"दर्पण"एकल काव्य संग्रह समीक्षा

"दर्पण"समीक्षकों की नजर से-
                  (१)
पुस्तक -- "दर्पण " काव्य संग्रह!
कवियत्री -- डाँ सुचि संदीप शुचिता जी !
मूल्य- १५०/- रुपये!
प्रकाशन - हिन्दुस्तान प्रकाशन !
समीक्षक- छगन लाल गर्ग विज्ञ !

साहित्य देता है एक अमृत की दृष्टि, खोजने की जरूरत नहीं, मांगने की भी जरूरत नहीं, केवल अनुभूति, संवेदना के पल स्वतःस्फूर्त साहित्य का सृजन करनें लग जाते है, अनजाने में ही संवेदनशील चित चेतना की दशा में सक्रिय होकर सृजन की पृष्ठभूमि में विचरता हुआ अभिव्यक्ति की परिणति को प्राप्त होता है, सृजन आत्मा से जुड़ा हैं, थोड़ी विराम की गहराई में ज़ाना है, थोड़ी चुप्पी साधनी हैं कि अतीत, वर्तमान का सत्य चलचित्र बन कर सृजन की आकुलाहट से व्यग्र होकर प्रस्फ़ुटित हो जाता है आदरणीया डॉ सुचि संदीप जी अग्रवाल के काव्य संग्रह यथार्थ बानगी और परिमल भावनाओ का "दर्पण" है !
वैसे काव्य को अंतर्लीन जगत का बिंब कह सकते हैं अधिकांशतः काव्य में कवि/ कवयित्री अपनी जिंदगी का , स्वयं का उदघाटन करते हैं, आपकी रचनाऐ "बहाओ न खून"
"ज्वलंत प्रश्न", "मजबूत इरादे " "वरदान व अभिशाप " ऐसी ही रचनाएँ हैं जो देश काल के यथार्थ से प्रभावित होकर, अच्छे बुरे का यथार्थ चित्रण कर ,अपनी सत्यान्वेषणी भावाभिव्यक्ति को परिभाषित करती हैं, इस काव्य संग्रह में कवयित्री द्वारा समाज की विकृतियों के प्रति विद्रोह और विवेक व विचार पूर्ण दृष्टिकोण रखा है , साथ ही संवेदनशील चित की अंतर्व्यथा भी झलकती हैं यथा- "आँखों मे अश्रुधार थी " "अहसास " "वो दोस्त कहाँ खो गये " व अंतर्मन की यात्रा के दस्तावेज बनकर निम्न रचना ऐ मन की गहराई में ले जाकर सघन अनुभूतियों को उजागर करने में समर्थ हैं ,यथा - "मैं गुमसुम हो गई हूँ "अंतर्द्वंद्व भरी मार्मिक दशा," पहचानिऐ अपनी प्रतिभा में " आत्मावलोकन की दशा, "मां तुम कहाँ हो "व "एक चिट्ठी मां के नाम " आत्मविसर्जित अज्ञात के स्वर, मानवीय संवेदनाओं का शास्वत साक्षात्कार प्रतीत होता है!
सृजन स्व को मिटाकर अंकुरण लेता है, हमारी मौजूदगी से बनावटीपन आने लगता है सृजन की आकुलाहट में प्राण पूरी तरह खो जाता है जो सृजन में डूबें हैं उन्होंने अवश्य ही मोती पायें हैं आपकी साहित्य साधना को नमन करते हुए यह आशा करता हूँ कि साहित्य जगत में आपका काव्य संग्रह उचित महिमा प्राप्त करें !

