Thursday, July 29, 2021

कज्जल छंद “समय का हेर-फेर”

 कज्जल छंद “समय का हेर-फेर”


समय-समय का हेर-फेर,

आज सेर कल सवा सेर।

जग में चलती एक रीत,

जाय अँधेरी रात बीत।


रहना छोड़ो अस्त-व्यस्त,

जीवन करलो खूब मस्त।

प्यारे सब में देख प्रीत,

गाओ मन से प्रेम गीत।


दुख का आता एक मोड़,

सुख जब जाता हाथ छोड़।

हँसना-रोना साथ-साथ,

डोर जगत की राम हाथ।


रखना मन में खूब जोश,

किंतु न खोना कभी होश।

छोड़ समय पर जीत-हार,

सब बातों का यही सार।

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कज्जल छंद विधान-

यह 14 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है। दो दो चरण या चारों चरण समतुकांत होते हैं।

इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

अठकल+त्रिकल+गुरु और लघु=14 मात्राएँ।

(अठकल दो चौकल या 3-3-2 हो सकता है, त्रिकल 21, 12, 111 हो सकता है तथा द्विकल 2 या 11 हो सकता है।)

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शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’

तिनसुकिया, असम


Tuesday, July 27, 2021

त्रिलोकी छंद 'शिव आराधना'

 त्रिलोकी छंद 'शिव आराधना'


बोल-बोल बम बोल,सदा शिव को भजो,

कपट,क्रोध,मद,लोभ,चाल टेढ़ी तजो।

भाव भरो मन मांहि,सोम के नाम के,

मृत्य जगत के कृत्य,कहो किस काम के।


नील कंठ विषधार,सर्प शिव धारते,

नेत्र तीसरा खोल,दुष्ट संहारते।

अजर-अमर शिव नाम,जपत संकट कटे,

हो पुनीत सब काज,दोष विपदा हटे।


हवन कुंड यह देह,भाव समिधा जले,

नयन अश्रु की धार,बहाते ही चले।

सजल नयन के दीप,भक्ति से हों भरे,

भाव भरी यह प्रीत,सफल जीवन करे।


महादेव नटराज,दिव्य प्रभु रूप है,

सृष्टि सृजन के नाथ,जगत के भूप है।

वार मनुज सर्वस्व,परम शिव धाम पे,

तीन लोक के नाथ,एक शिव नाम पे।

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त्रिलोकी छंद विधान-


यह प्रति पद 21 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है जो 11,10 मात्राओं के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है।

दो दो पद या चारों पद समतुकांत होते हैं।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

अठकल + गुरु और लघु, त्रिकल + द्विकल + द्विकल + लघु और गुरु = 11, 10 = 21 मात्राएँ।

(अठकल दो चौकल या 3-3-2 हो सकता है, त्रिकल 21, 12, 111 हो सकता है तथा द्विकल 2 या 11 हो सकता है।)

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Monday, July 26, 2021

दोही छंद 'माँ का आशीष'

 दोही छंद 'माँ का आशीष'


तम दूर रहे घर से सदा, उजियारा हो तेज।

जिस घर में बेटी जा रही, हों फूलों की सेज।।


घर मात-पिता का छोड़कर, अपनाओ ससुराल।

कुल मान सदा रखना बड़ा, जीवन हों खुशहाल।।


सुख सहज सकल तुमको मिले, लक्ष्मी रहे विराज।

हों सास-श्वसुर माँ-बाप सम, पिय हिय करना राज।।


मन भाव स्वच्छ पावन रहे, मृदु वाणी अनमोल।

जब क्रोध निकट आवें तभी, निज मन माँय टटोल।।


घृत दधि पय की नदियाँ बहे, दान धर्म हों रीत।

शुचि राम नाम धुन में रमे, जीवनमय संगीत।।

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दोही छंद विधान-


दोही, दोहे की ही प्रजाति का एक द्विपदी छन्द है। दोही अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। यह द्विपदी छन्द है जिसके प्रति पद में 26 मात्रा होती है।प्रत्येक पद 15, 11 मात्रा के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में १५-१५ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में ११-११ मात्राएँ होती हैं।सम चरणों का अंत गुरु लघु मात्रा से होना आवश्यक होता है।दूसरे और चौथे चरण यानी सम चरणों का समतुकान्त होना आवश्यक है।


