Monday, May 31, 2021

माधव मालती छन्द, 'नारी शौर्य गाथा'

 माधव मालती छन्द,'नारी शौर्य गाथा'


कष्ट सहकर नीर बनकर,आँख से वो बह रही थी।

क्षुब्ध मन से पीर मन की, मूक बन वो सह रही थी।

स्वावलम्बन आत्ममंथन,थे पुरुष कृत बेड़ियों में।

एक युग था नारियों की,बुद्धि समझी ऐड़ियों में।


आज नारी तोड़ सारे बन्धनों की हथकड़ी को,

बढ़ रही है,पढ़ रही है,लक्ष्य साधें हर घड़ी वो।

आज दृढ़ नैपुण्य से यह,कार्यक्षमता बढ़ रही है।

क्षेत्र सारे वो खँगारे, पर्वतों पर चढ़ रही है।


नभ उड़ानें विजय ठाने, देश हित में उड़ रही वो,

पूर्ण करती हर चुनौती हाथ ध्वज ले बढ़ रही वो।

संकटों में कंटकों से है उबरती आत्मबल से,

अब न अबला पूर्ण सबला विजय उसकी शौर्यबल से।


राष्ट्र सेवक मार्गदर्शक हौंसलों के पर लगाय,

अड़चनों से दुश्मनों के होश देती वो उड़ाय।

शान भी अभिमान भी वह देश का सम्मान नारी,

आज कहता विश्व सारा है गुणों की खान नारी।।

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माधव मालती छन्द विधान-

यह मापनी आधारित मात्रिक छन्द है।

इसकी मापनी निम्न है-

2122 2122 2122 2122

चूंकि यह मात्रिक छन्द है अतः गुरु वर्ण (2) को दो लघु (11) में तोड़ा जा सकता है।

इसके चार चरण होते हैं, जिनमें दो-दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिए।

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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Thursday, May 27, 2021

लावणी छन्द, ओळयूं

परणाई मां कुण कुणै में,

दीसै नाहीं  भायल्यां।

बालपणो हो जिण स्यूं म्हारो,

चेतै आवै बै गळयां।


बाबुल म्हानै लाड लडायो,

कोड याद काको सा रा,

सीख बसी मां हिव में थांरी,

खाट चिलम दादोसा रा।


आंगण री बा महक बुलावै,

हाथां रै माटी लिपटी।

खोखा सांगर ग्वांर बाजरो,

गाछां स्यूं रहती चिपटी।


पीळी रैतां रा बे धोरा,

मोर नाचता देखूं माँ।

तीजां रा झूला झूलण नै,

बाट जोवंता तरसूं माँ


घींदड़ घूमर कद रंमूला,

खिंपोली घुड़लो गास्या।

गणगौरां रा मेळा देखण,

मां आपां दोन्यूं जास्यां।


गाँव आपणो कद ना दीसै,

आंख्यां म्हांरी तरस रही।

रेत सुनैहरी उजळी किरण,

सोने बरगी सरस रही।


घाघरिया ओढणिया म्हांरा,

रंग पड़ग्या फीका  माई।

रोय रही थांरी चिड़कली,

बळै काळजो म्हारो माई।


बापूसा थे ठेठ सासरै,

लेवण म्हानै आवो सा।

ओळयूं मां थांरी आवै जी,

लाडल गळे लगावो सा।



डॉ. शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

लावणी छन्द,माता कौशल्या के उद्गार

राम लला बिन तेरे माँ को, लगता जग ये सूना है।

टीस हृदय में रह-रह उठती, तुम बिन स्वाद अनूना है।

सूख गया अँखियों का पानी,भूल गयी सुध ही अपनी।

एक काम अब राम नाम की, आठ पहर माला जपनी।।


कैसी होगी मेरी सीता, क्या उसने खाया होगा।राजकुमारी ने जंगल में, कितना ही दुख है भोगा।

