Friday, July 26, 2019

बाल-सुबोध, "बादल जैसे दादा-दादी" (बाल-कविता)

            कुकुभ छंद
 "बादल दादा-दादी जैसे" (बाल-कविता)
               

श्वेत, सुनहरे, काले बादल, आसमान पर उड़ते हैं।
धवल केश दादा-दादी से, मुझे दिखाई पड़ते हैं।।
मन करता बादल मुट्ठी में, भरकर अपने सहलाऊँ।
रमी हुई ज्यूँ मैं दादी के , केशों का सुख पा जाऊँ।।

रिमझिम बरसा जब करते घन, नभ पर नाच रहे मानो।
दादी मेरी पूजा करके, जल छिड़काती यूँ जानो।।
काली-पीली आँधी आती, झर-झर बादल रोते हैं।
गुस्से में जब होती दादी, बिल्कुल वैसे होते हैं।।

बड़े जोर से उमड़ घुमड़ जब, बादल गड़गड़ करते हैं।
दादी पर दादाजी मेरे, ऐसे बड़बड़ करते हैं।।
डरा डरा कर  बिजली जैसे, चमके और कड़कती है।
वैसे ही दादी तब मेरी, सुध बुध खोय भड़कती है।।

चम चम करते चाँदी से घन, कभी हिलोरे लेते हैं।
मैं दौडूं तो साथ हमेशा, बादल मेरा देते हैं।
आसमान में विचरण करना, ज्यूँ बादल को आता है।
दादा-दादी के साये में, रहना मुझको भाता है।।

शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
Suchisandeep2010@gmail.com

कुकुभ छंद "बादल दादा-दादी जैसे "

              कुकुभ छंद
 "बादल दादा-दादी जैसे" (बाल-कविता)
               

श्वेत, सुनहरे, काले बादल, आसमान पर उड़ते हैं।
धवल केश दादा-दादी से, मुझे दिखाई पड़ते हैं।।
मन करता बादल मुट्ठी में, भरकर अपने सहलाऊँ।
रमी हुई ज्यूँ मैं दादी के , केशों का सुख पा जाऊँ।।

रिमझिम बरसा जब करते घन, नभ पर नाच रहे मानो।
दादी मेरी पूजा करके, जल छिड़काती यूँ जानो।।
काली-पीली आँधी आती, झर-झर बादल रोते हैं।
गुस्से में जब होती दादी, बिल्कुल वैसे होते हैं।।

बड़े जोर से उमड़ घुमड़ जब, बादल गड़गड़ करते हैं।
दादी पर दादाजी मेरे, ऐसे बड़बड़ करते हैं।।
डरा डरा कर  बिजली जैसे, चमके और कड़कती है।
वैसे ही दादी तब मेरी, सुध बुध खोय भड़कती है।।

चम चम करते चाँदी से घन, कभी हिलोरे लेते हैं।
मैं दौडूं तो साथ हमेशा, बादल मेरा देते हैं।
आसमान में विचरण करना, ज्यूँ बादल को आता है।
दादा-दादी के साये में, रहना मुझको भाता है।।

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कुकुभ छंद विधान -

कुकुभ छंद सम-मात्रिक छंद है। इस चार पदों के छंद में प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक पद 16 और 14 मात्रा के दो चरणों में बंटा हुआ रहता है। विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है। दो-दो पद की तुकान्तता का नियम है।
16 मात्रिक वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक चरण की अंतिम 4  मात्रा सदैव 2 गुरु (SS) होती हैं तथा बची हुई 10 मात्राएँ   अठकल + द्विकल होती हैं। ।  अठकल में दो चौकल या त्रिकल + त्रिकल + द्विकल हो सकता है।
त्रिकल में 21, 12 या 111 तथा
द्विकल में 11 या 2 (दीर्घ) रखा जा सकता है।

चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे।

शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम    
Suchisandeep2010@gmail.com

हिमा दास,ब्रह्मपुत्र की बेटी हिमा


Wednesday, July 24, 2019

व्यक्ति विशेष रचनाएँ"महाराजअग्रसेन गौरव गाथा"

जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं ,
गौरवशाली अग्रवाल नर,
नारी खुद को पाते हैं।

