Tuesday, May 28, 2019

गीत "होली"

धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है
मिले भरपूर सुख सबको, सिंचाई कामना की है।

मिटाये द्वेष के कीड़े, मिलायी खाद जनहित की,
जहाँ खुशियाँ सदा खिलती, बनी बगिया ये जनहित की,
सजी धरती ये दुल्हन सी, लगे अम्बर दीवाना सा,
कि होली प्रेम के फल की, बड़ी संभावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका फसल सद्भावना की है।

कि बचपन की शरारत ये, है यौवन की ये अल्हड़ता,
बुढापा सात रंगों का, है पिचकारी की ये क्षमता,
लगे राधा सी हर बाला, कि वल्लभ संग सी जोड़ी,
विजय है सत्य की होली, अगन दुर्भावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है।

है होली रंग जीवन का, कोई बेरंग जब करता,
किसी की छीनकर खुशियाँ, तमस से जिन्दगी भरता,
भुलाता सभ्यता हो तो, ये मन प्रतिरोध करता है,
हमें मानव बनाती जो, ये होली भावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है।

अगर खुशियाँ नहीं देते,न काँटों को बिछाना तुम।
दिलों में प्रेम की बाती,सदा हँसकर जलाना तुम।
शपथ है देश की गरिमा, सदा ऊँची रखेंगे हम।
पहल कुछ खास करने की, सुखद प्रस्तावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है।


सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

गीत "होली"

धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है
मिले भरपूर सुख सबको, सिंचाई कामना की है।

मिटाये द्वेष के कीड़े, मिलायी खाद जनहित की,
जहाँ खुशियाँ सदा खिलती, बनी बगिया ये जनहित की,
सजी धरती ये दुल्हन सी, लगे अम्बर दीवाना सा,
कि होली प्रेम के फल की, बड़ी संभावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका फसल सद्भावना की है।

कि बचपन की शरारत ये, है यौवन की ये अल्हड़ता,
बुढापा सात रंगों का, है पिचकारी की ये क्षमता,
लगे राधा सी हर बाला, कि वल्लभ संग सी जोड़ी,
विजय है सत्य की होली, अगन दुर्भावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है।

है होली रंग जीवन का, कोई बेरंग जब करता,
किसी की छीनकर खुशियाँ, तमस से जिन्दगी भरता,
भुलाता सभ्यता हो तो, ये मन प्रतिरोध करता है,
हमें मानव बनाती जो, ये होली भावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है।

अगर खुशियाँ नहीं देते,न काँटों को बिछाना तुम।
दिलों में प्रेम की बाती,सदा हँसकर जलाना तुम।
शपथ है देश की गरिमा, सदा ऊँची रखेंगे हम।
पहल कुछ खास करने की, सुखद प्रस्तावना की है।
धरातल प्रेम है जिसका, फसल सद्भावना की है।


डॉ. सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

गजल "कण कण केशरिया मिट्टी का"

बह्र-22 22 22 22 22 2

कण-कण केशरिया मिट्टी का दिखता है।
जग का गुरु भारत कहलाता दिखता है।

था विश्वास कभी तो जनता जागेगी।
अंत समय भ्रष्टाचारी का दिखता है।

फिर इक बार वही सत्ता में आये हैं।
देश से बढकर जिनको कुछ ना दिखता है।

कथनी करनी एक बना जो जीते हैं।
उनके पीछे जग ये सारा दिखता है।

झूठे वादे करके राज किया जिसने।
वो जंगल प्रस्थान करेगा दिखता है।

होगा न्याय कहा नारों के जरिये से।
चार दशक अन्याय किया था दिखता है।

"शुचिता"भारत की अक्षुण्ण रहेगी अब।
 चौकीदार बड़ा बलवाला दिखता है।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
25.5.2019

Tuesday, May 21, 2019

शैलसुता छन्द,"जीवन पथ"

शैलसुता छंद "जीवन पथ"

लगन लगी पथ जीवन का परिवर्तित मैं करके निखरूँ।
इस पथ के सब संकट को लख जीवन में न कभी बिखरूँ।।
अपयश, क्रोध, गुमान, अनादर, लालच, आलस छोड़ सकूँ।
सुख रस धार जहाँ बहती उस ओर सभी पथ मोड़ सकूँ।।

बदल चुका युग स्वार्थ धरा पर पाँव पसार रहा जम के।
तन मन खाय रही मद की लत लक्षण ये गहरे तम के।।
सब अवसादिक तत्व मिटाकर जोश उमंग भरूँ मन में।
दुखित सभी अपने समझूँ रसरंग भरा अपनेपन में।।

यह जन जीवन कंटक का वन मैं बन पुष्प सदा महकूँ।
भ्रमित करे पथ जो उस में पड़ मैं सुध खो न कभी बहकूँ।।
परहित भाव सदा सुखदायक, स्वार्थ बड़ा दुखदायक है।
ग्रहण करूँ वह सार अमोलक जो सुख मार्ग सहायक है।।

नर-तन है अति दुर्लभ पार करूँ इससे भवसागर को।
तन अरु निश्छल भाव भरा मन सौंप सकूँ नट नागर को।।
जतन करूँ मन से सुधरूँ समतामय जीवन ये कर दूँ।
सकल विकार मिटा कर के मन में 'शुचि' पावनता भर दूँ।।
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शैलसुता छंद विधान -

 शैलसुता छंद चार चरण का वर्णिक छंद होता है जिसमें दो- दो चरण समतुकांत होते हैं।

4 लघु + 6भगण (211) 
+1 गुरु = 23 वर्ण

1111 + 211*6 + 2

इसी छंद में जब 13, 10 वर्ण पर यति की बाध्यता हो तो यही -

"कनक मंजरी छंद" कहलाती है।
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शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

