परणाई मां कुण कुणै में,
दीसै नाहीं भायल्यां।
बालपणो हो जिण स्यूं म्हारो,
चेतै आवै बै गळयां।
बाबुल म्हानै लाड लडायो,
कोड याद काको सा रा,
सीख बसी मां हिव में थांरी,
खाट चिलम दादोसा रा।
आंगण री बा महक बुलावै,
हाथां रै माटी लिपटी।
खोखा सांगर ग्वांर बाजरो,
गाछां स्यूं रहती चिपटी।
पीळी रैतां रा बे धोरा,
मोर नाचता देखूं माँ।
तीजां रा झूला झूलण नै,
बाट जोवंता तरसूं माँ
घींदड़ घूमर कद रंमूला,
खिंपोली घुड़लो गास्या।
गणगौरां रा मेळा देखण,
मां आपां दोन्यूं जास्यां।
गाँव आपणो कद ना दीसै,
आंख्यां म्हांरी तरस रही।
रेत सुनैहरी उजळी किरण,
सोने बरगी सरस रही।
घाघरिया ओढणिया म्हांरा,
रंग पड़ग्या फीका माई।
रोय रही थांरी चिड़कली,
बळै काळजो म्हारो माई।
बापूसा थे ठेठ सासरै,
लेवण म्हानै आवो सा।
ओळयूं मां थांरी आवै जी,
लाडल गळे लगावो सा।
डॉ. शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
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