भरी जवानी मजे उड़ाये,
हर साल महीनों घूम के आये,
थककर यौवन जब सूख गया तो
बहू लाने के सपने सजाये।
रंगीन मिजाज की सासू माँ,
बहू सीधी सी लाना चाहे।
पति मेरा सासु के वश में,
श्रवण कुमार घोर कलयुग में,
बन्धन में कैसे रखते पत्नी को,
सीखे सोकर माँ की गोदी में,
भूल गयी सासू माँ मेरी सब,
स्वयं बहू कभी थी इस घर में।
सासु माँ ने कदर न जानी,
बहू को बेटी कभी न मानी,
हर काम में नुक्स निकाला करती,
अपने मन की करने की ठानी,
हर बात की होड़ बहू से करती,
बुढापे में वो करती नादानी।
कब तक घुट कर बहू भी रहती,
अपने दिल की कभी तो सुनती,
पंख फैलाकर उड़ने वो निकली,
सासू की भौहें क्रोध में टनती,
तानाशाही सत्ता का अंत आ गया,
ये सोच सोच सासू माँ डरती।
पिस गया घुण सा पति बेचारा,
माँ, पत्नी की धौंस का मारा,
कैसे इनकी सुलह कराऊँ,
कुछ सोचके फिर बोला वो प्यारा।
'माँ 'तुम देवी हो इस घर की,
लक्ष्मी सा रूप 'प्रिये' तुम्हारा।
दोनों इक सिक्के के पहलू हो,
बिना एक तुम कुछ भी नहीं हो।
सास , सास तब ही बन पाती,
पराई बिटिया जब बहू बन आती।
इस रिश्ते का सम्मान करो सब,
फिर देखो बहू कैसे बेटी बन जाती।
शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम
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