लखन सलोना निर्मल मन का, याद बहुत ही आता है।

यादों का झोंका आ-आ कर, मुझे चिढ़ा कर जाता है।


मन्दिर की घण्टी भी धीमी, दीपक निर्बुझ लगता है।

आहट तेरी ही सुनने को, सारा आलम जगता है।।

फूल खिले ना बरसा पानी,हँसी ठिठोली चली गयी।

राम अयोध्या बाट जोहती,कब आयेगी भोर नयी।।


डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम


मोदीजी

 नये सोपान की सत्ता रखे आबाद भारत को,

नहीं है अब किसी में दम करे बर्बाद भारत को।


लगा ले जोर कितना ही दबा सकते नहीं सच को,

जलेगी होलिका फिर से मिला प्रह्लाद भारत को।


कभी गैरों के बंधन में,कभी अपनों के चंगुल में,

बड़ी शिद्दत से देखुँ अब,मेरे आज़ाद भारत को।


हमारे देश की मिट्टी,महकती जिनकी रग-रग में,

दिया धरती ने अपना लाडला औलाद भारत को।


किसी की बाजुओं में दम उठाकर आँख देखे तो,

धराशाही करे पल में मिला फौलाद भारत को।


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"


मुक्त कविता, दोस्त

 मन में खयाल आते ही जिनका,

होठों पर मुस्कान आ जाती है।

छोड़ गई जो उम्र हमें,

पल भर में फिर लौट आती है।

बचपन बिन सहारे उनके

दो कदम नहीं चल सकता ।

अटूट रिश्तों का सागर ये,

किसी मोड़ पर नहीं रुकता।

   दोस्त थे तो बचपन था......

   दोस्त है तो जवानी है......

   दोस्त रहेंगे तो.....बुढापा आ ही नहीं सकता।


डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"


ताटंक छन्द मुक्तक,पृथ्वी

जल फल नग पशु जीव कली खग,

पृथ्वी सबकी माता है।

बोझ अकेले सबका सहकर,

पालन करना भाता है।

मर्यादा की सीमा मानव,

प्रतिपल तुमने लाँघी है।

अपना क्या अस्तित्व धरा बिन,

समझ नहीं क्यूँ आता है।


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप

मुक्तक भक्ति, कब आओगे श्याम

 व्याकुल हों तरसे जिया,कब आओगे श्याम।

सुध-बुध खो मैं बावरी,ढूँढूँ आठों याम।

पलकें स्वागत में बिछी,पिया मिलन की आस,

आधा तुम बिन साँवरे, राधा का भी नाम।

डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

मुक्तक, कोरोना

 वक्त चला यह जायेगा, 

बस हिम्मत थोड़ी सी रखलो।

दौर है मुश्किल,साथ निभाना,

मन में प्रण इतना करलो।

कितने हमसे बिछड़ गये,

अब और बिछड़ नहीं पायें बस,

छोड़ो जाति,प्रान्त,भाषा को,

जन हित मुश्किल भी सहलो।

डॉ. शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"



दोहे,माँ जानकी

जनक सुता प्रिय जानकी,रामचन्द्र भरतार।

सब कष्टों से है भरा,इनका जीवनसार।।


कष्टों का पर्याय ही,नारी जीवन मान।

क्या निर्धन क्या धनवती,सब खोती अभिमान।।


दया,धैर्य,संयम,क्षमा,नारी गहने चार।

जो धारण करती वही,भवसागर हो पार।।


दिव्य रूप की थी धनी,पतिव्रत धर्म महान।

मात जानकी का करे,सकल जगत गुणगान।।


मात जानकी ने दिया,सबको यह संदेश।

विचलित होना है नहीं,चाहे जो परिवेश।।



डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


सुर घनाक्षरी, नेताजी

 (विधान -8-8-8-6 वर्ण)

नेताजी ये बड़े-बड़े,

चुनावों में होते खड़े,

रखते छुपाके राज,

मायावी जाल है।


चेहरे पे चेहरा है,

काम सारा दोहरा है,

पीठ पीछे चोरी वाला,

काला ही माल है।


नशे में है सराबोर,

हिंसा पे भी चले जोर,

बात को दबाने हेतु,

खाखी दलाल है।


आँखे खोलो जगो देश,

 बदलो ये परिवेश,

  पाँच साल जनता के,

  नौचते ये बाल हैं ।

डॉ. शुचिता अग्रवाल,"शुचिसंदीप"

मोदीजी,लावणी छन्द

राजनीति की ए बी सी डी नहीं जानती मैं लेकिन,

मोदीजी में रब दिखता है,वो है तो है सब मुमकिन।

जब-जब दुष्ट बढ़े धरती पर,राम जन्म ले आते हैं।
सारे दानव उन्हें भगाने,मिलकर जोर लगाते हैं।
अमित शाह लक्ष्मण से भाई,भरत समान खड़े योगी,
हम हिन्दू वाकिफ है इससे,विजय राम की ही होगी।


डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"

कुकुभ छंद "शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय"

     कुकुभ छंद

"शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय"


जब-जब दुष्ट बढ़े धरती पर, सुख कोने में रोता है।

युग उन्नायक कलम हाथ में, लेकर पैदा होता है।।

सन् अट्ठारह सौ छिय्यत्तर, जन्म शरद ने था पाया।

मोतीलाल पिता थे उनके, भुवनमोहिनी ने जाया।।


जब पीड़ा वंचित समाज की, अपने सिर को धुनती थी।

मूक चीख तब नारी मन की, शरद लेखनी सुनती थी।।

जाति-पाँति का भेदभाव भी, विचलित उनको करता था।

सबसे ऊँची मानवता है, मन में भाव उभरता था।।


घोर विरोध समाज  किया जब, ग्रंथ 'चरित्र हीन' आया।

बने शिकार ब्रिटिश सत्ता के, जब 'पथेर दावी' छाया।।

ख्याति मिली रच 'निष्कृति', 'शुभदा', 'देवदास' अरु 'परिणीता'।

'चन्द्र नाथ', 'पल्ली समाज' रच, 'दत्ता' से जन-मन जीता।।


पर उपकार किया लेखन से, लेखन पर जीवन वारा।

पुनर्जागरण आंदोलन से, जन-मानस जीवन तारा।।

ऐसे नायक युगों-युगों तक, प्रेरित सबको करते हैं।

धन्य-धन्य ऐसे युग मानव, पर हित में जो मरते हैं।।

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कुकुभ छंद विधान -

कुकुभ छंद सम-मात्रिक छंद है। इस चार पदों के छंद में प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक पद 16 और 14 मात्रा के दो चरणों में बंटा हुआ रहता है। विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है। दो-दो पद की तुकान्तता का नियम है।

16 मात्रिक वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक चरण की अंतिम 4  मात्रा सदैव 2 गुरु (SS) होती हैं तथा बची हुई 10 मात्राएँ   अठकल + द्विकल होती हैं। ।  अठकल में दो चौकल या त्रिकल + त्रिकल + द्विकल हो सकता है।

त्रिकल में 21, 12 या 111 तथा

द्विकल में 11 या 2 (दीर्घ) रखा जा सकता है।

चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे।

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डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

हाइकु,कर्म

 5-7-5 वर्ण

कंश संहार

पड़ी कर्म की मार

हुआ लाचार।

डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप

हाइकु, दस्तूर

5-7-5 वर्ण

दुनिया क्रूर

काम क्रोध में चूर

यही दस्तूर।


डॉ. शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"

हाइकु, भाव

 विधान- (5-7-5 वर्ण)

पत्थर एक

भाव से माथा टेक

है भगवान।


मन की माला

है जग उजियाला

रहता फेर।


डॉ. शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप

तिनसुकिया,असम

Wednesday, May 26, 2021

कुण्डलिया, गीता

गीता प्राणी मात्र को,देती है संदेश,

द्वार खुले मन के सभी,जो सुनते उपदेश।

जो सुनते उपदेश,जीव सन्मार्ग समझते,

सांसारिक सुख भोग,सकल पापों से बचते।

समझा जिसने गूढ़,प्रेममय जीवन बिता,

सत चित अरु आनंद,मार्ग दिखलाती गीता।


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

#दोहे,कर्म

कर्म कंश संहार है,कर्म कृष्ण भगवान।

जैसी जिसकी जीवनी,वैसा ही सम्मान।।


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

Tuesday, May 25, 2021

कामरूप छन्द, 'माँ की रसोई'

