हरदम रहता मुस्काता।
सदा विखेरुँ अपनी खुशबू
गीत खुशी के मैं गाता।
कोमल तन मेरा अति सुंदर
मगर नहीं मैं हूँ डरता।
प्रेम डोर से खींचूँ सबको,
जीवन में खुशियाँ भरता।
बातचीत का हुनर न जानूँ,
नहीं मुझे चलना आता।
नहीं ज्ञान मुझको पंडित सा,
नहीं ढोंग मुझको भाता।
मूक बधिर होकर भी मुझको,
प्रेम जताना है आता।
ढाई आखर प्रेम पढ़े वो,
सच्चा पंडित कहलाता।
दर्द मुझे भी होता है जब,
शाख तोड़ कोई आता।
बींध सुई से मेरी काया,
पैरों से रौंदा जाता।
आह न निकले मुख से मेरे,
पाकर खुश कोई होता।
जब तक जिंदा रहता तब तक
कंटक वन में मैं सोता।
अंग अंग है सदा समर्पित
रंग सुरंग सदा रहता।
सदा भलाई की इच्छा हो
बात सभी से हूँ कहता
हर उत्सव में शान बढ़ाऊँ,
चाहे मैं मुरझा जाता।
जन जन के मन में खुशियों की,
तान बजाकर मैं गाता ।
औरों के हित की बातें भी,
गर कोई समझा होता।
गैरों के मन के भीतर भी,
कभी झाँक मन ये रोता।
मन से मन जब मिलते हैं तो,
जीवन का सुख है मिलता।
लक्ष्य रखो हरदम ही ऊँचा,
फूलों सा जीवन खिलता।
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
विधान -१६+१४ मात्रा चरणांत गुरु २
--- दो दो पद सम तुकांत ,
--- चार चरणीय छंद
. --- मापनी रहित
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