विषम चरण -- कुल 15 मात्रा (मात्रा बाँट =द्विकल + अठकल + द्विकल + लघु + द्विकल = 2 + 8 +2 +1 +2 = 15 मात्रा)


सम चरण -- कुल 11 मात्रा (मात्रा बाँट = अठकल + ताल यानी गुरु+लघु)


अठकल यानी 8 में दो चौकल (4+4) या 3-3-2 हो सकते हैं। चौकल और अठकल के नियम अनुपालनीय हैं।)

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Friday, July 23, 2021

प्रदीप छन्द,'यादों के झोंके'

 प्रदीप छन्द,'यादों के झोंके'


मीठी यादों के झोंकों ने,सींचा उपवन प्रेम का,

पत्थर सम हिय भाव विरह ने,रूप दिखाया हेम का।

लम्बी दूरी पल में तय कर,सुखद स्नेह आगोश में,

झूला प्रियतम की बाहों में,झूली तन्मय जोश में।


पत्ता-पत्ता हरा हुआ है,कोमल कलियाँ झूमती,

फूलों का मृदु आलिंगन पा,ज्यूँ तितली हों चूमती।

साँसों को है भान स्नेह का,भाव नेह विस्तार से,

चित्र प्रीत से सने हुये सब,चलते चित्राहार से।


आकर मन को हल्का करती,यादें आँसूधार है,

नम आँखों से निरखूँ प्रिय को,संवादों का सार है।

रिमझिम बूँदों ने झकझोरा,अधरों के रसपान से,

निखरा सावन मन का मेरा,कोयल के मृदु गान से।


सींचे क्यारी को जीवन की,यादें पहले प्यार की,

जीने को फिर प्रेरित करती,यह बेला अभिसार की।

पुलकित हिय का कोना-कोना,मन वीणा की तान से

निखरी आभा मुखमण्डल की,हल्की सी मुस्कान से।

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प्रदीप छन्द विधान-


यह प्रति पद 29 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है जो 16,13 मात्राओं के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है।

दो दो पद या चारों पद समतुकांत होते हैं।


बेहतर समझने के लिये- पहला चरण चौपाई(16 मात्रा)+दूसरा चरण दोहे का विषम चरण(13 मात्रिक) होता है।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

अठकल*2, अठकल 212 =16+13 = 29 मात्राएँ।

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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम











Thursday, July 22, 2021

मधुर ध्वनि छन्द,'वर्षा'

 मधुर ध्वनि छन्द,'वर्षा'


बजत मधुर ध्वनि,चंचल चितवनि,अति सुखकारी,

मानो खिलखिल,सहज अकुंठिल,शिशु किलकारी।

दामिनि दमकी,बूँदें चमकी,बरसा पानी,

जन-जन गाये,अति हरषाये,रुत मस्तानी।


कल-कल नदियाँ,मृदु पंखुड़ियाँ,खग भी चहके,

जग यह सारा,गा मल्हारा,धुन पर बहके।

नन्ही बूँदें,आँखें मूँदे, खूब इतरती,

कभी इधर तो,कभी उधर वो,नाच बरसती।


उमड़-घुमड़ घन,बाजे झन-झन,खुशियाँ छाई,

मुदित मोहिनी,है सुगंधिनी, सी पुरवाई।

सौंधी-सौंधी, शुद्ध सुगन्धी,मिट्टी भायी,

जगत सहेली,छैल छबीली,वर्षा आयी।


हरित चूनरी,देह केशरी,धवल घाघरा,

छटा चहकती,नाच बहकती,बाँध घूघरा।

महके उपवन,लहके सब वन,निखरा आँगन,

निरखे घन मन,धरती दुल्हन,रूप सुहागन।

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मधुर ध्वनि छन्द विधान-


यह 24 मात्राओं का मात्रिक छन्द है।

क्रमशः 8,8,8 पर यति आवश्यक है।

चार चरणों के इस छन्द में दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिए। अन्तर्यति तुकांतता से छंद का माधुर्य बढ़ जाता है,वैसे यह आवश्यक नहीं है।


इसी छंद के चार पदों के प्रारंभ में एक दोहा जोड़ देने से प्रसिद्ध कुण्डलिया छंद की तर्ज का एक नया छंद बन जाता है जो "अमृत ध्वनि" के नाम से प्रसिद्ध है। "अमृत ध्वनि" में भी दोहा जिन शब्दों से शुरू होता है उन्हीं पर छंद समाप्त होता है। 