 कामरूप/वैताल छन्द


माँ की रसोई,श्रेष्ठ होई,है न इसका तोड़,

जो भी पकाया,खूब खाया,रोज लगती होड़।

हँसकर बनाती,वो खिलाती,प्रेम से खुश होय,

था स्वाद मीठा,जो पराँठा, माँ खिलाती पोय।


खुशबू निराली,साग वाली,फैलती चहुँ ओर,

मैं पास आती,बैठ जाती,भूख लगती जोर।

छोंकन चिरौंजी,आम लौंजी,माँ बनाती स्वाद,

चाहे दही हो,छाछ ही हो,कुछ न था बेस्वाद।


मैं रूठ जाती,वो मनाती,भोग छप्पन्न लाय,

सीरा कचौरी या पकौड़ी, सोंठ वाली चाय।

चावल पकाई,खीर लाई,तृप्त मन हो जाय,

मुझको खिलाकर,बाँह भरकर,माँ रहे मुस्काय।


चुल्हा जलाती,फूँक छाती,नीर झरते नैन,

लेकिन न थकती,काम करती,और पाती चैन।

स्वादिष्ट खाना,वो जमाना,याद आता आज,

उस सी रसोई,है न कोई,माँ तुम्ही सरताज।

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कामरूप/वैताल छन्द विधान-

यह 26 मात्राओं के चार पदों का सम पद मात्रिक छंद है, दो-दो या चारों पदों पर तुकान्तता रहती है।पदों की यति 9-7-10 पर होती है,यानि प्रत्येक पद में तीन चरण होंगे,पहला चरण 9 मात्राओं का, दूसरा चरण 7 मात्राओं का तथा तीसरा चरण 10 मात्राओं का होगा।

पदांत या तीसरे या आखिरी चरण का अंत गुरु-लघु (2 1) से होता है।

पदों की मात्राओं के आंतरिक विन्यास के अनुसार 

पहले चरण का प्रारम्भ गुरु या लघु-लघु से होना चाहिए।

 दूसरे चरण का प्रारम्भ गुरु-लघु से हो यानि, दूसरे चरण का पहला शब्द या शब्दांश ऐसा त्रिकल बनावे जिसका पहला अक्षर दो मात्राओं का हो।

तीसरे चरण का प्रारम्भिक शब्द भी त्रिकल ही बनाना चाहिए लेकिन इस त्रिकल को लेकर कोई मात्रिक विधान नहीं है. अर्थात, प्रारम्भिक शब्द 21 या 12 हो सकते हैं।

22122,2122,2122 21 (अतिउत्तम)

आंतरिक यति भी समतुकांत हो तो छन्द अधिक मनोहारी बन सकता है लेकिन यह आवश्यक नहीं है।

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शुचिता अग्रवाल,शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम




Sunday, May 23, 2021

#ताँका_जापानीविधा, मन

 दुखता मन

है दुखती आँख सा,

हवा से पीड़ा

व्यंग वाणी बेधती

हृदय क्रीड़ा।


डॉ. शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

#ताँका_जापानीविधा, मानवता

 5-7-5-7-7


विधान-5-7-5-7-7


ईश्वर सत्ता

प्रत्यक्ष विद्यमान

मन टटोलें

होगा इसका भान

मानवता है नाम


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम


Saturday, May 22, 2021

सायली,राजनैतिक

कमलनाथ

चिन्ह हाथ

देश को गाली

पड़ेगी भारी

सर्वनाश।

डॉ. शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

#सायली, कोरोना

विधान-1-2-3-2-1 शब्द

(1)

कोरोना

चीनी वायरस

युद्ध स्तरीय चाल

विश्व सम्पूर्ण

बेहाल।


डॉ. शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम






#रसाल_छन्द, प्रकृति से खिलवाड़

 सुस्त गगनचर घोर,पेड़ नित काट रहें नर,

विस्मित खग घनघोर,नीड़ बिन हैं सब बेघर।

भूतल गरम अपार,लोह सम लाल हुआ अब,

चिंतित सकल सुजान,प्राकृतिक दोष बढ़े सब।


दूषित जग परिवेश, सृष्टि विषपान करे नित।

दुर्गत वन,सरि, सिंधु,कौन समझे इनका हित,

है क्षति प्रतिदिन आज,भूल करता सब मानव,

वैभव निज सुख स्वार्थ,हेतु बनता वह दानव।


होय विकट खिलवाड़,क्रूर नित स्वांग रचाकर।

केवल क्षणिक प्रमोद,दाँव चलते बस भू पर,

मानव कहर मचाय,छोड़ सत धर्म विरासत

लोलुप मन विकराल,दुष्ट गढ़ता नित आफत।


संकट अति विकराल,होय अब मानव शोषण,

भोग जगत परिणाम,रोग अरु घोर कुपोषण।

क्रूर प्रलय जग माय,प्राण बचने अब मुश्किल,

आज जगत असहाय,जीव दिखते सब धूमिल।


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

रसाल छन्द विधान-(वार्णिक छन्द)

