शुद्ध गीता छंद-
"गंगा घाट"
घाट गंगा का निहारूँ, देखकर मैं आर पार।
पुण्य सलिला, श्वेतवर्णा, जगमगाती स्वच्छ धार।।
चमचमाती रेणुका का, रूप सतरंगी पुनीत।
रत्न सारे ही जड़ित हों, हो रहा ऐसा प्रतीत।।
मार्ग में पाषाण गहरे, है पड़े देखे हजार।
लाख बाधाएँ हटाती, उफ न करती एक बार।।
लक्ष्य साधे बढ़ रही वो, हर चुनौती नित्य तोड़।
ले रही गन्तव्य अपना, पार कर रोड़े करोड़।।
वो न रुकती वो न थकती, बढ़ रही पथ चूम-चूम।
जल तरंगे एक ही धुन, गा रही है झूम-झूम।।
शब्द गहरे गंग ध्वनि के, सुन रही मैं बार-बार।
"बढ़ चलो अब बढ़ चलो तुम", कह रही अविराम धार।।
आ रहे हैं भक्त लेकर, आरती अरु पुष्प थाल।
पा रहे सानिध्य माँ का, हो रहे सारे निहाल।।
स्नान तन मन का निराला, है सँवरती कर्म रेख।
हो रहा पुलकित हृदय अति, भाव शुचिता देख-देख।।
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शुद्ध गीता छंद विधान-
शुद्ध गीता 27 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है। दो दो चरण या चारों चरण समतुकांत होते हैं।
इसका मात्रा विन्यास निम्न है-
2122 2122, 2122 2121 (14+13)
चूंकि यह मात्रिक छंद है अतः 2 को 11 में तोड़ा जा सकता है।
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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम
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