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Saturday, April 11, 2020
हास्य रचना,"जूते और छतरी की लड़ाई"
छतरी और जूते में एक दिन,
छिड़ गई जोर लड़ाई थी।
देख जूते को पांवों में
छतरी बड़ी इतराई थी।
बोली मटककर, ए जूते!
देख तेरी क्या औकात है?
पांवों में तू रहता है,
खाता सबसे मात है।
मेरी तकदीर का क्या कहना,
आदमी मुझे सर पर बैठाकर रखता है।
अपना सारा बोझ डालकर
मानव तुम्हे रगड़ता है।
और मेरे बोझ को अपने ही
हाथों में वो पकड़ता है।
जूता बोला, "सुन री पगली
इतना क्यूँ इतरती है?
अपने मुंह से मिंया मिठु
आखिर क्यूँ बन जाती है?
सुन कभी कभी और कहीं कहीं
तुम्हे साथ ले जाना पड़ता है।
पर मेरे बिना एक कदम भी
आदमी बाहर जाना नहीं चाहता है।
तू मजबूरी की साथिन
मैं दुख का साथी हूँ सबका
एक हाथ को रोक रखा
तुम काम सभी रुकवाती हो
दो पर दो को धारण कर
आदमी पांच की गति पा जाता है।
भार दूसरों पर गिराकर
जीना मुझे नहीं भाता है
जब तक अंतिम सांस रहे
तब तक साथ निभाना आता है।"
छतरी सुन कर गुमसुम हो गयी
बोली आंख तूने ही खोली है
आज से जूता मेरा भाई
और छतरी बहन मुँह बोली है।
जब जब साथ रहेंगे हम तुम
अपनी छाँव तुम्हे मैं दूँगी।
धूप में तुम अकड़ न जाओ
बारिश में कहीं गल न जाओ
मैं रक्षा कवच बन जाऊंगी।
सुचिसंदीप"शुचिता"अग्रवाल
तिनसुकिया,असम
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