211 111 121,211 121 1211

चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत


#सरसी_छन्द, वक्त सुधरता जाय

कुछ पहले से सुधर गया है,वक्त सुधरता जाय,

अडिग न हो विश्वास ध्यान रख,मत इतना घबराय।


धीरज धर हिम्मत रख ज्यादा,मत कर हाहाकार,

पतझड़ सहकर ही पाते वन,मधुमासी उपचार।

काल-चक्र चलता रहता है,नित आती नव भोर,

अँधियारे को जाना पड़ता,हों चाहे घनघोर।

हमें जीतना ही अब होगा,मत समझो असहाय,

अडिग न हो विश्वास ध्यान रख,मत इतना घबराय।


फिर विकास की होंगी बातें,गायेंगे नवगीत,

हाथ मिलाकर गले लगेंगे,सारे ही मनमीत।

महामारी की उम्र क्षणिक है,जीवन यह अनमोल,

रखो हौंसलों के दरवाजे,प्रतिपल प्यारे खोल।

जंग जीत यह हम जायेंगे, मंगल थाल सजाय,

अडिग न हो विश्वास ध्यान रख,मत इतना घबराय।


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

Friday, May 21, 2021

सरसी छंद, 'हे नाथ'

सरसी छंद

 'हे नाथ' 


स्वार्थहीन अनुराग सदा ही, देते हो भगवान।

निज सुख-सुविधा के सब साधन, दिया सदा ही मान।।

करुण कृपा बरसा कर मुझपर, पूरी करते चाह।

इस कठोर जीवन की तुमने, सरल बनायी राह।।


कभी कहाँ संतुष्ट हुई मैं, सदा देखती दोष।

सहज प्राप्त सब होता रहता, फिर भी उठता रोष।।

किया नहीं आभार व्यक्त भी, मैं निर्लज्ज कठोर।

मर्यादा की सीमा लाँघी, पाप किये अति घोर।।


अनदेखा दोषों को करके, देते हो उपहार।

काँटें पाकर भी ले आते, फूलों का नित हार।।

एक पुकार उठे जो मन से, दौड़ पड़े प्रभु आप।

पल में ही फिर सब हर लेते, जीवन के संताप।।


करो कृपा हे नाथ विनय मैं, करती बारम्बार।

श्रद्धा तुझमें बढ़ती जाये, तुम जीवन सुखसार।।

तेरा तुझको सबकुछ अर्पण, नाथ करो कल्याण।, हाथ पकड़ मुझको ले जाना, जब निकलेंगे प्राण।।

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सरसी छंद विधान-


सरसी छंद चार चरणों का सम पद मात्रिक छंद है। जिस में प्रति चरण 27 मात्रायें होती है। 16 और 11 मात्रा पर यति होती है अर्थात प्रथम यति खण्ड 16 मात्रा का तथा द्वितीय यति खण्ड 11 मात्रा का होता है। दो दो चरण समतुकान्त होते हैं। 

मात्रा बाँट इस तरह है-


16 मात्रिक पद ठीक चौपाई वाला चरण और 11 मात्रा वाला ठीक दोहा का सम-पद होगा। 

छंद के 11 मात्रिक खण्ड की मात्रा बाँट 8+3 (ताल यानी 21) होती है।

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शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Sunday, May 16, 2021

लावणी छंद " राधा-कृष्ण"

लावणी छंद 

"राधा-कृष्ण"


