धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है
मिले भरपूर सुख सबको, सिंचाई कामना की है।
मिटाये द्वेष के कीड़े, मिलायी खाद जनहित की,
जहाँ खुशियाँ सदा खिलती, बनी बगिया ये जनहित की,
सजी धरती ये दुल्हन सी, लगे अम्बर दीवाना सा,
कि होली प्रेम के फल की, बड़ी संभावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका फसल सद्भावना की है।
कि बचपन की शरारत ये, है यौवन की ये अल्हड़ता,
बुढापा सात रंगों का, है पिचकारी की ये क्षमता,
लगे राधा सी हर बाला, कि वल्लभ संग सी जोड़ी,
विजय है सत्य की होली, अगन दुर्भावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है।
है होली रंग जीवन का, कोई बेरंग जब करता,
किसी की छीनकर खुशियाँ, तमस से जिन्दगी भरता,
भुलाता सभ्यता हो तो, ये मन प्रतिरोध करता है,
हमें मानव बनाती जो, ये होली भावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है।
अगर खुशियाँ नहीं देते,न काँटों को बिछाना तुम।
दिलों में प्रेम की बाती,सदा हँसकर जलाना तुम।
शपथ है देश की गरिमा, सदा ऊँची रखेंगे हम।
पहल कुछ खास करने की, सुखद प्रस्तावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है।
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
शुचिता,,,गर्व होता है ऐसी रचनाएं पढ़ कर
ReplyDeleteशानदार गीत,,,,सदा हुआ शिल्प
और आपकी विशेषता है कि परम्परागत गीत,,, गांव का वर्णन न करके उसमें कुछ सनातन मूल्यों की भी स्थापना की है
गीत के मुखड़े से ही रास्ता तय कर लिया और आपकी कलम कहीं भी फिसली नहीं,,, वरन् पाठक को सुखद वातावरण में मानों उंगली थाम कर लें गयी,,,,
बुढ़ापा सात रंगों का ,,है पिचकारी की ये क्षमता,,,
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और अंतिम बंध की हर पंक्ति सुखद सद्भावना प्रमाणित करती चलती है
एक असाधारण गीत की हार्दिक बधाई स्वीकारें