छगन लाल गर्ग विज्ञ!
राजस्थान
                (२)
समीक्षा*
*पुस्तक*- दर्पण
*कवयित्री*- डॉ सुचि संदीप शुचिता
*प्रकाशक*-हिन्दुस्तान प्रकाशन
*मूल्य*-  150₹/
डॉ सुचि संदीप शुचिता जी के प्रथम काव्य संग्रह *दर्पण* की सभी रचनाएँ भावप्रद, एक सुखद संदेश देती हुयी हैं । आप तिनसुकिया असम से हैं वहाँ की जलवायु , प्राकृतिक सौंदर्य की झलक आपकी सभी रचनाओं से झलक रही हैं । आमुख पढ़ते ही कवयित्री के सहज  , सरल मनोभावों की  पहचान होती है । पुस्तक की पहली रचना- *पहचानिए अपनी प्रतिभा* की एक पंक्ति देखिए-

"प्रतिभा है अगर आप में उजागर क्यों नहीं करते
संकोची बनकर कब तक छुपते रहेंगे डरते- डरते" ।
अगली प्रेरणादायी रचना-
निर्भर न रहो
इतना किसी पर कि-
दो कदम भी तन्हा चल नहीं सकते ।

इसी तरह तीसरी रचना *तब माँ हुआ करती थी* में  माँ की ममता को अपने शब्दों में बहुत ही खूबसूरती से काव्य में ढाला है-

मौजूदगी अम्मा की अब
राह का रोड़ा लगने लगी
पुत्र को अपने
लाल की परवरिश में
बातें अम्मा की खलने लगीं ।

चौथी रचना *मैं भी कुछ लिखूँ* में अपने ज्वलन्त समस्याओं पर अपनी कलम चलायी  है ....और भी बहुत सी ऐसी कविताएँ हैं जो मन को छू जाती हैं ,जैसे - कलम तुम कुछ ऐसा लिखो, मूक चीख,  क्यों हिंदी शर्मसार,  भुला दो तो अच्छा है ,  असाध्य पीड़ा, मेरा बचपन एक स्मृति,  महामारी, रुसवाई,हे नाथ,त्योहारों का महत्व आदि ।

आमुख सहित कुल 40 अनमोल रचनाओं के इस संग्रह को अवश्य पढ़ें, इसमें बहुत जगहों पर  पाठकों को ऐसा लगेगा कि उनके मन की बात कवयित्री ने अपनी  लेखनी से पिरोयी है । *बहाओ न यूँ खून*-
गम है किसका
कौन है तुम्हारा....
इसी तरह *तुम्हारी ही यादों से*-
गर रास्ता हो बुलन्द रास्ता खुद बन  जायेगा
आज नहीं तो कल जमाना हमें खुद अपनायेगा ।

 ये अनमोल मोती संग्रहण हेतु आप पुस्तक क्रय करें, अच्छा साहित्य ही अच्छे विचारों को जन्म देता है।
दर्पण काव्यकृति साहित्य जगत में नवायाम रचे, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ .......

*समीक्षक*
छाया सक्सेना ' प्रभु '
जबलपुर (म. प्र.)
 (३)

पुस्तक समीक्षा (दर्पण)