माता लक्ष्मी ने खुश होकर
वचन उन्हें यह दे डाला
तेरे कुल में वास करुँगी
धन की देती हूँ माला।
कृत्य अनेकों हित समाज के,
वंशज भी करवाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

नागराज की सुता माधवी,
पूर्वांचल बाजे बाजा,
गोत्र अठारह पुत्र नाम पर,
कुल विस्तार किये राजा।
व्यापारी भारत के हर
कोने में शाख जमाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

कर विरोध पशु बलि का नृप ने, 
वैश्य वर्ण स्वीकारा था,
शाकाहारी भोजन हरदम,
अग्रवाल का नारा था,
जिनकी रग-रग में है पूजा,
वैश्य धर्म वो पाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

दया, प्रेम, व्यवहार, अहिंसा,
इन गहनों को धारे थे
एक ईंट और एक रुपया,
वासी दानी सारे थे।
बाग-बगीचे कुआ बावड़ी,
आश्रम ये बनवाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
 नारी खुद को पाते हैं।

पुण्य किया तब ऐसे कुल में,
जन्म हमारा हो पाया
अग्रवाल यश की गाथा से,
जग में उजियारा छाया
कितने युग के बाद धरा पर,
बन अवतारी आते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

हम सबका दायित्व ये बनता,
धूमिल छवि इसकी ना हो,
राह मोड़ लें अपनी उस पल,
उज्ज्वल छवि जिसकी ना हो।
आने वाली हर पीढी को,
सीख यही सिखलाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

स्वार्थ नीति के झाँसे में पड़,
कुछ भटके अपने भाई,
सट्टेबाजी की बयार जब,
ओझल करने को आई।
प्रबल भुजाएं बनकर दुश्मन
से अवगत करवाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

माँस-मदीरे की लत ऐसी,
नाश ये कुल हो जायेगा
माता लक्ष्मी को भी कैसे,
ये निवास फिर भायेगा
अपने कुल की मर्यादा को,
सबको हम समझाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
 नारी खुद को पाते हैं।

नेक कर्म की राह पकड़कर,
 इस संस्कृति को जीना है,
भटकाते जो, साथ छोड़ दो,
'शुचि' गौरव रस पीना है।
इस समाज की गौरव गाथा
भारतवासी गाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।

#स्वरचित #मौलिक
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

ताटंक छन्द अर्द्धमात्रिक छन्द है. इस छन्द में चार पद होते हैं, जिनमें प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं.

विधान-प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी यति 16-14 निर्धारित होती है. अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है. दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है.
प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है.
किन्तु, पदान्त तीन गुरुओं से होना अनिवार्य है. इसका अर्थ यह हुआ कि सम चरण का अन्त तीन गुरु से ही होना चाहिये।

हिमा दास,'लावणी छन्द'

हिमा दास,'लावणी छन्द'

स्वर्ण पदक की बौछारों से,भारत माता हर्षायी।
ब्रह्मपुत्र की बेटी हिमा,परचम लहराकर आयी।

निर्धन रंजित-जोमाली के,आँगन में जन्मी बेटी।
असम प्रान्त के धींग गाँव की,एक्सप्रेस हिमा बेटी।

धीर,वीर अरु दृढ़ संकल्पी,बनी प्रेरणा जन-जन की।
बेटी हो तो स्वर्ण परी सी,बात सभी के है मन की।

पाँच स्वर्ण पद लगातार ले,रचा नया इतिहास बड़ा।
उड़न परी का पलड़ा सब पर,कितना भारी आज पड़ा।

देती है संदेश लाडली,प्रतिभा से आगे आओ।
रोड़ा निर्धनता न गाँव है,लक्ष्य बनाकर डट जाओ।

कण-कण भारत की मिट्टी का,तुमसे आज विजेता है।
हाथ तिरंगा लेकर दौड़ो,देश बधाई देता है।


शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम
Suchisandeep2010@gmail.com

Sunday, July 21, 2019

काव्य-मंच

सुखद अनुभूति मत पूछो,बड़ा प्यारा नजारा है।
सभी दिग्गज कविगण है,हर एक श्रोता ही प्यारा है।
लगे यह मंच मन्दिर सा ,पुजारी बन के मैं आयी।
सरल भावों  की माला को, सजा कर सबपे वारा है।।

