Tuesday, June 25, 2019

#कहमुकरी

(१)
गरम नरम आभास सुहाये।
तन-मन उससे लिपटा जाये।
मिलता पाकर उसको सम्बल।
का सखि साजन!ना सखि कम्बल।

(२)
कभी प्रेम में पागल होते।
कभी विरह में व्याकुल होते।
झरझर बहते खोवे चैना,
ऐ सखि साजन! न सखि नैना।

(३)
रक्षा मेरी वो करता है।
सारी विपदाएं हरता है।
समझा ताज न समझा जूता
का सखि साजन!ना सखि कुत्ता।

(४)
कैसी विपदा घर पर आई।
उसके जाने पर मुरझायी।
लाख मनाया उसको रोकर।
का सखि साजन!ना सखि नोकर

(५)
अँग-अँग थिरकन लगता है
फूलों सा खिलता चेहरा है
वो मेरे गीतों का राजा
का सखि साजन! न सखि बाजा।

(६)
रह न सकूँ उसके बिन पल भर
चैन मिले हाथों में धरकर
मैं कश्ती मेरा वो साहिल
का सखि साजन! न मोबाइल।

(७)
चाहे दुख सहकर रहता है,
प्रेम की बात सदा कहता है।
पाकर उसको खिल उठता शबाब,
का सखि साजन!न सखि गुलाब।

(८)
उसको कोई देख न लेवे,
बुरी नजर भी लगा न देवे,
सबसे छुपा रखूँ मैं ऐसे,
ऐ सखि साजन! न सखि पैसे

(९)
इधर-उधर वो हाथ लगाये,
मेरे तन को छूता जाये,
हम दोनों की है ये मर्जी,
ऐ सखि साजन!न सखि दर्जी

(१०)
मीठे बोले बोल रसीले,
कानों में मिश्री सी घोले,
वो मेरा साथी इकलौता,
ऐ सखि साजन!न सखि तोता

(११)
उनसे ही मैं माँग सजाऊँ,
आँचल में भर कर सो जाऊँ,
हर रात वो मेरे साथ गुजारे
का सखि साजन!न सखि तारे।

(१२)
वो मेरा उपवन महकाये,
खुशियों की बगिया लहराये,
ना आये तो दूँ मैं गाली,
का सखि साजन!ना सखि माली।

डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

Friday, June 21, 2019

लघुकथा, "तुमसा क्रोध क्यूँ नहीं"

पिता तुल्य ब्रह्मपुत्र की विशाल भुजाओं तले शांति से जीवन यापन करते जुगोमाया चालीस की उम्र पार कर चुकी थी।
कभी कभी पिता के क्रोध को झेलने की आदत सी पड़ गयी थी। कुछ दिन जीवन असामान्य रहता, शिविरों में शरण लेते और फिर क्रोध शांत होते ही लौट आना, और लहरों पर हिचकोले लेना स्वाभाविक सा लगने लगा था।
माजुली के किनारे बना खेड़ का कच्चा घर अब दो कमरे का छोटा सा मकान बन चुका था। किनारे लगे आम के पेड़ की टहनियां छत पर छावनी करने के लिए पर्याप्त थी।
पति भूपेन यदाकदा 18 वर्षीय बेटे रूपकुंवर के भविष्य को लेकर चिंतित हो जाते थे ।
जुगो, क्यूँ न हम रूप को कहीं बाहर पढ़ने भेज देते हैं, सुरक्षित जिंदगी भी तो जरूरी है उसकी ।
क्या जाने , कब......
भूपेन के मुंह पर हाथ रखते हुए जुगोमाया ने हामी भर दी।
एक अप्रिय आशंका ने अपने पाँव जमा लिए थे।
 बारहवीं की परीक्षा के बाद रूपकुंवर को मुंबई भेजने के निर्णय से आत्मिक संतुष्टि सी हुई।
गाँव ने शहर की चकाचोंध भरी जिंदगी में खुद को डूब जाते हुए देखा।
रात का उजाला रूप को डसने लगा।
डिस्को, क्लब, शराब में वह थिरकने लगा।
 बार की मोना में सुख ढूंढने लगा।
"बेटा, कल रात अचानक ब्रह्मपुत्र में उफान आ गया। तहस नहस हो गया। घर में पानी भर गया। माजुली में जल स्तर बढ़ गया है अतः अभी शिविर में है। जान बच गई। तुमको बाहर भेजने के निर्णय से तेरी माँ खुश है"-भूपेन ने फोन पर कहा।
"हां बाबा, आप लोग ध्यान रखना अपना"-रूप ने कहा।
रूप ने अपने पी.जी.की  तरफ जाने को रिक्सा लिया।
झोंपड पट्टी के पास से गुजर ही रहा था कि-
"भडाम  भडाम"
चिथड़े उड़ गए। कोई इधर कोई उधर।
"बम विस्फोट हुआ था, रूप के रिक्से में आतंकवादियों ने बम फिटिंग कर रखा था"-
रूप के किसी दोस्त ने भूपेन को सूचना दी।
 "जुगोमाया को कैसे कहूँ कि प्राकृतिक आपदा पर अब मानवीय आपदा  हावी हो चुकी है।"
"ओह मेरे ब्रह्मपुत्र ,तुमसा शीतल क्रोध मानव के पास क्यूँ नहीं?"
भूपेन स्तब्ध हुआ शून्य को निहार रहा था।