आज मुझे लगा कि "भयभीत" होकर "असाध्य पीड़ा" सहने से अच्छा है कि-" मैं कुछ भी लिखूं "।
"मेरा बचपन एक स्मृति " है ।"तब माँ हुआ करती थी" , "पिंजरे में कैद चिड़िया" की तरह ।
पति की "रुसवाई " सहकर भी उसकी "आखों में अश्रु धार न थी"। उसका "स्वभाव ही अनमोल निधि " थी उसकी ।मैं सोचती- "हे नाथ " - "व्याहता एक ऐसी भी है "।न जाने व्याहता का जीवन "वरदान है या अभिशाप "।
और उस दिन जो देखा ,मेरे हृदय से" मूक चीख " निकली और "मैं गुमसुम हो गई" हूँ-- "ऐसा हो नहीं सकता" । सबने समझाया कि "भुला दो तो अच्छा " ।पर मेरी मित्र ने कहा कि-- "मान लो मेरा कहना,," "विश्वास जगा दो मन में," "कल किसने देखा है " ,"पहचानिये अपनी प्रतिभा" ।मुझे आत्मबल का "एहसास " हुआ ।मैंने कहा अपनी कलम से कि - "कलम तुम कुछ ऐसा लिखो "कि - जब तक समाज में स्त्री शोषण की "महामारी" होगी, तब तक "सागर में गोता लगा नहीं सकते "। उन्नति का सागर सिर्फ "भ्रम " साबित होगा ।
आज "एक चिट्ठी माँ के नाम " लिख रही हूँकि "आप आ जायें " ।आज मैं "सुचि संदीप " समाज में "शुचिता" का दीप जला रही हूँ ।समाज को सच का" दर्पण " दिखाने के लिए ।
यह कहानी मेरे द्वारा पुस्तक के अध्यायों के नाम जोड़ कर तैयार की गई है ।
यह दर्शाने के लिए कि -किस प्रकार 40 कविताओ का यह संग्रह विभिन्न फूलों से बने उस माला की तरह है ,जिसमें परम्परागत विषयों के साथ ही साथ समसामयिक विषयों को भी पिरोया गया है ।
पुस्तक में विभिन्न मनोभावों का भी खूबसूरती से चित्रण किया गया है ।
कवरपृष्ठ पर बना चित्र "दर्पण " नाम को चरितार्थ करता है ।
कुल मिलाकर बेहद मनोरंजक तरीके से लिखी गयी यह एक बेहद उत्कृष्ट पुस्तक है।आशा है कि - साहित्य जगत में यह सफलता के नये कीर्तिमान रचेगी ।

शुभकामना के साथ
सरिता श्रीवास्तव
इलाहाबाद

(४)

*समीक्षा*
*पुस्तक*- दर्पण
*कवयित्री*- डॉ सुचि संदीप शुचिता
*प्रकाशक*-हिन्दुस्तान प्रकाशन
*मूल्य*-  150 रुपये
आदरणीय सुचि संदीप शुचिता का यह काव्यसंग्रह दर्पण भावनाओं का एक ऐसा प्रतिबिंब है जो पठनीय होने के साथ-साथ संग्रहणीय भी है ।  पूरे काव्य संकलन में सहज सरल भाषा में खूबसूरती से शब्दों को पिरोया गया है जो पाठकों का मन मोह लेता है । उनकी लेखनी का जादू सम्मोहित कर देता है । शब्द शिल्प के साथ भावनाओं को धरातल पर उतार कर हृदयस्पर्शी सर्जन करने की शक्ति उनकी लेखनी में है ।

मैं गुमसुम हो गई हूं ,
ऐसा हो नहीं सकता ।
तुम्हारी ही यादों से ,
सोचती हूँ मैं कभी कभी ।।

मजबूत इरादे ,
कल किसने देखा है ।
वो दोस्त कहाँ खो गए ,
मूक चीख सा ,
मेरा बचपन एक स्मृति ।।

माँ
ब्याहता एक ऐसी भी ।
विश्वास मन में जगा दो ।।

कलम तुम कुछ ऐसा लिखो ,
कि आप आ गये ।
माँ तुम कहाँ हो ,
पहचानिए अपनी प्रतिभा ।।

एक चिट्ठी माँ के नाम ,
क्यूँ हिंदी शर्मशार है ।
मैं भी कुछ लिखूं ,
बहाओ न यूँ खून ।।

दो शब्द आतंकवादियों से ,
ज्वलंत प्रश्न ।
अहसास ,
वरदान या अभिशाप ।।

मान लो मेरा कहना ,
भुला दो तो अच्छा है ।
भ्रम ,
आंखों में अश्रुधार न थी ।।

भयभीत ,
असाध्य पीड़ा ।
पिंजरे में कैद चिड़िया ,
स्वभाव ही अनमोल निधि ।।

दर्पण कवियित्री के मनोभावों का दर्पण है जिसे पाठकों का असीम स्नेह मिले । यही उम्मीद भी है और आकांक्षा भी ।