डॉ.सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

हिमालय

हिमालय कह रहा हमसे,बना प्रहरी खड़ा हूँ मैं
हर इक बाधा बहुत छोटी, इरादों से बड़ा हूँ मैं
अडिग आधार शीला पे बनाते नक्श राहों के
उन्ही के वास्ते हीरों की खानों से जड़ा हूँ मैं।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम


कृष्ण

कृष्ण मीत अरु प्रीत है,कृष्ण रात अरु भोर।
कृष्ण गीत संगीत है, इस जीवन का छोर।।
जिस मन मूरत कृष्ण की,वो ममता का धाम।
मानव का बिन प्रेम के,कहीं नहीं है ठोर।।

डॉ.सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

लापसी

सवा सेर तुम प्रेम लो, पांच किलो विश्वास।
भाव समर्पण डालिये, जो होता है खास।
राम नाम लपसी बना, जो खाते दिन रात
खुशियों का तांता लगे, साल, दिवस हर मास।


मुक्तक
पृथ्वी

जल फल नग पशु जीव कली खग,
पृथ्वी सबकी माता है।
बोझ अकेले सबका सहकर,
पालन करना भाता है।
मर्यादा की सीमा मानव,
प्रतिपल तुम तो लांघ  रहे।
अपना क्या अस्तित्व धरा बिन,
समझ नहीं क्यूँ आता है।



डॉ शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम


कविसम्मेलन

जहाँ उपवन वहीं फूलों का मुस्काता जहां होगा।
बरसती बूँद पानी की तो बादल भी वहाँ होगा।
अगर भावों की गंगा में नहाकर झूमना हो तो,
मजा कवियों की महफ़िल सा जगत में फिर कहाँ होगा।।

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

कल्पना चावला

कहे क्या कल्पना हमसे, सुनाएं आज हम सबको,
हमारे देश की बेटी, बड़ा है नाज हम सबको,
रहो धरती पे रखना ख्वाब ऊँचे आसमाँ से भी,
बड़ी ताकत है नारी में, करे आगाज हम सबको।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

मनिहारी

ओढ़ पीताम्बर चुनर कान्हा, मनिहारी का रूप धरे।
द्वार किशोरी के ले पहुँचे, चूड़ी का इक थाल भरे।
पकड़ कलाई राधा की प्रभु, भूल गये सुध ही अपनी।
कभी निरखते हाथ सलोने, कभी झूम कर नाच करे।।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
ओढ़ पीताम्बर चुनर कान्हा, मनिहारी का रूप धरे।
द्वार किशोरी के ले पहुँचे, चूड़ी का इक थाल भरे।
पकड़ कलाई राधा की प्रभु, भूल गये सुध ही अपनी।
कभी निरखते हाथ सलोने, कभी झूम कर नाच करे।।

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया

Sunday, July 14, 2019

गीत, विरह

(विधा-लावणी छन्द)

क्यूँ शब्दों के जादूगर से, दिल मेरा ही छला गया,
उमड़ घुमड़ बरसाया पानी, बादल था वो चला गया।

तड़प रही थी एक बूंद को, सागर चलकर आया था,
प्यासे मन से ये मत पूछो,कितना तुमको भाया था।
सीने में इक आग धधकती,वो मेरे क्यूँ जला गया।
उमड़ घुमड़ बरसाया पानी, बादल था वो चला गया।

तार जुड़े फिर टूट गये भी,गीत अधूरे मेरे हैं,
साँसों की सरगम में मेरी,सुर सारे ही तेरे हैं।
बिन रदीफ़ के भला काफ़िया,कैसे यूँ वो मिला गया।
उमड़ घुमड़ बरसाया पानी,बादल था वो चला गया।

अक्सर ऐसा होते देखा,जो जाते कब आते हैं,
इंतजार में दिन कट जाते,आँख बरसती रातें हैं।
कुछ तो मुझ में बात लगी थी,नैन मुझी से मिला गया,
उमड़ घुमड़ बरसाया पानी,बादल था वो चला गया।