रास छन्द, "कृष्ण कन्हाई"


"रास छन्द"

रास रचैया,गोकुल वासी, सांवरिया।
सखियाँ सारी, हो जाती है, बावरिया।।

राधा सुध बुध, खो कर बैठी, मधुबन में।
मोहन प्यारा, बैठ गया है, चितवन में ।।

वृंदावन में, धूम मचा कर ,छल करते ।
मटकी फोड़े, माखन खाए, हठ करते।।

खेल खेल में, बाधाओं से, लड़ पड़ते।
अवतारी प्रभु ,बाल रूप में, थे लड़ते।।

कृष्ण रूप में,लीला खेली,अद्भुत है
मात देवकी, मात यशोदा, का सुत है ।

नमन करे 'शुचि', हाथ जोड़कर, दरशन दे
प्रेम अश्रु को, आंखों से प्रभु, बरसन दे।।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

विधान-रास छंद [सम मात्रिक]

विधान – 22 मात्रा, 8,8,6 पर यति, अंत में 112 , चार चरण , क्रमागत दो-दो चरण तुकांत l


दोहा छन्द "नीम"

नीम पत्तियाँ खाइये, नित ताजा दस पाँच।
रक्त विकार मिटे सभी,आएगी नहिं आँच।१।

नीम सुखाकर राखिये, मंजन करिये भोर।
पायरिया छू ना सके, दंत लगे चितचोर।२।

फोड़े फुंसी घाव पर, इसका लेप लगाय।
चर्म रोग को दूर कर,जूँ को दूर भगाय।३।

फूल पत्तियाँ नीम की,और निबोली भाग।
इसकी फाँकी से हटे,तन के सारे दाग।४।

पथरी, कब्ज, बुखार का, नीम अचूक इलाज।
नीम भगाये रोग वो, होय जो लाइलाज।५।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

Monday, May 20, 2019

गजल "प्रतिरोध"


हनन अधिकार का हो तो ये मन प्रतिरोध करता है।
जहाँ सच हारता हो तो  ये मन प्रतिरोध करता है।

दलाली अस्मिता की कर रहा बेटा किसी माँ का,
सुमन को रौंदता हो तो ये मन प्रतिरोध करता है।

किसी अनपढ़ पे ज्ञानी की निगाहें हो तिरष्कृत सी, 
वही धिक्कारता हो तो ये मन प्रतिरोध कर ता है।

किसी से छीनकर रोटी पिये हाला रियासत की,
रुलाकर नाचता हो तो ये मन प्रतिरोध करता है।

हुए माँ-बाप जब बूढ़े दिखाता आँख बेटा ही,
बग़ावत पर खड़ा हो तो ये मन प्रतिरोध करता है।

किया अपमान नारी का बड़े हक़ से सदा नर ने,
सताकर मारता हो तो ये मन प्रतिरोध करता है।

प्रताड़ित हो रही हिन्दी वतन अपने ही भारत में,
कि दोषी ही सगा हो तो ये मन प्रतिरोध करता है।

है होली रंग जीवन का, कोई बेरंग जब करता,
भुलाता सभ्यता हो तो ये मन प्रतिरोध करता है।

रखें आबाद 'शुचिता'को कि गंगा माँ हमारी है,
टूटती भव्यता हो तो ये मन प्रतिरोध करता है।


 सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

गजल "जिंदगी चाहें तो हम बहतर बना सकते"

(बह्र-2122 2122 2122 212)
तरही मिसरा-"जिंदगी में जिंदगी जैसा मिला कुछ भी नहीं"


प्यार का तुमने दिया हमको सिला कुछ भी नहीं,
मिट गये हम तुझको लेकिन इत्तिला कुछ भी नहीं।

कोख में ही मारकर मासूम को बेफ़िक्र हैं,
फिर भी अपने ज़ुर्म का उनको  गिला कुछ भी नहीं।

राह जो खुद हैं बनाते मंजिलों की चाह में,
अस्ल में उनकी नज़र में  काफिला कुछ भी नहीं।

हौसले रख जो जिये पाये सभी कुछ वे यहाँ,
बुज़दिलों को मात से ज्यादा मिला कुछ भी नहीं।

ज़िंदगी चाहें तो हम बहतर हम बना सकते मगर,
ज़ीस्त में हो रंज-ओ-ग़म का  दाखिला कुछ भी नहीं।

रहते जो हर हाल में खुश वो कहाँ कहते कभी
*जिंदगी में जिंदगी जैसा मिला कुछ भी नहीं*।

प्रेम की 'शुचिता' बहाकर जिंदगी में तुम जिओ
प्रेम जीवन में अगर तो अधखिला कुछ भी नहीं।

(मौलिक)
सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

गजल "जिंदगी चाहें तो हम बहतर बना सकते


(बहर-2122 2122 2122 212)
तरही मिसरा-"जिंदगी में जिंदगी जैसा मिला कुछ भी नहीं"



प्यार का तुमने दिया हमको सिला कुछ भी नहीं
मिट गये हम तुझको लेकिन इत्तिला कुछ भी नहीं

कोख में ही मारकर मासूम को बेफ़िक्र हैं
फिर भी अपने ज़ुर्म का उनको  गिला कुछ भी नहीं।

राह जो खुद हैं बनाते मंजिलों की चाह में ,
अस्ल में उनकी नज़र में  काफिला कुछ भी नहीं।

हौसले रख जो जिये पाये सभी कुछ वे यहाँ
बुज़दिलों को मात से ज्यादा मिला कुछ भी नहीं।

ज़िंदगी चाहें तो हम बहतर हम बना सकते मगर
ज़ीस्त में हो रंज-ओ-ग़म का  दाखिला कुछ भी नहीं।