#मौलिक स्वरचित
सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,असम

लघुकथा,'कीमत'


जैसे ही काँच के बर्तन के टूटने की आवाज आई, दादी चिल्लाई-"क्या तोड़ दिया? कर दिया न नुकसान। इस लड़की से एक भी काम ढंग से नहीं होता"
दूसरी ओर से माँ ने दौड़ते दौड़ते आवाज दी-" गुनगुन बेटा चोट तो नहीं लगी न, तुम ठीक तो हो?"
कुछ न बोली गुनगुन लेकिन माँ की बात दिल को छू गयी थी।
आज परीक्षा फल निकलने वाला है।  बहुत डर लग रहा था पता नहीं ऐसे नंबर देखकर घर पर सब क्या कहेंगे।
पापा ने नम्बर देखे और क्रोध से देखकर कहा-"पढ़ाई में ध्यान लगाओ, पैसे लगते हैं। कीमत समझो"
दादी बोली" सारे दिन बैडमिंटन खेलेगी तो पढ़ेगी कब,  एक ही काम होगा । लड़की हो लड़की की तरह रहो।"
दादाजी ने प्यार से गुनगुन के माथे को चूमा और कहा-"बिटिया का नार्थ ईस्ट बैडमिंटन टूर्नामेंट में चयन हुआ है इस खुशी में आज सबके लिए मिठाई लाया हूँ, यही हमारा नाम रोशन करेगी, बहुत होशियार बेटी है।"
आज भी वो कुछ न बोली पर दादाजी की बात दिल को छू गयी थी।
कभी दूसरों की बातों को सुनकर गुनगुन विचलित हो उठती तो माँ समझाती-"प्रत्येक परिस्थिति के दो पहलू होते हैं, हमेशा नकारात्मक को नकारो और सकारात्मक पहलू को देखो और खुश हो जाओ।
सकारात्मक सोच का दीपक जब जब जलता है अंतर्मन रोशन हो जाता है।
यही गुनगुन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि वह अब हवा से खुशबू को खींच लेती थी।
एकदिन अचानक माँ गिर गयी और हाथ टूट गया था। पूरा घर परेशान , कौन करेगा काम।
"माँ बिल्कुल भी आराम न करती थी। मेरे द्वारा सेवा भी हो जाएगी और इसी बहाने घर के सारे काम भी करना सीख लुंगी"। गुनगुन के विचारों में उत्साह था । सही दिशा थी इसीलिए सब कुछ बहुत आसानी से हो गया ।माँ बिल्कुल ठीक हो गई। दादी भी खुश की अब गुनगुन को घर के काम करने आ गए थे। लड़कियों को घर के काम जरूर आने चाहिए।
पापा के कहे दो शब्द ने कीमत समझा दी थी  रिश्तों की, कीमत समझा दी थी इस जिंदगी की जो सही विचारधारा से अनमोल हो सकती है और गलत सोच से रद्दी कबाड़, जिसकी जरूरत किसी को नहीं होती है।

#स्वरचित मौलिक
सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,असम

लघुकथा,"कीमत"