डॉ अरुण कुमार श्रीवास्तव अर्णव
सिरोह

(५)

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम - दर्पण
रचयित्री - डॉ शुचि संदीप सुचिता अग्रवाल जी
प्रकाशन - हिंदुस्तान प्रकाशन दिल्ली

सृजन का अधिकार दो को है । एक परमात्मा को दूसरा कवि/कवयित्री को । कवि-कवयित्री यदि सृजन कर भी लें और उसे पुस्तकाकार न दें तो वह सर्जन अधिक दिनों तक नहीं चल पाता । धीरे-धीरे या तो कॉपियों में दीमकों का शिकार हो जाता है या फिर अंतर्जाल के महासागर में विलीन हो जाता है । बहन सुचि संदीप का साहित्य प्रेम इन्हें सदैव अन्यों से श्रेष्ठ साबित करता है । आपने साहित्य संगम संस्थान की एक शाखा भी तिनसुकिया में शुरू की है । साहित्य संगम संस्थान को जब भी किसी तरह की आवश्यकता आई आपने सहर्ष आगे बढ़कर सहयोग का हाथ बढ़ाया है । आपने एक पुस्तक *मन की बात* मुझे भी भेजी थी । जिसे मैं अभी तक पढ़ नहीं पाया । पर हाँ आपके द्वारा संपादित विश्व का एकमात्र साझा उपन्यास  *बरनाली* मैंने आद्योपांत पढ़ा । पढ़ने के बाद मैं आश्चर्यचकित था कि इतनी बहनों ने मिलकर ऐसा भावपूर्ण संदेशप्रद उपन्यास कैसे लिख लिया । निश्चय ही उसमें आधुनिक उपन्यास सम्राज्ञी डॉ राजलक्ष्मी दीदी एवं आ०छाया सक्सेना प्रभु दी का मार्गदर्शन और आ०सुचि दी का आदर्श संपादन ऐतिहासिक और अविस्मरणीय है ।

वर्तमान पुस्तक दर्पण कवयित्री के मन के सुकोमल भावों का दर्पण है । इस काव्य कृति के प्रत्येक कविता नवयुग का यशोगान कर रही है । कि आप आ गए में कवयित्री ने अपने जीवनसाथी को संबोधित करते हुए भावभरी प्रस्तुति दी है । कलम तुम कुछ ऐसा लिखो' में खुद को उत्साहित करते हुए कलम के माध्यम से आधुनिक रचनाकारों को प्रेत्साहित करने का अनूठा प्रयास किया है । एक चिट्ठी माँ के नाम' में मन के भावों को कागज पर उकेरते हुए अंतः सलिला प्रवाहित की है । बहाओ न यूँ खून के माध्यम से अहिंसा का संदेश देते हुए उत्तम कविता प्रस्तुत की है । देखिए एक कविता *विश्वास मन में जगा दो तुम*  की पंक्तियाँ -

तेरी नज़र है मेरी तरफ ।
आँखों को छलका दो न ।।

भावों की भागीरथी बहाई है संपूर्ण कृति में ।

यह कृति जन-जन के द्वारा पढ़ी और सराही जाए, ईश्वर से ऐसी कामना करता हूँ ।

राज वीर सिंह
गुआ, झारखंड

(६)


ये
क्षण
दर्पण
समर्पण
भरे चरण
देते आचरण
मिटाते अज्ञानता।।

है
पुष्प
वर्णित
महकते
पथ अटल
अज्ञान मिटाये
मोहित मनोहर।।

है
सार
विचार
दे बहार
दर्पण हार
करती श्रंगार
अटल उपहार।।

नीर नवीन भट्ट

(७)

