान १२१) का प्रयोग वर्जित है जबकि वहाँ पर सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है
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