जैसे ही काँच के बर्तन के टूटने की आवाज आई, दादी चिल्लाई-"क्या तोड़ दिया? कर दिया न नुकसान। इस लड़की से एक भी काम ढंग से नहीं होता"
दूसरी ओर से माँ ने दौड़ते दौड़ते आवाज दी-" गुनगुन बेटा चोट तो नहीं लगी न, तुम ठीक तो हो?"
कुछ न बोली गुनगुन लेकिन माँ की बात दिल को छू गयी थी।
आज परीक्षा फल निकलने वाला है।  बहुत डर लग रहा था पता नहीं ऐसे नंबर देखकर घर पर सब क्या कहेंगे।
पापा ने नम्बर देखे और क्रोध से देखकर कहा-"पढ़ाई में ध्यान लगाओ, पैसे लगते हैं। कीमत समझो"
दादी बोली" सारे दिन बैडमिंटन खेलेगी तो पढ़ेगी कब,  एक ही काम होगा । लड़की हो लड़की की तरह रहो।"
दादाजी ने प्यार से गुनगुन के माथे को चूमा और कहा-"बिटिया का नार्थ ईस्ट बैडमिंटन टूर्नामेंट में चयन हुआ है इस खुशी में आज सबके लिए मिठाई लाया हूँ, यही हमारा नाम रोशन करेगी, बहुत होशियार बेटी है।"
आज भी वो कुछ न बोली पर दादाजी की बात दिल को छू गयी थी।
कभी दूसरों की बातों को सुनकर गुनगुन विचलित हो उठती तो माँ समझाती-"प्रत्येक परिस्थिति के दो पहलू होते हैं, हमेशा नकारात्मक को नकारो और सकारात्मक पहलू को देखो और खुश हो जाओ।
सकारात्मक सोच का दीपक जब जब जलता है अंतर्मन रोशन हो जाता है।
यही गुनगुन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि वह अब हवा से खुशबू को खींच लेती थी।
एकदिन अचानक माँ गिर गयी और हाथ टूट गया था। पूरा घर परेशान , कौन करेगा काम।
"माँ बिल्कुल भी आराम न करती थी। मेरे द्वारा सेवा भी हो जाएगी और इसी बहाने घर के सारे काम भी करना सीख लुंगी"। गुनगुन के विचारों में उत्साह था । सही दिशा थी इसीलिए सब कुछ बहुत आसानी से हो गया ।माँ बिल्कुल ठीक हो गई। दादी भी खुश की अब गुनगुन को घर के काम करने आ गए थे। लड़कियों को घर के काम जरूर आने चाहिए।
पापा के कहे दो शब्द ने कीमत समझा दी थी  रिश्तों की, कीमत समझा दी थी इस जिंदगी की जो सही विचारधारा से अनमोल हो सकती है और गलत सोच से रद्दी कबाड़, जिसकी जरूरत किसी को नहीं होती है।


सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,असम

Thursday, June 20, 2019

मुक्त कविता,'आजकल जरा आलसी होने लगी हूँ'

सब कहते हैं आजकल मैं जरा आलसी होने लगी हूँ,
सबसे पहले सोती हूँ, सबसे पहले उठने भी लगी हूँ।

धीरे धीरे दिनभर घर के काम नहीं होते हैं मुझसे,
सबके उठने से पहले अधिकतर काम करने लगी हूँ।

सजने सँवरने परिधानों और गहनों में नहीं उलझती,
बस दिखावे से दूर आराम की जिंदगी जीने लगी हूँ।

कहते हैं सब मैं जरा कम घुलती मिलती हूँ सबसे,
आजकल मन की बात अपने मन से करने लगी हूँ।

अत्यधिक संग्रह की रुचि अब मुझे विषकर लगती है, अपनी आवश्यकताओं को सीमित करने लगी हूँ।

बहरूपियों की बस्ती में आडंबरों की कोई कमी नहीं,
रिश्तों की गहराई जरा दिल से महसूस करने लगी हूँ।

बारिश की बूँदों को निहारना और ठंडी हवा का स्पर्श,
प्रकृति को आजकल घंटों बैठकर निहारने मैं लगी हूँ।

ख्वाबों की कश्ती इच्छाओं के जहाज अक्सर डूब जाते हैं,
इंतजार में नहीं, अब आज में मैं जिंदगी जीने लगी हूँ।

सुकूँ मिलता है अपनी भूलों को अकेले में स्वीकार कर,
कुछ कह देती हूँ और कुछ कागज पर लिखने लगी हूँ।


सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम



Tuesday, June 18, 2019

गीत,"बांसुरी की अभिलाषा"

                  'लावणी छन्द'

अधरों की प्यासी बाँसुरिया,दूर प्रिये दूरी करदो।
वल्लभ की मैं बनूँ वल्लभा,अभिलाषा पूरी करदो।

मैं वाद्यों की राजकुमारी,हे वृज-राजकुमार सुनो।
तुझ सँग नाम जुड़े मेरा ही,जनम-जनम का साथ चुनो।
मैं बंशी तू बंशीधर बन,जग ये सिंदूरी करदो।
अधरों की प्यासी बाँसुरिया,दूर प्रिये दूरी करदो।

नीरस प्राणहीन मत समझो,मंत्रमुग्ध मैं कर दूँगी।
एकाकीपन का भय तुमसे,साथ सदा रह हर लूँगी।
बनी कृष्ण के लिए बांसुरी,अनुनय मंजूरी कर दो।
अधरों की प्यासी बाँसुरिया,दूर प्रिये दूरी करदो।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम
17.6.2019

Friday, June 14, 2019

मुक्तक,कभी उड़ती हुई

कभी उड़ती हुई खुशियाँ कभी बहते से गम आये।
कभी अव्वल रहा कोई कभी बाजी ले हम आये।
रहूँ धरती पे लेकिन ख्वाब ऊँचे आसमां से है,
यही कोशिश कि आँखों में जरा आँसू ये कम आये।।

सुचिता अग्रवाल'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

मुक्तक, आगोश

तेरी आगोश में घण्टों बिताना वक्त भाता था,
मुहब्बत की वो रुत ऐसी, निखर बस प्यार जाता था।
कभी क्या लौट आ सकते, वो मीठे दिन सुखद शामें,
मुझे लैला समझता तू, नजर मजनू सा आता था।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

मुक्तक, मुहब्बत

मुहब्बत में करी हमने, जो बातें भी शिकायत भी,
कि करनी आज फिर तुमसे, वो बातें भी शिकायत भी।
चलो इक बार हम दोनों, वही प्रेमी बनें फिर से,
जहाँ बस प्यार में डूबी, हो बातें भी शिकायत भी।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

मुक्तक,सबरी

किसी दिन राम से सबरी, मिलेगी फिर से कलयुग में,
मिला विश्वास को सम्बल,बँधा बन्धन ये सतयुग में।
मेरे भगवान को आना पड़ेगा एक दिन दर पर,
बिछाकर नैन बैठी हूँ, मैं बन सबरी ही युग युग में।


सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

मुक्तक, रक्षक ही भक्षक

हृदय की चीख को अक्सर,जुबां पर है कहाँ लाती,
जो रक्षक है वही भक्षक,डरी सहमी न कह पाती।
संभल कर घर से जाती है,उड़ानें भर रही बेटी,
मगर घर के दरिंदों की,हवस अग्नि में जल जाती।।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

मुक्त कविता, 'एकता'

एकता विश्वास  है,
संगठन की साँस है,
एकता में ताकत है,
अजेय वो विरासत है।

एकता ही धर्म है,
आस्तिकों का मर्म है,
एकता वो ज्योति है,
जो आशा के बीज बोती है।

एकता से बूँद सागर बनती है,
एकता से चट्टान हिलती है,
एकता कमजोर की शक्ति है,
मानो तो बस यही भक्ति है।

एकता से प्रकृति व्याप्त है,
समझो यह गूढ़ पर्याप्त है,
एकता हवाओं की गति है,
रोशनी तारों की टिमटिमाती है।

एकता से सरगम बनती है,
गीतों का रूप रचती है,
एकता से पायल छनकती है,
फूलों की क्यारी खिलती है।

एकता ध्वनि तरंग है,
चित्रकला का रंग है,
एकता की बूँदें सागर है,
शब्दों का यह गागर है।

एकता विश्व शक्ति है,
ईश्वर के प्रति आसक्ति है,
एकता विद्या की शाला है,
जीवन की पाठशाला है।

एकता संसार के पहिए है,
सोना, चाँदी, रुपये है,
एकता विकास की मीनार है,
सपनों का यह संसार है।

एकता से दुनिया चलती है,
साथ से आगे बढ़ती है,
एकता में प्रेम समाया है,
इसलिए
जीवन हमने यह पाया है।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया(असम)

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