रहते जो हर हाल में खुश वो कहाँ कहते कभी
*जिंदगी में जिंदगी जैसा मिला कुछ भी नहीं*।

प्रेम की 'शुचिता' बहाकर जिंदगी में तुम जिओ
प्रेम जीवन में अगर तो अधखिला कुछ भी नहीं।

(मौलिक)
डॉ. सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

गजल "जिंदगी चाहें तो हम बहतर बना सकते"

(बहर-2122 2122 2122 212)
तरही मिसरा-"जिंदगी में जिंदगी जैसा मिला कुछ भी नहीं"



प्यार का तुमने दिया हमको सिला कुछ भी नहीं,
मिट गये हम तुझको लेकिन इत्तिला कुछ भी नहीं।

कोख में ही मारकर मासूम को बेफ़िक्र हैं,
फिर भी अपने ज़ुर्म का उनको  गिला कुछ भी नहीं।

राह जो खुद हैं बनाते मंजिलों की चाह में ,
अस्ल में उनकी नज़र में  काफिला कुछ भी नहीं।

हौसले रख जो जिये पाये सभी कुछ वे यहाँ,
बुज़दिलों को मात से ज्यादा मिला कुछ भी नहीं।

ज़िंदगी चाहें तो हम बहतर हम बना सकते मगर,
ज़ीस्त में हो रंज-ओ-ग़म का  दाखिला कुछ भी नहीं।

रहते जो हर हाल में खुश वो कहाँ कहते कभी
*जिंदगी में जिंदगी जैसा मिला कुछ भी नहीं*।

प्रेम की 'शुचिता' बहाकर जिंदगी में तुम जिओ
प्रेम जीवन में अगर तो अधखिला कुछ भी नहीं।

(मौलिक)
डॉ. सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

Sunday, May 19, 2019

दोहे "सत्यमेव जयते"

सत्य सनातन धर्म ने, पकड़ी सच की राह।
सत्यमेव जयते बना, ध्वज की पहली चाह।१।

गहरा दलदल झूठ का, जो गिरते पछताय।
सत्य कलश अमृत भरा, जो पीवे तर जाय।२।

झूठ कपट मन जानता, विचलित भीतर होय।
खुल जाए जब भेद तो,  स्वयं प्रतिष्ठा खोय।३।

सच कड़वी सी है दवा, भला करे वह काम।
झूठ बिगाड़े काज को, डूबे जग में नाम।४।


सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

दोहे "साहित्यनीति"

नौ रस की स्याही भरें, पर हित भाव समाय।
सृजन क्रांति संसार में, शांति दूत कहलाय।१।

कलम चले सच राह पर, रोड़े आएँ लाख।
दुश्मन दुनिया ही बने, चाहे तोड़े शाख।२।

दुष्टों के हिय जा लगे, बाण करे आघात।
हृदय बदलना ही पड़े, शब्दों से दो मात।३।

लेखन ऐसा कीजिये, खुशहाली जो लाय।
राजनीति पर वार से, भृष्टाचार मिटाय।४।

व्यंग बाण मत छोड़िए, ओछी हरकत होय ।
आँच नहीं है साँच को, लेखन गरिमा खोय।५।

बाल सुलभ साहित्य से, करें विश्व कल्याण।
कोमल मन कच्चा घड़ा, भरें सृजन से प्राण।६।

आडम्बर को तोड़िये, धर्म नीति अपनाय।
पर हित हेतु सभी रचें, जो सबके मन भाय।७।

शुचिता"पावन नीति हिय,  पर हित अरु निःस्वार्थ।
धर्म युद्ध करने चले, गीता सुनकर पार्थ।८।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

"लावणी छन्द"नारी तेरे रूप अनेक

शीतल जल सा मस्तक ठंडा,आँचल अमृत धार बहे,
काँधे पर जो बोझ उठाया,मिल जुल कर सब भार सहे।

अलग सभी के तौर तरीके,निपुण कार्य सब करती है।
सबकी प्यास बुझाने खातिर,नारी पानी भरती है।

माता सुता बहन पत्नी बन,मंगल कलश उठाती है।
सुख समृद्धि धन वैभव घर में,लक्ष्मी बनकर लाती है।

पीढ़ी दर पीढ़ी नारी ही, घर संसार चलाती है।
यही धरोहर सदियों से वह, अपने माथ सजाती है।

मुख मोड़ा है जंजीरों से, बढ़ते कदम प्रगति पथ पर,
चढ़ने को चल पड़ी निकल कर, सकल सफलता के रथ पर।

नारी का श्रृंगार अनूठा, टीका मस्तक पर सोहे।
कंगन बाली सुरमा लाली, ये सबके मन को मोहे।

संयुक्तम परिवार ढाल बन, नारी बोझ उठाती है।
अपनी-अपनी मर्यादा में, रहकर साथ निभाती है।

अम्बर सा विस्तार कोख का, हरियाली जग में लायी।
धर्म सदा ही समझे अपना, जग की आभा कहलायी।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

"लावणी छन्द" नारी को न्याय देना ही होगा

हरदम कूट नीति अपनाई,स्वार्थ पुरुष ने धारा है।
नारी पर सुन्दर उपनामों,के आभूषण वारा है।
स्वप्न सुनहरे दिखला कर ही,विस्मृत उसने कर डाला,
नारी को भयभीत बनाकर,डर उसके हिय में पाला।

है विडंबना ठगना हो तो,चाटुकार का रूप धरो,
सोच समझ षडयंत्र रचाकर,चतुराई से काम करो।
निकल न जाये आगे नारी,घर की शोभा कह डालो,
सुख-सुविधाएँ सब देकर के,उसको भीतर ही पालो।