विषयःदर्पण
विधाः समीक्षा
***************
कवयित्री शुचिसंदीप शुचिता,
लिखी काव्य मधुर सरिता।
शब्दविन्यास है अति पविता,
सरस प्रबोधिनी है कवित।।
कल तुम कुछ ऐसा लिखो,
एक चिट्ठी माँ के नाम लिखना।
माँ तुम कहाँ हो ढूँढता हूँ इतना,
तेरा प्यार मुझे मिला क्या कहना।।
क्यूँ हिन्दी शर्मसार है इतना,
पहचानिए अपनी प्रतिभा ।
मैं गुमशुम हो गयी हूँ,
ऐसा हो नहीं सकता।।
शब्दशैली मधुर अनुपम,
अतिउत्तम है काव्यशैली।
ज्यों धरा पे उदित हुयी,
रक्तरंजित रश्मि पहली।।
################
सुनील कुमार अवधिया,"मुक्तानिल"
9165550848
12/01/19

(८)

समीक्षा
पुस्तक--दर्पण
कवियत्री-- डाँ शुचि संदीप शुचिता
प्रकाशनः  हिन्दुस्तान प्रकाशन

   मै शुचि संदीप शुचिता जी को बधाई देती हू्ँ।उनका काव्य संग्रह साहित्य संगम मे  समीक्षा के लिये रखा गया है।
    बहुआयामी प्रतिभा की धनी डाँ शुचिता जी की कलम ने  दर्पण,(काव्य संग्रह) देकर अपने पाठकों दिया हम आपके बहुत आभारी है।सुचिसंदीप जीआप सरल सहज एवं जनसामान्य की पहुँच वाली रचनाकार है।
      आपका काव्य संग्रह दर्पण कसौटी मे उतरती हुई परिवेशगत सच्चाई खुलकर उजागर करती है  उतना ही सहज सरल रचना का संसार है।
      आपकी रचनाओं मे संवेदनायें कूट कूट कर भरी है।और मानवीय संतापों की विवेचना समाहित है।
 ''कि तुम आ गये''अँधेरा रोशनी लेकर आये।
"एक चिट्ठी माँ के नाम" नयी माँ आ गई माँ तेरे जाने के बाद
"मिँ तुम कहाँ हो" वो तुमी तो हो जो आँख दिखाकर मन ही मन मुस्करकर कसम अपनी खिलाकर दूध का गिलास पकड़ा देती थी।
"कलम तुम ऐसा कर दो"
"क्या हिन्दी शर्मसार"
"पहचानिये अपनी प्रतिभा"
"जब तक सागर मे गोता लगा नहीं सकते"
"मै गुमसुम हो गई" (जिन्दगी के मोड़ मे)
"ऐसा भी हो सकता है"
"स्वाभाव भी अनमोल"
"मै कुछ लिखूँ"
"बहाओ न खून"
"ज्वलंत प्रश्न",तुम्हारी ही यादों मे,वरदान व अभिशाप, मबूत इरादे, सोचती हूँ कभी कभी,आँखों मे अश्रुधार थी, अहसास, वो दोस्त कहाँ खो गये आदि
     आपका काव्य संग्रह दर्पण झरने की तरह जिसमे एक से बढ़कर कविताऐं है।कविताऐं अंतस मे समेटे हुये है।
     आपकी कविताओं मे सरलता,सहजता प्रेम ,सहिष्णुता, ज्ञान और मानवीय संस्कार भरपूर मिलते है।
      आपका काव्य संग्रह पढ़कर बहुत खुशी हुई आपको बहुत बहुत बधाई ।आशा है कि आपकी कलम झरने की तरह निरंतर बहती रहे।और आप उच्च ऊचाईयों को छूती रहे
 बहुत बहुत बधाई🙏🙏💐💐💐🙏💐💐🙏🙏🙏
      शिवकुमारी शिवहरे

(९)

समीक्षा
पुस्तक का नाम - दर्पण
कवियित्री - डॉ शुचि संदीप सुचिता अग्रवाल जी
प्रकाशन - हिंदुस्तान प्रकाशन  दिल्ली
मूल्य - 150