जैसे-

"रूप सुहागन सा सजा, रिमझिम बरसै मेह।

थिरकै धरणी मग्न हो, हरित चूनरी देह।।

हरित चूनरी,देह केशरी,धवल घाघरा,

छटा चहकती,नाच बहकती,बाँध घूघरा।

महके उपवन,लहके सब वन,निखरा आँगन,

निरखे घन मन,धरती दुल्हन,रूप सुहागन।"

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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम



Wednesday, July 21, 2021

सिंह विलोकित छन्द,'नारी जिसने सदा दिया'

सिंह विलोकित छन्द,'नारी जिसने सदा दिया'


छवि साँझ दीप सी सदा रही,

मैं तिल-तिल जलकर कष्ट सही।

तम हरकर रोशन सदन किया,

हूँ नारी जिसने सदा दिया।


सरि बनकर पर हित सदा बही,

जग करे प्रदूषित,मौन रही।

गति को बाँधों में जकड़ दिया,

तब रूप वृहत को सिमित किया।


नर के शासन के नियम कड़े,

बन क्रोधित घन से गरज पड़े।

मैं नीर बहाती मेह दुखी,

फिर भी सुख देकर हुई सुखी।


मैं विस्मित भू बन मनन करूँ,

नित अपमानों के घूँट भरूँ।

माँ ने मेरी भी सहन किया,

चुप रहकर सहना सिखा दिया।

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सिंह विलोकित छंद  विधान–

 सिंह विलोकित सोलह मात्राओं की सममात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण,क्रमशः दो-दो समतुकांत रहते हैं। चरणान्त लघु-गुरु(१२) अनिवार्य है।

द्विकल + अठकल + त्रिकल तथा लघु-गुरु या

2 2222 3 1S= 16 मात्रायें।


"मात्रा सोलह ही रखें,चरण चार तुकबंद।

दुक्कल अठकल अरु त्रिकल,लघु-गुरु रखलो अंत।।

सम मात्रिक यह छन्द है,बस इतना लो जान।

सिंह विलोकित छन्द का,रट लो आप विधान।।"

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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम



Tuesday, July 20, 2021

सेठजी जयदयालजी गोयन्दका,'लावणी छन्द'

  "जयदयालजी गोयन्दका"


देवपुरुष जीवन गाथा से,प्रेरित जग को करना है,

संतों की अमृत वाणी को,अंतर्मन में भरना है।

है सौभाग्य मेरा कुछ लिखकर,कार्य करूँ जन हितकारी,

शत-शत नमन आपको मेरा,राह दिखायी सुखकारी।१।


संत सनातन पूज्य सेठजी,जयदयालजी गोयन्दका,

मानव जीवन के हितकारी,एक अलौकिक सा मनका।

रूप चतुर्भुज प्रभु विष्णु का,राम आचरण अपनाये,

उपदेशों को श्री माधव के,जन-जन तक वो पहुँचाये।२।


संवत शत उन्नीस बयालिस, ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी पावन,

चूरू राजस्थान प्रान्त में,जन्मे ये भू सरसावन।।

माता जिनकी श्यो बाई थी,पिता खूबचँद गोयन्दका,

संत अवतरण सुख की बेला,धरती पर दिन खुशियों का।३।


दिव्य रूप बालक का सुंदर,मुखमण्डल तेजस्वी था,

पाँव दिखे पलना में सुत के,लगता वो ओजस्वी था।।

आध्यात्मिक भावों का बालक,दया,प्रेम,सद्भाव लिये,

जयदयालजी ने आजीवन,जन मानस कल्याण किये।४।


पहले करनी फिर कथनी ही,मूलमंत्र जीवन का था,

सत्य,अहिंसा,दूरदर्शिता,समता भाव समाहित था।

गीता,रामायण,पुराण सब,बचपन में पढ़ डाले थे,

राह पकड़कर गीता की तब,गूढ़ सभी खंगाले थे।५।


कार्यक्षेत्र बाँकुड़ कलकत्ता,वैश्य वर्ण निष्कामी थे,

तन,मन,धन पर सेवा खातिर,श्री माधव अनुगामी थे।

धोती,चादर और चौबन्दी, केशरिया पगड़ी पहने,

परम प्रचारक प्रभु वाणी के,गीतामय धारे गहने।६।


दिव्य प्रेम का अनुभव करके,तत्व आपने जो जाना,

जनम-मरण के दुख हरने का,साधन उसको ही माना।

सहज मार्ग भगवत्प्राप्ति का,ढूँढन की मन में धारी,

चाहे कोई भी हो अवस्था,है हर मानव अधिकारी।७।


*गीता प्रचार का मार्ग*


दृष्टि टिकी गीता के इन दो,प्रेरित करते श्लोकों पर,

भगवत आज्ञा पालन हेतु, हुये अग्रसर वो तत्पर,

"निसन्देह मेरा वो होगा,गीता गूढ़ प्रचार करे,

अतिशय प्रिय वो भक्त मुझे जो,गीता का संज्ञान धरे।"