देवी उपनामों से अलंकृत,सहनशीलता सिखलायी,
ममता की फिर मूरत माता,भाग्यविधाता कहलायी।
चित्रकार और कवियों की भी,बनी प्रेरणा नारी ही,
मर्यादा की चारदिवारी,पायी उसने सारी ही।

छिपकर नर ने आदिकाल से,हरदम नारी को रोका,
मीठी बातों का आलिंगन,बढ़ने से हरदम टोका।
समझ सकी नहि भोली नारी,शिक्षा का आभाव रहा,
बुद्धिहीन, कमजोर बनी वह,उत्पीड़न का बोझ सहा।

दूरदर्शिता का अभाव अब,केवल भारत भुगत रहा,
बन अपंग नर प्रगति पंथ पर,बिन साथी के झुलस रहा।
शिथिल बनाकर एक अंग को, अक्षम उसने कर डाला,
वस्तु बनी मन बहलाने की,बनी रह गयी अब हाला।

गरिमा पर कामुक तीरों का,वार सदा नर करता है,
अँधी नारी हाथ तराजू,देवी कहकर छलता है
समझ रही सब नारी अब तो,कदम मिलाकर चलती है,
ज्वाला परचम लहराने की,नारी हरपल जलती है।

भेदभाव की जंजीरों को,सब मिलकर अब तोड़ेंगे,
भारत की राहों को हम सब,विश्व धरा से जोड़ेंगे।
नारी को सम्मान दिलाकर,खुशियों से घर भरने दो,
बेटी के जन्मोत्सव पर अब,उत्सव मिलकर करने दो।

नया दौर है नयी उमंगें, मोल समझ में अब आया,
तमस मिटा जग का अब सारा,सुखद सवेरा है छाया।
जन-जन को जागृत करके ही,संदेशा देना होगा,
अधिकारों की मूरत नारी,न्याय अभी देना होगा।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

Monday, May 13, 2019

गज़ल,"कम भी नहीं है हौसले"

(बहर-2212  2212  2212  2212)

कम भी नहीं है हौसले गिर भी पड़ी तो क्या हुआ।
है जिन्दगी के सामने बाधा खड़ी तो क्या हुआ ।।

चल दूँ जिधर खुद रास्ता मिलता मुझे ही जाएगा।
टूटी अगर रिश्तों की' इक नाजुक कड़ी तो क्या हुआ।।

मैं ढूँढ लूँगी राह को अपना हुनर मैं जानती।
वो साथ दे या बाँध ही दे हथकड़ी तो क्या हुआ।।

सर पे बिठा रक्खा था मैंने बेवफा को आज तक।
सारी हदों को तोड़कर मैं ही लड़ी तो क्या हुआ।।

जब गीत सारे प्यार के मुरझा गये सहराहों में।
फिर बारिशों की लग पड़ी रोती झड़ी तो क्या हुआ।

इक भूल ने ही जिन्दगी जीना हमें सिखला दिया।
गर वक्त की चोटें हमें खानी पड़ी तो क्या हुआ।।

ताकत यही मैं टूटकर बिखरी नहीं हूँ आज तक।
आराम की आई नहीं अब तक घड़ी तो क्या हुआ।।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

Sunday, May 12, 2019

ताटंक छन्द,"बचपन की दीवाली"

लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।
माँ-बाबूजी के साये में,
दुनिया की खुशहाली थी।

डट जाते हम सब बच्चे भी,
घर की साफ-सफाई में,
कोई छज्जे पर चढ़ जाता,
कोई लिपटा छाई में।
सुविधाओं का पतझड़ था पर,
खुशियों की हरियाली थी।
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

पाकर अपने खेल-खिलौने,
छत,आँगन,चौबारे में,
पुलकित मन मेरा हो उठता,
दिखती खुशियाँ सारे में।
कितनी खुश थी माँ जब मैंने,
ढूँढी खोई बाली थी।
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

चखने की चाहत व्यंजन की,
भूख याद वो आती है,
भरे पड़े पकवान आज पर,
खुशबू वो ललचाती है।
दीपों से जगमग घर होते,
सुखद बड़ी उजियाली थी।
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

एक थान कपड़े से सबकी,
वेश-भुषा बन जाती थी,
चार लड़ी को खोल पटाखों,
का मैं ढेर लगाती थी।
खुशियों का था बड़ा पिटारा,
प्रेम परोसी थाली थी,
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

गाँवों की कच्ची सड़कों पर,
चलते रिश्ते पक्के थे,
सपने जिन पर दौड़ा करते,
वो दुर्लभ से चक्के थे।
उस छोटे से जीवन में ही,
दुनिया सारी पा ली थी।
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

ताटंक छंद, "स्वच्छ भारत"

"स्वच्छ भारत"
विधा- (ताटंक छंद)

सुंदर स्वच्छ बनेगा भारत, ऐसा शुभ दिन आएगा।
तन मन धन से भारतवासी ,जब आगे बढ़ जाएगा।।
अलग-अलग आलाप छोड़कर, मिलकर सुर में गाएगा ।
गाँव नगर हर शहर-शहर से, भ्रष्टाचार मिटाएगा।।

हरियाली की चाहत से भू, वृक्षों से लहकाएँगे।
एक अकेला जन थक जाए, हम सब साथ निभाएँगे।।
सबसे आगे होगा भारत, सोच यही अपनाएँगे
जैसा बीज रखेंगे मन में, अंकुर वैसा पाएँगे।।

बन्द तिजोरी से धन काला, बाहर अब लाना होगा।
घोटालों से मुक्त देश यह, जन-जन को करना होगा।।
लालच की गंदी गलियों से, कचरे को उठवाएँगे।
शुद्ध कमाई जो भी होगी, उसको मिलकर खाएँगे।