 हिंदुस्तान प्रकाशन दिल्ली की ओर से प्रकाशित बहन सूची संदीप सुचिता जी की
पुस्तक दर्पण एक ऐसा काव्य दर्पण है जो यादों में डूबी हुई प्रेमिका के भाव का चित्रण भी करता है तो उसके मजबूत इरादों का भी वर्णन करता है । बचपन के दोस्त कहां खो गए हैं, अंतस की इस चीज को भी उजागर करता है तो मां तुम कहां हो इसकी भी खोज करता है। उनका यह काव्य संग्रह उनकी प्रतिभाओं को समाज के रूबरू भी लाता है तो हिंदी आज भी तू शर्मसार है इसका भी उल्लेख करता है देश की ज्वलंत समस्या आतंकवाद पर भी उनकी लेखनी चलती है और कहती है कि यह अभिशाप कैसे दूर होगा यह खून का बहना कब रुकेगा उनकी लेखनी केवल आतंकवाद तक सीमित नहीं रहती महिलाओं के दुर्दशा पर भी चलती है उन्होंने महिलाओं की तुलना पिंजरे में कैद चिड़िया से करते हुए लिखा है कि स्वभाव से ही अनमोल निधि आज भयभीत है असाध्य पीड़ा को झेल रही है । सरल शब्दों में भाव का प्रबल बेग उनकी लेखनी के वह महत्वपूर्ण विंदु है जो उन्हें समकालीनो से अलग और महत्वपूर्ण बनाता है । उनकी लेखनी उनकी शख्सियत का भी परिचय देता है  । इस काव्य संग्रह में उन्होंने नारी मन के सुकोमल भावों को जिस कोमलता से कलम बद्ध किया है वह देखते ही बनता है वो इस नए युग के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभरकर सामने आई है उनके  अंदर छुपे कवियत्री ने अपने प्रियतम के लिए जिस तरह भावों को रखा है  । वह एहसास केवल उनकी ही कविता में देखने के लिए मिलता है । वो लिखती हैं कि

"मैं गुमसुम हो गई हूं
ऐसा हो नहीं सकता
 तुम्हारी ही यादों से
सोचती हूं मैं कभी कभी"

उनकी कलम  सहजता से चलती है मगर बात गहरे करती है उनके कलम की मार बहुत गहरी है उन्होंने समाज के कई विषयों पर कई समस्याओं पर अपनी लेखनी से अपने विचारों को उकेरा है मां पर लिखे उनके भाव एक बेटी के भाव के साथ साथ समाज के पथ प्रदर्शक के भी भाव हैं । सार्थक विचारों से भरपूर अंधेरे में रोशनी की आस को प्रबल करती उनकी पुस्तक दर्पण समाज के लिए भी दर्पण का कार्य करेगी मुझे पूरा विश्वास है ।

आप कामयाबी के नए नए शिखर को छुएं यही हमारी कामना है और आपकी हर सफलता पर मेरी ओर से आपको अनगिनत बार प्रणाम अनगिनत बार बधाई मेरी बधाई स्वीकार करें।

किसन लाल अग्रवाल
चक्रधरपुर
(१०)

साहित्य संगम संस्थान को नमन
विषय---दर्पण (शुचि संदीप)
विधा ---समीक्षा
दिनांक 12/01/19


