हरदम कूट नीति अपनाई,स्वार्थ पुरुष ने धारा है।
नारी पर सुन्दर उपनामों,के आभूषण वारा है।
स्वप्न सुनहरे दिखला कर ही,विस्मृत उसने कर डाला,
नारी को भयभीत बनाकर,डर उसके हिय में पाला।
है विडंबना ठगना हो तो,चाटुकार का रूप धरो,
सोच समझ षडयंत्र रचाकर,चतुराई से काम करो।
निकल न जाये आगे नारी,घर की शोभा कह डालो,
सुख-सुविधाएँ सब देकर के,उसको भीतर ही पालो।
देवी उपनामों से अलंकृत,सहनशीलता सिखलायी,
ममता की फिर मूरत माता,भाग्यविधाता कहलायी।
चित्रकार और कवियों की भी,बनी प्रेरणा नारी ही,
मर्यादा की चारदिवारी,पायी उसने सारी ही।
छिपकर नर ने आदिकाल से,हरदम नारी को रोका,
मीठी बातों का आलिंगन,बढ़ने से हरदम टोका।
समझ सकी नहि भोली नारी,शिक्षा का आभाव रहा,
बुद्धिहीन, कमजोर बनी वह,उत्पीड़न का बोझ सहा।
दूरदर्शिता का अभाव अब,केवल भारत भुगत रहा,
बन अपंग नर प्रगति पंथ पर,बिन साथी के झुलस रहा।
शिथिल बनाकर एक अंग को, अक्षम उसने कर डाला,
वस्तु बनी मन बहलाने की,बनी रह गयी अब हाला।
गरिमा पर कामुक तीरों का,वार सदा नर करता है,
अँधी नारी हाथ तराजू,देवी कहकर छलता है
समझ रही सब नारी अब तो,कदम मिलाकर चलती है,
ज्वाला परचम लहराने की,नारी हरपल जलती है।
भेदभाव की जंजीरों को,सब मिलकर अब तोड़ेंगे,
भारत की राहों को हम सब,विश्व धरा से जोड़ेंगे।
नारी को सम्मान दिलाकर,खुशियों से घर भरने दो,
बेटी के जन्मोत्सव पर अब,उत्सव मिलकर करने दो।
नया दौर है नयी उमंगें, मोल समझ में अब आया,
तमस मिटा जग का अब सारा,सुखद सवेरा है छाया।
जन-जन को जागृत करके ही,संदेशा देना होगा,
अधिकारों की मूरत नारी,न्याय अभी देना होगा।
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
नारी पर सुन्दर उपनामों,के आभूषण वारा है।
स्वप्न सुनहरे दिखला कर ही,विस्मृत उसने कर डाला,
नारी को भयभीत बनाकर,डर उसके हिय में पाला।
है विडंबना ठगना हो तो,चाटुकार का रूप धरो,
सोच समझ षडयंत्र रचाकर,चतुराई से काम करो।
निकल न जाये आगे नारी,घर की शोभा कह डालो,
सुख-सुविधाएँ सब देकर के,उसको भीतर ही पालो।
देवी उपनामों से अलंकृत,सहनशीलता सिखलायी,
ममता की फिर मूरत माता,भाग्यविधाता कहलायी।
चित्रकार और कवियों की भी,बनी प्रेरणा नारी ही,
मर्यादा की चारदिवारी,पायी उसने सारी ही।
छिपकर नर ने आदिकाल से,हरदम नारी को रोका,
मीठी बातों का आलिंगन,बढ़ने से हरदम टोका।
समझ सकी नहि भोली नारी,शिक्षा का आभाव रहा,
बुद्धिहीन, कमजोर बनी वह,उत्पीड़न का बोझ सहा।
दूरदर्शिता का अभाव अब,केवल भारत भुगत रहा,
बन अपंग नर प्रगति पंथ पर,बिन साथी के झुलस रहा।
शिथिल बनाकर एक अंग को, अक्षम उसने कर डाला,
वस्तु बनी मन बहलाने की,बनी रह गयी अब हाला।
गरिमा पर कामुक तीरों का,वार सदा नर करता है,
अँधी नारी हाथ तराजू,देवी कहकर छलता है
समझ रही सब नारी अब तो,कदम मिलाकर चलती है,
ज्वाला परचम लहराने की,नारी हरपल जलती है।
भेदभाव की जंजीरों को,सब मिलकर अब तोड़ेंगे,
भारत की राहों को हम सब,विश्व धरा से जोड़ेंगे।
नारी को सम्मान दिलाकर,खुशियों से घर भरने दो,
बेटी के जन्मोत्सव पर अब,उत्सव मिलकर करने दो।
नया दौर है नयी उमंगें, मोल समझ में अब आया,
तमस मिटा जग का अब सारा,सुखद सवेरा है छाया।
जन-जन को जागृत करके ही,संदेशा देना होगा,
अधिकारों की मूरत नारी,न्याय अभी देना होगा।
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
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