।८।


जन मानस उद्धार हेतु जब,मार्ग मिला उनको शाश्वत,

स्वयं चले फिर सबको चलाया,हुये पूर्ण तब ही आश्वश्त।

युगदृष्टा ने अटल सत्य की,राह सुलभ बनवायी थी,

घर-घर गीता,जन-जन गीता,यही सोच अपनायी थी।९।


*गीताप्रेस स्थापना*


तत्व ज्ञान गीता का पाकर,हुआ सुवासित जीवन था,

जन-मन में कण विकसित करना,भाव प्रबल उनका धन था,

गहन सीप में बसती मानो,गीता पुस्तक मोती थी,

उत्कंठा भक्तों को गीता,पढ़ने की नित होती थी।१०।


थी दूभर गीता की प्रतियाँ, प्रसरण में भी रोड़ा था,

निष्ठावान भक्त ने लेकिन, बाधाओं को तोड़ा था।

सुलभ मुल्य अरु स्वच्छ कलेवर,टंकण त्रुटियों रहित रहे,

सहज प्राप्त हो पाठक गण को,सही अर्थ के सहित रहे।११।


भक्तों के स्वाध्याय हेतु ही,निश्चित साधन ढूँढ़ लिया,

था उन्नीस सौ तेईस सन् जब,दुविधा का उपचार किया।

गोरखपुर में हुई स्थापना,गीता प्रेस नाम ठाना,

जीवन उद्धारक वचनामृत,घर-घर में था पहुँचाना।१२।


दिव्य दृश्टि हम कार्यप्रणाली,बुरी चला नहि पायेंगे,

अगर कार्य अच्छे हैं अपने,तो भगवान चलायेंगे।

कार्यक्षेत्र में हाथ बँटाने, स्वयं प्रभु ने रूप धरे,

विविध कार्य कर कमलों से कर,धर्म ग्रँथ भंडार भरे।१३।


सत् साहित्य तथा सद्भावों,धर्म हेतु विस्तार किया,

उनके करकमलों ने जग को,पुस्तक का भंडार दिया।

भाईजी मौसेरे भाई,सहज समर्पित थे आगे,

प्रभु सेवक निःस्वार्थ भाव से,योगदान करने लागे।१४।


धर्म सनातन गौरव संस्कृति,तत्व गूढ़ प्रेरित करते,

मुख्य द्वार है हस्तकला की,विविध शैलियों को भरते।

दीवारों पर संगमरमर की,पूरी गीता खुदवायी,

दोहे,चौपाई, प्रभु लीला,भक्तों के हिय को भायी।१५।


षोडसमन्त्र नाम जप करने,कल्याण पत्र प्रारम्भ हुआ।

दैवी गुण को ग्रहण कराने,साधक संघ आरम्भ हुआ।

कल्याणी "कल्याण" मासिका,विविध पुस्तकें छपती हैं,

सर्वाधिक ही धर्म पुस्तकें,अब तक वहीं पनपती हैं।१६।


*गीता भवन ऋषिकेश स्थापना*


माँ गंगा की निर्मल धारा,कल-कल नित जहँ बहती हों,

शुचितामय पावन मिट्टी भी,हरि गाथा बस कहती हों।।

कोलाहल से दूर कहीं बस,राम नाम को सुनना था,

ऐसी पावन पुण्य भूमि को,सत्संग हेतु चुनना था।१७।


उत्तराखण्ड पवित्र धरा पर,अद्भुत यह संयोग मिला,

ऋषिकेश स्वर्गाश्रम में तब,भाव भक्ति का पुष्प खिला।

सघन वनों से घिरा हुआ पथ,साधन जीवन के थोड़े,

प्रबल इरादों से भक्तों ने,बाधाओं से मन जोड़े।१८।


गंगा तट वटवृक्ष अलौकिक,परम् शांतिप्रिय स्थान लगा,

पूज्य सेठजी के मन में तब,प्रभु का ही संदेश जगा।।

गीता भवन नींव रख डाली,पुण्य काज उनके न्यारे।

भगवत्चिंतन हिय में धारे,भक्त लगे आने सारे।१९।


भक्तों की सुख सुविधा के हित,साधन जुटते गये सभी,

उसी नींव पर खड़े हुए हैं,सातों गीता भवन अभी।

दुर्लभ मानव जीवन सद्गति,सत्संगत से होती है,

अंधकार को दूर भगाये, सत्संग ऐसी ज्योति है।२०।


"प्रेरक प्रसंग"