लता, फूल, रज के हर कण में, नभ से झाँक रहे घन में।

राधे-कृष्णा की छवि दिखती, वृन्दावन के निधिवन में।।

राधा-माधव युगल सलोने, निशदिन वहाँ विचरते हैं।

प्रेम सुधा बरसाने भू पर, लीलाएँ नित करते हैं।।


छन-छन पायल की ध्वनि गूँजे, मानो राधा चलती हों।

या बाँहों में प्रिय केशव के, युगल रूप में ढलती हों।।

बनी वल्लरी लिपटी राधा, कृष्ण वृक्ष का रूप धरे।

चाँद सितारे बनकर चादर, निज वल्लभ पर आड़ करे।।


इतराये तितली अलि गूँजे, फूलों का रसपान करे।

कुहक पपीहा बेसुध नाचे, कोयल सुर अति तीव्र भरे।।

कोमल पंखुड़ियाँ खिल उठती, महक उठा मधुवन सारा।

नभ से नव किसलय पर  गिरती, ओस बूँद की मृदु धारा।।


जग ज्वालाएं शांत सभी हों, दिव्य धाम वृन्दावन में।

परम प्रेम आनंद बरसता, कृष्ण प्रिया के आँगन में।।

दिव्य युगल के गीत जगत यह, अष्ट याम नित गाता है।

'शुचि' मन निर्मल है तो जग यह, कृष्णमयी बन जाता है।।


शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Wednesday, May 12, 2021

मुक्त कविता, पति से आग्रह

आप यूँ गुमसुम न बैठा करो,

घर पर उदासी छा जाती है।

चिंताओं को साथ न लाया करो,

वो क्या है न कि-

अपने घर की रौनक चली जाती है।


इस गमगीन से माहौल में,

अपनी बिटिया भी सहम सी जाती है।

खुशियों का पिटारा दिन भर जो भरा उसने,

वो क्या है न कि-

डरकर आपको दिखाना ही भूल जाती है।


आपके घर आने से पहले,

माँ-पिताजी भी अपना काम निपटा लेते हैं।

दिनचर्या आपको सुनाने को व्याकुल थे,

लेकिन वो क्या है न कि-

आपको उदास देख चुपचाप सो जाते है़ं।


आपके हँसते चेहरे को देख,

पूरे परिवार को खुशी मिल जाती है।

माना आपने हमारी सब जरूरतें पूरी की,

लेकिन वो क्या है न कि-

आपकी उदासी हमारी खुशियाँ छीन लेती है।


एक अज्ञानी, नासमझ गृहणी ही हूँ मैं,

माना आपके क्षेत्र का ज्ञान नहीं है मुझे।

यूँ तो जिंदगी कट ही रही है हरपल,

लेकिन वो क्या है न कि-

खुश होके जीओ तो बेहतर बन जाती है।

शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'



तिनसुकिया(असम)


हास्य,मोबाइल

क्या कहूँ मेरे हमसफ़र मोबाइल,

तुझमें हर रिश्ते सिमटने लगे।

बच्चे और पति भी अब तो,

तुझमें ही नजर आने लगे।


उठते ही सुबह सबसे पहले,

अपने हाथों में तुम्हें उठाती हूँ।

चार्जर रूपी कप से तुमको,

पहले चाय पिलाती हूँ।


बिगड़ जाये कभी सेहत तुम्हारी,

तो पागल मैं हो जाती हूँ।

सर्विस सेंटर नामक हॉस्पिटल में,

बड़े डॉक्टर को दिखलाती हूँ।


व्हाट्सऐप रूपी दिल की धड़कन,

कैमरा रूपी कोर्निया दिखाती हूँ।

अंग- अंग तेरा सहला -सहला कर,

डॉक्टर से पूरा चेकअप करवाती हूँ।


सोचो तुम्ही न होते तो क्या,

सबसे मैं यूँ जुड़ पाती?

चार दिवारी में रहकर भी क्या,

विश्व भ्रमण मैं कर पाती?