बेटा-बेटी एक बराबर, यही सोच अपनाएँगे।
गाँव-शहर की हर बेटी को, विद्यालय पहुँचाएँगे।।
नारी के प्रति बुरी नजर से, नर ऊपर उठ जाए तो।
मानवता की स्वच्छ लहर का, प्रादुर्भाव तभी तो हो।।


शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"
तिनसुकिया, आसाम


ताटंक छन्द "रुक जा जरा, सोच फिर मानव"

मस्तक पर  बादल विनाश के,
हाथों में मद प्याला है।
चिथड़े कर डाले विवेक के,
नित शिकार इक बाला है।
कहता प्रगति राह में हूँ मैं,
 कृत्य दिखे क्यूँ काला है?
रुक जा जरा सोच फिर मानव
ढूंढो कहाँ  उजाला है?

रक्तिम आँसू रोये धरती,
हवा बनी अब ज्वाला है।
तिल तिल कर मरते वो प्रतिपल,
जिन हाथों ने पाला है।
बिखरी हाथों की रेखाएं,
उजड़ी ज्योतिष शाला है,
रुक जा जरा सोच फिर मानव,
ढूँढो कहाँ उजाला है?

बढ़ती आबादी रोगों की,
लगा उम्र पर  ताला है।
नुक्कड़ नुक्कड़ बुच्चर खाना,
 हो गयी कम गौशाला है।
स्वार्थ और लालच का रोगी
बना हुआ रखवाला है।
रुक जा जरा सोच फिर मानव,
ढूंढो कहाँ उजाला है?

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

Saturday, May 11, 2019

ताटंक छन्द,"महाराजअग्रसेन गौरव गाथा"


जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं ,
गौरवशाली अग्रवाल नर,
नारी खुद को पाते हैं।

माता लक्ष्मी ने खुश होकर
वचन उन्हें यह दे डाला
तेरे कुल में वास करुँगी
धन की देती हूँ माला।
कृत्य अनेकों हित समाज के,
वंशज भी करवाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

नागराज की सुता माधवी,
पूर्वांचल बाजे बाजा,
गोत्र अठारह पुत्र नाम पर,
कुल विस्तार किये राजा।
व्यापारी भारत के हर
कोने में शाख जमाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

कर विरोध पशु बलि का नृप ने,
वैश्य वर्ण स्वीकारा था,
शाकाहारी भोजन हरदम,
अग्रवाल का नारा था,
जिनकी रग-रग में है पूजा,
वैश्य धर्म वो पाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

दया, प्रेम, व्यवहार, अहिंसा,
इन गहनों को धारे थे
एक ईंट और एक रुपया,
वासी दानी सारे थे।
बाग-बगीचे कुआ बावड़ी,
आश्रम ये बनवाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
 नारी खुद को पाते हैं।

पुण्य किया तब ऐसे कुल में,
जन्म हमारा हो पाया
अग्रवाल यश की गाथा से,
जग में उजियारा छाया
कितने युग के बाद धरा पर,
बन अवतारी आते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

हम सबका दायित्व ये बनता,
धूमिल छवि इसकी ना हो,
राह मोड़ लें अपनी उस पल,
उज्ज्वल छवि जिसकी ना हो।
आने वाली हर पीढी को,
सीख यही सिखलाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

स्वार्थ नीति के झाँसे में पड़,
कुछ भटके अपने भाई,
सट्टेबाजी की बयार जब,
ओझल करने को आई।
प्रबल भुजाएं बनकर दुश्मन
से अवगत करवाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

माँस-मदीरे की लत ऐसी,
नाश ये कुल हो जायेगा
माता लक्ष्मी को भी कैसे,
ये निवास फिर भायेगा
अपने कुल की मर्यादा को,
सबको हम समझाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
 नारी खुद को पाते हैं।

नेक कर्म की राह पकड़कर,
 इस संस्कृति को जीना है,
भटकाते जो, साथ छोड़ दो,
'शुचि' गौरव रस पीना है।
इस समाज की गौरव गाथा
भारतवासी गाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

ताटंक छन्द अर्द्धमात्रिक छन्द है. इस छन्द में चार पद होते हैं, जिनमें प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं.

विधान-प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी यति 16-14 निर्धारित होती है. अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है. दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है.
प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है.
किन्तु, पदान्त तीन गुरुओं से होना अनिवार्य है. इसका अर्थ यह हुआ कि सम चरण का अन्त तीन गुरु से ही होना चाहिये।

दोहा गीत,"सकारात्मक सोच"

लक्ष्मी आँगन में बसी, रहता संग कुबेर।
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।

जो चाहूँ वो ही मिले, मुट्ठी में तकदीर।
अटल इरादे राखिये, रखना है बस धीर।
जोश भरा आह्वान हो, गरजो बनकर शेर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।

आस्था धन बल बुद्धि हो, मांगे जीवन शेष।
चमके जग में ही सदा, मेरा भारत देश।
दुश्मन खुद हो जाएंगे, पल भर में सब ढेर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।

है जीवन आदर्श ये, सुन्दर है सब काम।
जग में ऊंचा हो रहा, देखो मेरा नाम।
आशा की मंजिल मिली, बढ़ते मेरे पैर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।

स्वस्थ निरोगी चाहिए, काया की पहचान।
लेखन, वाणी, प्रेम से, मिले सदा ही मान।
प्रबल सोच विस्तार से, सबके मन को फेर,
धरती की खुशियाँ सभी, लेंगी मुझको घेर।।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम


विधान-दोहा चार चरणों से युक्त एक अर्धसम मात्रिक छंद है जिसके पहले व तीसरे चरण में १३, १३ मात्राएँ तथा दूसरे व चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं, दोहे के सम चरणों का अंत गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों में जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है ! अर्थात दोहे के विषम चरणों के अंत में यगण(यमाता १२२) मगण (मातारा २२२) तगण (ताराज २२१) व जगण (जभान १२१) का प्रयोग वर्जित है जबकि वहाँ पर सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है

Friday, May 10, 2019

लावणी छंद,"निस्वार्थ गुलाब का प्यार"


काँटों से हूँ घिरा हुआ पर,
हरदम रहता मुस्काता।
सदा विखेरुँ अपनी खुशबू
गीत खुशी के मैं गाता।

कोमल तन मेरा अति सुंदर
मगर नहीं मैं हूँ डरता।
प्रेम डोर से खींचूँ सबको,
जीवन में खुशियाँ भरता।

बातचीत का  हुनर न जानूँ,
नहीं मुझे चलना आता।
नहीं ज्ञान मुझको पंडित सा,
नहीं ढोंग मुझको भाता।

मूक बधिर होकर भी मुझको,
प्रेम जताना है आता।
ढाई आखर प्रेम पढ़े वो,
सच्चा पंडित कहलाता।

दर्द मुझे भी होता है जब,
शाख तोड़ कोई आता।
बींध सुई से मेरी काया,
पैरों से रौंदा जाता।

आह न निकले  मुख से मेरे,
पाकर खुश कोई  होता।
जब तक जिंदा रहता तब तक
कंटक वन में मैं सोता।

अंग अंग है सदा समर्पित
रंग सुरंग सदा रहता।
सदा भलाई की इच्छा हो
बात सभी से हूँ कहता

हर उत्सव में शान बढ़ाऊँ,
चाहे मैं मुरझा जाता।
जन जन के मन में खुशियों की,
तान बजाकर मैं गाता ।

औरों के हित की बातें भी,
गर कोई समझा होता।
गैरों के मन के भीतर भी,
कभी झाँक मन ये रोता।

मन से मन जब मिलते हैं तो,
जीवन का सुख है मिलता।
लक्ष्य रखो हरदम ही ऊँचा,
फूलों सा जीवन खिलता।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम


विधान -१६+१४ मात्रा चरणांत गुरु २
--- दो दो पद सम तुकांत ,
--- चार चरणीय छंद
. --- मापनी रहित

त्रिभंगी छन्द,"जीवन सुख"

जीवन सुख कारी, या दुखकारी,
निर्भर हम पर, करता है।
हम आशावादी, सुख के आदी,
प्रेम प्यार दुख, हरता है।
जब सुख हम देंगे, खुद पा लेंगे,
यही रीत तो, चलती है।
सूरज जब आता, तम छिप जाता,
सुखद भोर तब, खिलती है।

सुंदर भावों का, उपकारों का,
प्यासा यह जग, सारा है।
सूखी धरती पर, मेघा आकर,
बरसाये जब, धारा है।
तब कण-कण खिलता,मधुरस मिलता,
गीत खुशी के, गाते हैं ।
जो औरों के हित, बढ़ते हैं नित,
स्वर्ग धरा पर, पाते हैं।

हम प्रण कर लेंगे, खुशियाँ देंगे,
क्रोध भाव को, छोडेंगे।
जो राह रोकदे, हमें टोक दे,
कदम तभी हम, मोड़ेंगे।
है मनन किया जो, अमल करो वो,
आगे बढ़ते, जाना है ।
'शुचि' जोश भरो अब,जागोगे कब,
 जीवन सुख तो, पाना है।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

 छंद त्रिभंगी की परिभाषा:
{चार चरण, मात्रा ३२, प्रत्येक में  १०,८,८,६ मात्राओं पर यति  तथा प्रथम व द्वितीय यति समतुकांत,  प्रथम दो चरणों व अंतिम दो चरणों के चरणान्त परस्पर समतुकांत तथा जगण वर्जित, आठ चौकल,  प्रत्येक चरण के अंत में गुरु}

वर्ण पिरामिड,"बेटी"

ये
बेटी
नाज है
आवाज है
अतुलनीय
अनिवर्चनीय
पवित्र नमाज है।
संस्कारों की छवि है।
ममतामयी है।
घर सजाती
अनुपम
अथाह
प्रेम
से।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

विधान-
वर्ण पिरामिड, आरोही-अवरोही यह हाइकू विधा की तरह विषम चरणों वाला एक वर्णिक छंद है । इस छंद में सात चरण है ।इसके प्रथम चरण में एक वर्ण ,दूसरे में दो वर्ण ,तीसरे में तीन…….क्रमशः सातवे में साथ वर्ण होते है । जबकि आधे वर्ण नही गिने जाते है । किन्ही दो पदों में तुकांत आने पर रचना सुंदर बन जाती हैं ।

इस विधा में कम शब्दों में ही पूरा भाव कहना होता है।अर्थात ‘गागर में सागर।

सार छंद,"अतिथि देव"

आज पधारे मेरे अँगना, अतिथि देव हैं प्यारे।
बीवी सँग दो बच्चे लाये,नखरे सबके न्यारे।।
दो कमरों के घर में अपने,देव टिकाये चारों।
अपने बीच लिटाया उनके,बच्चों को भी यारों।।

नये-नये पकवान बनाये,मेवा बरफी लायी।
खूब परोसा,अपने खातिर,बचा नहीं कुछ पायी।।
नींद चैन घर साज-सजावट,सब कुछ उन पर वारा।
फिर भी पति परमेश्वर मुझ पर,खूब चढ़ाते पारा।।

