लावणी छंद
"राधा-कृष्ण"
लता, फूल, रज के हर कण में, नभ से झाँक रहे घन में।
राधे-कृष्णा की छवि दिखती, वृन्दावन के निधिवन में।।
राधा-माधव युगल सलोने, निशदिन वहाँ विचरते हैं।
प्रेम सुधा बरसाने भू पर, लीलाएँ नित करते हैं।।
छन-छन पायल की ध्वनि गूँजे, मानो राधा चलती हों।
या बाँहों में प्रिय केशव के, युगल रूप में ढलती हों।।
बनी वल्लरी लिपटी राधा, कृष्ण वृक्ष का रूप धरे।
चाँद सितारे बनकर चादर, निज वल्लभ पर आड़ करे।।
इतराये तितली अलि गूँजे, फूलों का रसपान करे।
कुहक पपीहा बेसुध नाचे, कोयल सुर अति तीव्र भरे।।
कोमल पंखुड़ियाँ खिल उठती, महक उठा मधुवन सारा।
नभ से नव किसलय पर गिरती, ओस बूँद की मृदु धारा।।
जग ज्वालाएं शांत सभी हों, दिव्य धाम वृन्दावन में।
परम प्रेम आनंद बरसता, कृष्ण प्रिया के आँगन में।।
दिव्य युगल के गीत जगत यह, अष्ट याम नित गाता है।
'शुचि' मन निर्मल है तो जग यह, कृष्णमयी बन जाता है।।
शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम
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