#सर्वाधिकार सुरक्षित
#स्वरचित
सुचिता अग्रवाल'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

गीत, मनुहार

(समधी-समधन)

 "सकल सुखद संजोग से ब्याह मंड्यो है आज"।
 देव पधारो आँगन,सकल सुधारो काज"।।

करें मनुहार समधी की,
करें मनुहार समधन की।
बलैया ले रहे हम तो,
नए रिश्ते के हर जन की।।

बिछा पलकें रखें हैं हम,
पधारे आप आँगन में,
बिठा लेंगे दिलों में ही,
बड़ा सम्मान है मन में।
घटा निखरी,हवा महकी,
झनक कहती है ये घन की।
बलैया ले रहे हम तो, नए रिश्ते के हर जन की।
करें मनुहार समधी की,
करें मनुहार समधन की।

हमारा भाग्य है जो आप,
कुटिया में पधारे जी।
क्षमा करना हमारी भूल
अरु अपराध सारे जी।
हुई लाखों गुनी शोभा,
सुनो जी आज आँगन की
बलैया ले रहे हम तो,
नए रिश्ते की हर जन की।
करें मनुहार समधी की,
करें मनुहार समधन की।

हमारी लाडली को जो,
मिला सुंदर पिया है जी।
बड़ा प्यारा जंवाई आपने हमको दिया है जी।
करोड़ों में है समधी तो निराली बात समधन की।
बलैया ले रहे हम तो,
नए रिश्ते के हर जन की।
करें मनुहार समधी की,
करें मनुहार समधन की।

#सर्वाधिकार सुरक्षित
#स्वरचित
सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

गीत,चौराहा

       (विधा-लावणी छन्द)

पाया चौराहे पर उनको,कदम मुड़े वो जिधर गये,
कौन डगर से आये थे वो,ना जानूँ फिर किधर गये।

दिल की सुनकर साथ हो लिए,खाकर धोखा हम हारे,
सपनों की झूठी दुनिया के,उजड़ गए घर ही सारे।
नैना ढूंढे चीख रहा दिल,सूख मेरे अब अधर गये।
कौन डगर से आये थे वो,ना जानूँ फिर किधर गये।

अंजानी राहों से रस्ता, मंजिल का जो ढूँढा था,
इक रिश्ते के खातिर रिश्ता,कितनों से ही टूटा था।
भ्रम कितना ये पाल रखा था,दिन मेरे अब सुधर गये,
कौन डगर से आये थे वो,ना जानूँ फिर किधर गये।

दर्द हवा के झोंके से भी,दुखती आँखों को होता,
मत पूछो जो छला गया वो, जीवन में क्या-क्या खोता।
मतलब पूरा करने वाले,आज इधर कल उधर गये।
कौन डगर से आये थे वो,ना जानूँ फिर किधर गये।

#सर्वाधिकार सुरक्षित
#स्वरचित
सुचिता अग्रवाल'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

Thursday, July 11, 2019

शालिनी

(लघुकथा)

