मन के सब बैरी भावों की,
जड़ को प्रिये जला देना।
जब जगमग दीवालीआये,
पावन मन को कर लेना।
क्रोध जले आतिश बाजी में,
ईर्ष्या लड़ी जला देना।
दीप जले जब दीवाली में,
प्रेम पुष्प महका लेना।
अहम साथ में जलने दो प्रिय,
निर्मल भाव बना लेना।
झूम झूम तुम प्रेम परोसो,
खुशियों से घर भर देना।
अपना पल पल बीत रहा है ,
बात याद हरदम रखना।
पापों की गठरी धो लेना,
स्वाद प्रेम हरदम चखना।
कर लेना श्रृंगार त्याग का,
पूजन भाव यही जानो
फिर तुम जग में सबसे सुंदर,
बात प्रिये मेरी मानो।
महक उठे आँगन खुशियों से,
पर्व महान वही होता।
शुचिता सोच नहीं जिनकी है,
वो अपनी प्रतिभा खोता।
सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
(*लावणी छंद विधान*
१६+१४ मात्रा चरणांत गुरु २
--- दो दो पद सम तुकांत ,
--- चार चरणीय छंद
. --- मापनी रहित)
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