सैर-सपाटा चाट- पकौड़े, होटल घर बन जाता।
प्रेम पिटारा टूट गया था, क्रोध उमड़ कर आता।।
बढ़ती तारीखों की घण्टी, मुझे सुनायी देती।
अब जाएंगे यही स्वयं को, आश्वासन दे लेती।।

बीच मास में बटुआ मेरा, नजर सिकुड़ता आया।
देव नजर दानव से आये, मन मेरा घबराया।।
तन अरु धन से सेवा करती, कमी कहीं हो जाती।
व्यंग बाण की हँसी-ठिठोली, फिर भी मैं मुस्काती।।

 सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
18-4-2019

विधान ~
सम मात्रिक छन्द,28 मात्राएँ/चरण,16,12 पर यति,
अंत में वाचिक भार 22, कुल चार चरण,
[क्रमागत दो-दो चरण तुकांत ]

लावणी छन्द,"ये बेटियाँ"

लावणी छंद "बेटियाँ"

घर की रौनक होती बेटी, सर्व गुणों की खान यही।
बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।।

जब हँसती खुश होकर बेटी, आँगन महक उठे सारा।
मन मृदङ्ग सा बज उठता है, रस की बहती है धारा।।
त्योंहारों की चमक बेटियाँ, जग सागर वह मोती है।
प्रेम दया ममता का गहना,यही बेटियाँ होती है।।
महक गुलाबों सी बेटी है,कोयल की है तान यही।
बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।।

बसते हैं भगवान जहाँ खुद, उनके घर यह आती है।
पालन पोषण सर्वोत्तम वह, जिनके हाथों पाती है।।
पल में सारे दुख हर लेती ,बेटी जादू की पुड़िया।
दादा दादी के हिय को सुख ,देती हरदम ये गुड़िया।।
माँ शारद लक्ष्मी दुर्गा का ,होती है सम्मान यही।
बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।

मात पिता के दिल का टुकड़ा, धड़कन बेटी होती है।
रो पड़ता है दिल अपना जब ,दुख से बेटी रोती है।।
जाती है ससुराल एक दिन,दो-दो कुल महकानें को।
मीठी बोली से हिय बसकर, घर आँगन चहकाने को।।
बेटी की खुशियों का दामन, अपनी तो मुस्कान यही।
बेटी होती जान पिता की है माँ का अभिमान यही।

शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
विधान – 30 मात्रा, 16,14 पर यति l कुल चार चरण, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत l
विशेष – इसके चरणान्त में वर्णिक भार 222 या गागागा अनिवार्य होने पर ताटंक , 22 या गागा होने पर कुकुभ और कोई ऐसा प्रतिबन्ध न होने पर यह लावणी छंद कहलाता है l

लावणी छंद,"जब दीप जले दीवाली में"


मन के सब बैरी भावों की,
जड़ को प्रिये जला देना।
जब जगमग दीवालीआये,
पावन मन को कर लेना।

क्रोध जले आतिश बाजी में,
ईर्ष्या लड़ी जला देना।
दीप जले जब दीवाली में,
प्रेम पुष्प महका लेना।

अहम साथ में जलने दो प्रिय,
निर्मल भाव बना लेना।
झूम झूम तुम प्रेम परोसो,
खुशियों से घर भर देना।

अपना पल पल बीत रहा है ,
बात याद हरदम रखना।
पापों की गठरी धो लेना,
स्वाद प्रेम हरदम चखना।

कर लेना श्रृंगार त्याग का,
पूजन भाव यही जानो
फिर तुम जग में सबसे सुंदर,
बात प्रिये मेरी मानो।

महक उठे आँगन खुशियों से,
पर्व महान वही होता।
शुचिता सोच नहीं जिनकी है,
वो अपनी प्रतिभा खोता।

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

(*लावणी छंद विधान*
१६+१४ मात्रा चरणांत गुरु २
--- दो दो पद सम तुकांत ,
--- चार चरणीय छंद
. --- मापनी रहित)

Thursday, May 9, 2019

लावणी छंद,"जीवन साथी"

 
नीरस सूखे से जीवन में, प्रेम पुष्प महकाता है।
अंतर्मन के मंदिर में जो,मूरत बन बस जाता है।

एकाकीपन का भय हरले, खोले हृदय जकड़ता है।
सुख दुख का साथी वो प्यारा ,ऐसे हाथ पकड़ता है।

सोचो साथी बिन जीवन ये ,कैसे अपना कट पाता।
किस पर गुस्सा करते हम सब, प्यार उमड़ किस पर आता।

घर संसार बसा कर हमने ,सुख सारा ही पाया है।
रंग बिरंगे फूलों से इस, जीवन को महकाया है।

जीवन के तानों बानों को, मिलकर के सुलझाया है।
सात सुरों सा नगमा हमने, साथ-साथ ही गाया है।

होती है तकरार कभी तो, प्यार कभी फिर आता है।
बिन बोले इक दूजे से दिल ,चैन कहाँ फिर पाता है।

थोड़ी सी तकलीफ देखकर, घबराहट ले आतें हैं।
खाना पीना नींद समर्पित ,उस पर हम कर जाते हैं।

छोटी छोटी खुशियाँ अपनी,निश्चल प्रेम अपार रहे।
जीवन साथी ही जीवन में,जीने का आधार रहे।

कभी झगड़कर आँखों से जब,आँसू बहने लगते हैं।
करवट बदल बदल कर हम तब, सारी रातें जगते हैं।

ताकत, रुतबा मान सभी तो,साथ उसी के मिलता है।
गौरव और सम्मान सुरक्षा, मधुरिम जीवन खिलता है।

जीवन रूपी  हम गाड़ी के,पहिये एक समान बने।
साथ साथ जब दोनों चलते, मुमकिन सारे काम बने।