सामने रखी चौकी पर एक डंडे से जोर जोर से मारकर धाइ माँ ने उत्पल को बुलाने के लिए आवाजें की।
बाहर बरामदे में खटिया पर बैठे उत्पल ने जैसे ही अंदर से आई इन आवाजों को सुना वह अंदर की तरफ दौड़ कर गया।
"क्या हुआ? उत्पल ने झुंझलाते हुए धाइ से पूछा।
धाइ ने पहले पूजा की तरफ इशारा किया जो बेसुध पड़ी थी क्योंकि उसने अभी अभी प्रसव की असीम पीड़ा को झेला था।
"बच्चा क्या है? लड़का या लड़की?"
उत्पल ने धाइ की गोद में लपेटे हुए बच्चे को देखकर कहा।
धाइ ने बच्चे को उत्पल की गोद मे थमाया और बाहर निकल गयी।
"हे भगवान, ये क्या? अब मैं क्या करूँ?पहला बच्चा है, सब पूछेंगे क्या जवाब दूँगा? " अनंत सवालों से घिरा उत्पल माथा पकड़ कर बैठ गया।
अगले ही पल वह उठकर बाहर आया और धाइ माँ से रोकर प्रार्थना की कि बच्चा किन्नर है आप यह बात किसी को भी मत बताइयेगा, बस लड़की हुई है। यही बताना । आपका हम पर बहुत उपकार होगा।"
धाइ ने हाँ में अपनी गर्दन हिलादी, गूंगी थी बोल तो वो वैसे भी नहीं सकती थी, उत्पल की दयनीय दशा पर उसे तरस आ गई थी।
पूजा भी कुछ दिनों में सामान्य हो गयी। लड़की थी इसलिए भी घर के अंदर ही उसे रखा जाने लगा। बस थोड़ा आसान था यह राज छुपा कर रखना और दोनों मिलकर शालिनी की परवरिश करने लगे।
आखिर कब तक? एक न एक दिन इस राज को भी समाज के सामने आना ही था।
"स्कूल से अकेली आ रही शालिनी पर गाँव के उद्दंड, मनचले गिरोह की नजर बहुत बार पड़ चुकी थी।
हैवानियत की सीमा को लांघ कर दरिंदों ने शालिनी के राज को सरेआम कर दिया।
गाजे बाजे ढोल मजीरा के साथ किन्नर  समाज शालिनी को अपने साथ ले जाने के लिए चला तो आया लेकिन मानवता के अधिकार को तरसता यह उपेक्षित समाज,एक परिवार और समाज में मिली इज्जत की जिंदगी अपनी ही जाती की लड़की को जीते देखकर गर्व से  झूम उठा।
शालिनी के रूप में हक़ की जिंदगी को जीते देखकर किन्नर समुदाय फूला नहीं समा रहा था।
आत्मिक संतुष्ठता से अभिभूत होकर ढेर सारा आशीर्वाद देते हुए ढोल मजीरे की आवाजें दूर जाने लगी, पूजा ने राहत की साँस लेते हुए शालू को जोर से गले लगा लिया।

#सर्वाधिकार सुरक्षित
#स्वरचित
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

बुलबुल की मुस्कुराहट

 (लघुकथा)

प्रभा हमेशा की तरह आज भी अपनी छः साल की बिटिया बुलबुल को अपने साथ लिए मेरे घर पर काम करने आई। घर के कामों में हाथ बंटाने के लिए उससे ज्यादा नेक और ईमानदार बाई मिलना आसान नहीं। आज वह थोड़ी देर से आयी तो मैंने पूछा" क्या हुआ आज इतनी देर करदी ? "
" क्या बताऊँ भाभीजी, आज बुलबुल स्कूल जाने के लिए जिद्द करने लग गयी कि सब बच्चे स्कूल जाते है मुझे भी भेजो, तो वहीं पास के स्कूल में खबर करने चली गयी।"
मैंने भी उत्साहवर्धक भाव से पुछा अच्छा तो करा दिया तुमने दाखिला?
" नहीं भाभीजी , महीने का 300 रूपया खर्च है। और आप तो जानती ही है मैं 2000 रुपये कमाती हूँ और कोई कमाने वाला है नहीं। मैं कैसे करूँ कुछ समझ नहीं आता है।"
मैं बड़ी असमंजस की स्थिति में खड़ी उसकी बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी और सोच रही थी कि मेरी बिटिया तो अभी तीन साल की ही है फिर भी हम उसको शहर की सबसे बढ़िया स्कूल में देने के लिए कितने प्रयत्नशील है , और प्रभा दीदी बिचारी अपने और अपनी बिटिया के सपनों से कितने समझौते करती है। दुनिया में गरीब होना कितना दुखदायी है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मेरे समक्ष था। अक्सर ऐसी स्थिति का सामना दुर्भाग्यवश हम सबको करना पड़ ही जाता है, हमारा दिल बहुतों की ऐसी दयनीय अवस्था देखकर पसीज भी जाता है, एक बार तो कुछ रुपयों से मदद करदें लेकिन प्रतिमाह सहायता करना  मुमकिन भी नहीं हो पाता है आखिर हम भी जिम्मेदारियों से बंधे हुए है।
लेकिन आज मैं कोई ऐसा रास्ता निकालने की सोचने लगी कि ऐसा मैं क्या करूँ कि इसकी सहायता भी हो जाए और हमारे मासिक वेतन में कोई असर भी न आये।
दिल से यदि हम कुछ करने की ठानलें तो रास्ता तो मिलना ही है। मुझे याद आया कि मैं और मेरे पति प्रतिदिन 10 रुपये भगवान् के चरणों में चढ़ाते हैं, और एक गुल्लक में जमा करते रहते है और फिर किसी मंदिर में चढ़ा आते हैं।
अक्सर मैं यह सुनती रहती हूँ कि जरूरतमंद की सेवा से बढ़कर भगवान् की पूजा नहीं हो सकती है। "कर भला तो हो भला" इस कहावत पर मुझे पूरा विश्वास है।बस फिर क्या था मैंने मन बना लिया कि हमारी यह बचत आज से एक बिटिया की पढ़ाई के काम आएगी। भगवान् इस नेक काम से कभी नाराज नहीं हो सकते इसी विश्वास के साथ मैंने प्रभा दीदी से कहा " हम कल ही जाकर बुलबुल का दाखिला कराएंगे और इसका खर्च हमारे" ठाकुरजी गोपाल" देंगे। "
मेरी बात सुनकर प्रभा की आँखों से जो अश्रु धार निकली, उसके दिल से जो दुवाएं निकली उनका मोल पूजा से भी बढ़कर महसूस हो रहा था मुझे। पास खड़ी बुलबुल की आँखों में नए सपनों की उड़ान भरती वो मुस्कराहट मुझे मिले किसी प्रसाद से कम न लगी थी।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