                *समीक्षा*
शुचि सन्दीप द्वारा अपनी पुस्तक "दर्पण" में काव्य अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट संयोजन किया गया है।प्रकाशक हिन्दुस्तान प्रकाशन ने पुस्तक के कवर को जो लुक प्रदान किया है वह अपने आप में पुस्तक के नाम को सार्थक करता है। दर्पण और प्रतिबिंब को देखकर ही शीर्षक का प्रतिनिधित्व झलक उठता है।आमुख लेख पढ़कर अपने आप ही पुस्तक को पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है।प्रेम में फूलों के, सामाजिक कुरीतियो,छवि का चित्रांकन, प्रतिबिंब बने मस्तिष्क में, जैसी पंक्तियां पढ़कर बरवस मन को आकर्षित करता है।
पुस्तक में हर एक कविता को उत्कृष्ट शीर्षक देकर कवियत्री शुचि संदीप जी ने गागर में सागर समेटने की बेहतरीन कोशिश की है। मजबूत इरादे,प्रेम, अरमान, पहचानिए अपनी प्रतिभा,तब मां हुआ करती थी, मैं भी कुछ लिखूं,भ्रम,मान लो मेरा कहना आदि आदि लेखक के व्यक्तित्व को नया आयाम प्रदान करते हैं।हर कविता में सामाजिक, व्यवहारिक तथा प्ररेणादायक काव्यसृजन स्वमेव पुस्तक को संग्रह योग्य बनाता है।
कविताओं में लिखें पद सहज,सरल, आसान होते हुए गंभीरता, संवेदनशीलता के साथ विचारणीय भी है। जैसे
कोई भी बड़ा बनकर नहीं आता
हुनर को सामने रखकर ही मंजिल पाता

संकोची बनकर कब तक छुपते रहेंगे
                कवियित्री द्वारा लिखी पुस्तक हर समय,हर परिस्थिति,हर स्वभाव वाले व्यक्तियों को उपयुक्त है। विद्यार्थी, शिक्षक,लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, वैज्ञानिक अन्य अन्य सभी को प्ररेणाप्रद है तथा पसन्द आयेगी। कवियित्री द्वारा कवि धर्म व कर्म का बखूबी पालन किया गया है।
जिस कविता से मिले प्ररेणा ,,देश व समाज को।
वही रचना उत्कृष्ट होती,सच्चे साहित्यकार को।
********राजेश कौरव (सुमित्र)*********
(११)

प्यारी प्यारी सूची दीदी,❣

आपका *दर्पण* देखा,खुद का ही प्रतिबिंब नज़र आने लगा।सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर ,जीवन के विभिन्न पहलूओं को स्पर्श करती,अत्यंत सहज शब्दों से सजी,आपकी कविताओं की माला पहनकर दिल खुश हो गया ।
एक एक मोती संजोने योग्य है।माँ पर रचित भाव मन को छू लेती है।

अप्रतिम,अतुलनीय,दिली बधाई आपको

*ऋतुगोयल सरगम*✍

(१२)

🙏🌺🌹🌺🙏

      ॥ श्री ॥

“ आँखों में वह दर्पण होगा “

सिरहाने सपनों को रखकर
सारी रात स्वप्न में खोकर
रात बिताई एक दूजे की
प्रेम पथिक बाँहों में होकर

दिवास्वप्न की लेकर फाँकी
पनघट की भी देखी झाँकी
गागर ने घूँघट में लिखी
वे सब प्रेम कथाएँ बाँची।

कलियों की अरुणाई में भी
तरुणाई के भाव देखकर
अरुणोदय में धरा गगन के
संगम का स्वभाव देखकर

प्रकृति देखो प्रेम पगी है
सुधापान की चाह जगी है
निश्छल की निश्छलता भी तो
मुस्कानों के बीच ठगी है।

पाबंदी के दिन बीतेंगे।
देहरी के बंधन टूटेंगे
फिर तो मन के कोरेपन पर
प्रीत मिलन के गीत सजेंगे।

अनछुआ आकर्षण होगा
अर्पण और समर्पण होगा
अन्तर्मन की छवि उकेरे
आँखों में वह दर्पण होगा।

✍ रामावतार ‘निश्छल’

🙏🌺🌹🌺🙏

1 comment:

  1. आप सभी सम्माननीय समीक्षकों द्वारा प्रोत्साहन, सराहना एवम आशीर्वाद हेतु दिल से आभार व्यक्त करती हूँ।

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