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम


हास्य,सेल्फी

आगे सेल्फी, पीछे सेल्फी, ऊपर -नीचे दाएँ-बाएँ सेल्फी।

क्या जवान क्या बच्चे भाई, दादी-दादा अब लेते सेल्फी।


स्टूडियो की छुट्टी हो गयी, मोबाइल कैमरा जबसे आया।

खींचने वाले की जरूरत नहीं, सेल्फ डिपेंड का जमाना आया।


बँदरिया सा मुह बनाकर कुछ पाउट पाउट कहती है।

जीभ निकाले फिर आँख चढ़ाकर सेल्फी वो ले लेती है।


बक बक बीवी की नहीं सुननी है, 

सेल्फी का मजा देखो।

पल में गुस्से को छोड़ है देती, बीवी की अब हँसी देखो।


दादाजी की अंतिम साँसे, पर सेल्फी तो एक बनती है।

सैड इमोजी साथ स्टेटस अपलोड फेसबुक पर होती है।


दुर्घटनास्थल पर भी अब तो, डाक्टर से पहले सेल्फी लो।

चँद मिनटों में कमैंट्स और लाइक कितने आये ये गिनलो।


खाना-पीना, मंजन -नहाना और क्या क्या बतलाऊँ।

ये सेल्फी का बुखार दिमाग से कैसे सबका उतरवाऊँ।


नदियों, छतों और ट्रेनों पर भी इतना क्यूँ हो झुक जाते।

सेल्फी लेते लेते अपनी तस्वीर को माला क्यूँ पहना जाते।।


शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया,असम


हास्य,सासु माँ

भरी जवानी मजे उड़ाये,

हर साल महीनों घूम के आये,

थककर यौवन जब सूख गया तो

बहू लाने के सपने सजाये।

रंगीन मिजाज की सासू माँ,  

बहू सीधी सी लाना  चाहे।


पति मेरा सासु के वश में,

श्रवण कुमार घोर कलयुग में,

बन्धन में कैसे रखते पत्नी को,

सीखे सोकर माँ की गोदी में,

भूल गयी सासू माँ मेरी सब,

स्वयं बहू कभी थी इस घर में।


सासु माँ ने कदर न जानी,

बहू को बेटी कभी न मानी,

हर काम में नुक्स निकाला करती,

अपने मन की करने की ठानी,

हर बात की होड़ बहू से करती,

बुढापे में वो करती नादानी।


कब तक घुट कर बहू भी रहती,

अपने दिल की कभी तो सुनती,

पंख फैलाकर उड़ने वो निकली,

सासू  की भौहें क्रोध में टनती,

तानाशाही सत्ता का अंत आ गया,

ये सोच सोच सासू माँ डरती।


पिस गया घुण सा पति बेचारा,

माँ, पत्नी की धौंस का मारा,

कैसे इनकी सुलह कराऊँ,

कुछ सोचके फिर बोला वो प्यारा।

'माँ 'तुम देवी हो इस घर की,

लक्ष्मी सा रूप 'प्रिये' तुम्हारा।


दोनों इक सिक्के के पहलू हो,

बिना एक तुम कुछ भी नहीं हो।

सास , सास तब ही बन पाती,

पराई बिटिया जब बहू बन आती।

इस रिश्ते का सम्मान करो सब,

फिर देखो बहू कैसे बेटी बन जाती।


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया,असम


हास्य,पागल प्रेमी नहीं पति होता है।

प्रेमी जब वो हुआ करता था

उसके लक्षण कुछ ऐसे थे।

ज्यूँ प्यासा पानी को तरसे

कुछ सुने हुए से किस्से थे।


घड़ी घड़ी में फोन मिलाता

हर शाम साथ में मुझे घुमाता।

आँखें रस्ता तकती रहती थी, 

बिन माँगे उपहार वो लाता।

प्रेमी सुखद हवा का झोंका था,

स्पर्श से मृदंग बज उठते थे,

अलग अलग हम रहकर भी तब

मानो एक शरीर के हिस्से थे।


एक हुये हम विवाह हुआ,

खुशियाँ भी करवट लेती है।

धीरे धीरे प्रेम की अंधी

पट्टी आँखों से उतरती है।

बात बात पर खींचा तानी

क्रोध के बादल उमड़े थे।

प्रेम सूखकर पिंजर हो गया,

दिल मे चुभते अब शीशे थे।


रात रात अब देर से आना,

कैसी होटल कैसा सिनेमा।

उपहारों की शक्ल को देखे

जैसे बीत गया हो जमाना।

शब्द, परी कली और जानेमन

"पागल औरत" में बदले थे

पागल प्रेमी नहीं पति होता है,

शादी करके ही हम समझे थे।


डॉ. शुचिता अग्रवाल,"शुचिसंदीप"

तिनसुकिया,असम


हास्य,दामादजी

दामादजी तोरण का प्रतिरूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।।


मेरी लाडो के वो सरताज,

करे उसके मन पर वो राज,

उठाये बिटिया के सब नाज,

दबाये पाँव करे सब काज,

दामादजी सपनों का स्वरूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


सासु माँ देख देख हर्षाये,

पुत्र रूप दामाद में पाये,

न्यौछावर दौलत सारी कर जाये,

निवाला उस घर कभी न खाये,

दामादजी खुशियों का प्रारूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


पहन के सूट- बूट ये आते,

खुशियाँ लाख साथ में लाते,

छोटी साली को पास बैठाते,

नाच नाच सब इन्हें रिझाते,

दामादजी राजा का है रूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


अतिथि ये मन को अति भाये,

ब्राह्मण देव भी इनमें समाये,

अकड़ कर पूजा ये करवाये,

टीका, गट, दक्षिणा पाये,

दामादजी न्यौच्छावर कभी कूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


थोड़ी देर ही बस ये सुहाये,

कहीं नाराज न ये हो जाये,

यही सोच के मन घबराये,

बिदा करके ही चैन सा आये,

दामादजी ठंडाई कभी सूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


दामादजी तोरण का प्रतिरूप

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।।


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया,असम


Wednesday, May 5, 2021

मदिरा सवैया 'विदाई सीख'