(१)

एक बार हरिजन बस्ती में,आग लगी थी जोरों से,

हृदय फटा सुन बच्चों की तब,क्रंदन हाहाकारों से,

बस्ती नव-निर्माण कराया,खुशियाँ दामन में भर दी,

लेकिन हरिजन किस्मत ने भी,बार-बार हद ही कर दी।२१।

समझाया लोगों ने प्रभु भी,नहीं चाहते घर बनना,

था जवाब कर्तव्य निभायें,अहम कर्म पर दुख हरना।

तीन बार आवास जले थे,फिर निर्माण कराया था,

दुखियों को सहयोग दिया था,घर हर बार बसाया था।२२।

(२)

एक पड़ौसी रक्त पिपासु,अनबन उनसे रखता था,

लेकिन देवपुरुष निश्छल मन,सदा शान्त ही रहता था,

मंडा ब्याह कन्या का उसकी,बाराती आ पहुँचे थे,

घर वृद्धा परलोकगमन से,संकट बादल छाये थे।२३।


भूल गये सब बाराती को,दाह-क्रिया में लगे सभी,

सुनी सेठजी ने जब घटना,भागे स्टेशन तुरन्त तभी,

समुचित,सुंदर,सौम्य व्यवस्था,बाराती की करवाई,

उत्तर "क्या उपकार किया है,मेरी इज्जत थी भाई"।२४।


एक बार फल विक्रेता ने,छल से फल तौले थोड़े,

थी फटकार लगाई उसको,बातों के मारे कोड़े,

"बात नहीं कम फल हैं तौले,नरक सुनिश्चित लगता है,

देख अहित सकती नहि आँखें,अतिशय हृदय सुलगता है"।२५।

*उपंसहार*

बिन माँगे प्रभु सब देते हैं,माँग तुच्छता होती है,

भक्त सजग निष्काम भाव के,दिव्य प्रेम की ज्योति है।

प्रेरक जीवन के प्रसंग को,पढ़कर लाभ उठाना है,

मानव सद्गति एकमात्र बस,धारण करके पाना है।२६।


विज्ञ,तपस्वी,व्याख्याता वे,वक्ता थे सद्भावों के,

दृढ़ प्रतिज्ञ स्वयं रहते थे,अपने सभी सुझावों के।

गीता तत्व विवेचनी में सब,गीताजी के सार दिये,

रची गजल गीता भी उन ने,गीता अति लघु रूप लिये।२७।


खुद की मान बड़ाई से उठ,चले वही सच्चा साधक,

फोटो, स्मारक आदि बनाना,प्रभु पूजा में है बाधक।

गायत्री,गोविंदा,गंगा,गीता,गौ सेवा करना,

प्राण बसे थे इन पाँचों में,भाव,कर्म का यह झरना।२८।


कर्मक्षेत्र को धर्मक्षेत्र में,परिवर्तित जो करते हैं,

ऐसे दुर्लभ संत धरा पर,सदियों बाद विचरते हैं।

अमृत उपदेशों को उनके,जन-जन तक पहुँचाना है,

आत्मसात कर जीवन में भी,कर चरितार्थ दिखाना है।२९।


लगता है वो एक मिशन पर,प्रभु सेवक बन आये थे,

मानव जीवन उद्देश्यों को,कर धारण बतलाये थे।

"हंस अकेला उड़ जाएगा",रे मानव उद्धार करो,

सहज सुगम सद्गति पथ बढ़ना,लक्ष्य एक चित मांय धरो।३०।


अब भी विद्यमान कण-कण में,रहते थे वो कब तन में,

हृदय बसी गीता का मधुरस,बाँट रहे वो जन-जन में।

भौतिक तन से ऊपर उठकर,जिसने जग को तारा है,

हे संतों के संत आपको,शत-शत नमन हमारा है।३१।


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम





























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