मैं सक्षम हूँ


"विचार सक्षम है।इसके लिए तो भगवान को धन्यवाद देना ही चाहिए कि विचारों से अपाहिज नहीं बनाया। दिव्यांग होना किसी अभिशाप से कम नहीं होता, लेकिन अपनी दिव्यांगता का रोना   जीवन भर रोते रहने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है, विचार सर्वशक्तिमान है जिनकी बदौलत हम हर वह सफलता हासिल कर सकते हैं जिसका हम आह्वान करते हैं।
माना कि मैं संसार के इस शोर शराबे को नहीं सुन सकता,अपनी भावनाओं को बोलकर व्यक्त नहीं कर सकता लेकिन मैं अपनी सोच को वास्तविक उड़ान के माद्यम से व्यक्त तो ओरों से बेहतर कर सकता हूँ। "शारीरिक अपाहिजता से ज्यादा कष्टप्रद मानसिक अपाहिजता होती है।"
मेरी हर इच्छा एक आदेश है जिसका पालन करना ब्रह्मांड के लिए सर्वोपरि है। मैं खुश हूँ क्यूँ कि मेरा दृढ़ संकल्प प्रतिपल मुझे जीवन में हँसकर अग्रसर होने को प्रेरित करता है।
जिंदगी को मुश्किल और आसान बनाने की क्षमता भगवान ने दी है तो क्यूँ न उसे आसान बनाकर जियें, प्रेरणादायक बनें।
'नहीं' को अपने आस पास भी जगह न देकर 'है' में जीने वाले मानसिक सक्षम व्यक्ति ही वास्तव में   बिना रुकावट के आगे बढ़ते हैं।

मेरा लक्ष्य है कि मैं शारीरिक अपाहिजता को मानसिक पूर्णता से जीतूँ ताकि मेरे जैसे सभी लोगों को साफ सूथरी राह दिखा सकूँ।"

तेईस वर्षीय नोजवान सूरज जो कि कुछ दिनों पहले ही हमारे पड़ोस में रहने आया था। मुझे पता चला कि वो बोल और सुन नहीं सकते,मैं इंसानियत और सही पूछें तो भलाई करने के नेक इरादे से उनसे मिलने चली गयी।
उनका इंतजार ड्राइंग रूम में कर रही थी जहां एक खुली डायरी के उस पन्ने पर मेरी नजरें अनायास ही चली गयी जिस पर लिखे इन शब्दों ने मुझे सही मायने में सक्षम बनने की प्रेरणा दी।

#स्वरचित मौलिक
डॉ.सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
Suchisandeep2010@gmail.com

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