मदिरा सवैया "विदाई सीख"


दामन में खुशियाँ भर के,

पिय आँगन जाय रही बिटिया।


नीर भरी अँखियाँ फिर भी,

मन में हरषाय रही बिटिया।


मंगल चावल दो कुल में,

हँस के बरसाय रही बिटिया।


छोड़ चली घर बाबुल का,

पिय द्वार सजाय रही बिटिया।



मात-पिता सम हैं समधी,

ससुराल लगे घर ही अपना।


काज सभी सुखदायक हों,

महको गुल सी सच हो सपना।


भाव भरा मन स्वच्छ रहे,

प्रभु नाम सदा मन में जपना।


ज्योत सदा हिय प्रेम जले,

शुचि स्नेह भरे तप को तपना।

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मदिरा सवैया विधान -

यह 22 वर्ण प्रति चरण का एक सम वर्ण वृत्त है। अन्य सभी सवैया छंदों की तरह इसकी रचना भी चार चरण में होती है और सभी चारों चरण एक ही तुकांतता के होने आवश्यक हैं।

यह सवैया भगण (211) पर आश्रित है, जिसकी 7 आवृत्ति और अंत में गुरु प्रति चरण में रहता है। इसकी संरचना 211× 7 + 2  है।

(211 211 211 211 211 211 211 2 )

सवैया छंद यति बंधनों में बंधे हुये नहीं होते हैं परंतु कोई चाहे तो लय की सुगमता के लिए इसके चरण में 10 -12 या 12 - 10 वर्ण के 2 यति खंड रख सकता है ।चूंकि यह एक वर्णिक छंद है अतः इसमें गुरु के स्थान पर दो लघु वर्ण का प्रयोग करना अमान्य है।

◆◆◆◆◆◆◆

शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया,असम


#गीतिका,सुहानी भोर

बह्र-122,21


सुहानी भोर,

छटा चितचोर।


खुला आकाश,

हवा पुरजोर।


विहग मदमस्त,

मचाये शोर।


बुझे पशु प्यास,

नदी का छोर।


कुहक कर दूर,

थिरकता मोर।


चले मनमीत,

भ्रमण की ओर।


प्रभो के हाथ,

जगत की डोर।


#शुचिताअग्रवाल #शुचिसंदीप

#तिनसुकिया

Sunday, May 2, 2021

विष्णुपद छन्द, 'फूल मोगरे के'

विष्णुपद छन्द,'फूल मोगरे के'


आँगन में झर-झर गिरते थे,फूल मोगरे के,

याद बहुत आते हैं वो दिन,पागल भँवरे के।


सुन्दर तितली आँखमिचौली,भँवरे से करती,

व्याकुल थी पर आँगन में वो,आने से डरती।


करदे जो मदहोश सभी को,खुश्बू न्यारी सी,

प्रेम हिलौर हृदय में उठती,अद्भुत प्यारी सी।


पुष्प ओस की बूँदें पाकर,झूम-झूम जाता,

अल्हड़ गौरी की बैणी पा,खुद पर इतराता।


खिले फूल सुरभित अति कोमल,धवल रूप धारे,

नई उमंगों में भर उठते,मुरझे मन सारे।


सुखद समीर सुगन्ध बिखेरे,खुशियाँ भर लाती,

'शुचि' मनमंदिर प्रेम तरंगें,प्रणय गीत गाती।

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विष्णु पद छन्द विधान-

विष्णु पद छन्द सम मात्रिक छन्द है। यह  26 मात्राओं का छन्द है जिसमें 16,10 मात्राओं पर यति आवश्यक है।, अंत में वाचिक भार 2 यानि गुरु का होना अनिवार्य है।कुल चार चरण होते हैं क्रमागत दो-दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिये।

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शुचिताअग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया,असम


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