प्रेम त्याग विश्वास समर्पण, रिस्ते की गहराई है।
इक दूजे के बिना अधूरे ,बस इतनी सच्चाई है।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

*लावणी छंद विधान*
१६+१४ मात्रा चरणांत गुरु २
--- दो दो पद सम तुकांत ,
--- चार चरणीय छंद
. --- मापनी रहित

निधि छंद "सुख का सार"

उनका दे साथ।
जो लोग अनाथ।।
ले विपदा माथ।
थामो तुम हाथ।।

दुखियों के कष्ट।
कर दो तुम नष्ट।।
नित बोलो स्पष्ट।
मत होना भ्रष्ट।।

मन में लो धार।
अच्छा व्यवहार।।
मत मानो हार।
दुख कर स्वीकार।।

जग की ये रीत।
सुख में सब मीत।।
दुख से कर प्रीत।
लो जग को जीत।।

जीवन का भार।
चलना दिन चार।।
अटके मझधार।
कैसे हो पार।।

कलुष घटा घोर।
तम चारों ओर।।
दिखता नहिं छोर।
कब होगी भोर।।

आशा नहिं छोड़।
भाग न मुख मोड़।।
साधन सब जोड़।
निकलेगा तोड़।।

सच्ची पहचान।
बन जा इंसान।।
जग से पा मान।
ये सुख की खान।।
=============
निधि छंद विधान:-

यह नौ मात्रिक चार चरणों का छंद है। इसका चरणान्त ताल यानी गुरु लघु से होना आवश्यक है। बची हुई 6 मात्राएँ छक्कल होती है। तुकांतता दो दो चरण या चारों चरणों में समान रखी जाती है।
*****************
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-07-16 

बरवै छंद "हवाई यात्रा के दौरान"

दूर गगन से देखा,
मैंने आज,
सभी सितारे नीचे,
गाये साज,
स्वर्ग धरा पर आया,
उजली रात,
रिमझिम सोना बरसे,
 ज्यूँ बरसात।

हुआ आसमाँ फीका,
शून्य अनेक,
टकरा कर के जाता,
घन प्रत्येक,
चिंतन चित्र बनाये,
पल का साथ,
टिमटिम तारा आया,
है कब हाथ।

हरी- हरी सी गलियाँ,
छोटे खेत,
भवन खिलौने दिखते,
उजली रेत,
नन्हीं-नन्हीं सड़कें,
छोटे लोग,
बना हुआ अद्भुत है,
यह संजोग।

 मन धरती ने मेरा,
 मोहा आज,
आसमान के सारे,
खोले राज,
चकाचौन्ध है झूठी,
धरती श्रेष्ठ,
देवों ने भी पाया,
इसको ज्येष्ठ।

डॉ. सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
**********
विधान-
बरवै अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 12-12 मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में 7-7 मात्राएँ हाती हैं। सम चरणों के अन्त में 21 होता है।

कनक मंजरी छन्द "कृष्ण बाललीला"

लिपट गये हरि आँचल से अरु, मात यशोमति लाड करे,
गिरिधर लाल लगे अति चंचल, ओढनिया निज आड़ धरे।
निरखत नागर का मुखमण्डल, जाग उठी ममता मन की,
हरख करे सुत अंक लगाकर, भूल गयी सुध ही तन की।

कलरव सी ध्वनि गूँज रही हिय, दूध भरी नदिया उमड़ी,
मधुकर दंत भये सुखकारक, मन्द हवा सुख की घुमड़ी।
उछल रहे यदुनंदन खेलत, खोलत मीचत आँखनियाँ,
हरकत देख रही सुत की वह, खींच रहे जब पैजनियाँ।

जब मुख से हरि दूध गिराकर, खेल रहे बल खाय रहे,
खिलखिल जोर हँसे फिर मोहन, मात -पिता मन भाय रहे।
अनुपम बालक ये अवतारिक, नैन कहे यह बात खरी,
नटवर नागरिया अति सुन्दर, श्यामल सूरत प्रेम भरी।

सखियन नंदित आज भयी सब, चाह रही मुख देखन को,
छुपकर ओट खड़ी निरखे सब, मोहक श्यामल से तन को।
करवट ले मुरलीधर सोवत, मात निहारत खोय रही,
जग 'शुचि' पावन सा लगता अब, द्वार खड़ी कर जोय रही।

डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
Suchisandeep2010@gmail.com

(4लघु+6भगण(211)+1गुरु]=23 वर्ण)
(1111+211+211+211+211+211+211+2)
13,10 पर यति





मदिरा सवैया 'शारदे वंदना'

मदिरा सवैया  'शारदे वंदना'


शारद को कवि भारत के,
     नित शीश झुका कर ध्यावत हैं।
ज्ञान भरो उर भीतर माँ,
    विनती कर लोग मनावत हैं।
हस्त सदा सर पे रखना,
    कवि  गीत सदा लिख गावत हैं।
मात तुम्हें कवि वृंद रिझा,
    सुख सत्य सनातन पावत हैं।


मात सदा चित माँहि बसा,
      मन मूरत शारद की धरलें।
लोभ हरें छल दूर करें,
     बस सत्य लिखें मन में करलें।
राह दिखा कर नेक सदा,
    निज जीवन में खुशियाँ भर लें।
सत्य सनातन धर्म यही,
    दुख दोष सभी जग के हर लें।

जोड़ रहे कर शारद माँ,
     तुम ज्ञान अपार बहाकर दो,
उच्च रहे कवि धाम सदा,
     मन की जड़ता सब माँ हर दो।
छन्द लिखें कविता लिखलें,
    गुण लेखन का सबमें भर दो।
भाव दिए तुमने हमको,
   शुचि लेखन शक्ति हमें वर दो।


शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम
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