प्रेमी जब वो हुआ करता था
उसके लक्षण कुछ ऐसे थे।
ज्यूँ प्यासा पानी को तरसे
कुछ सुने हुए से किस्से थे।
घड़ी घड़ी में फोन मिलाता
हर शाम साथ में मुझे घुमाता।
आँखें रस्ता तकती रहती थी,
बिन माँगे उपहार वो लाता।
प्रेमी सुखद हवा का झोंका था,
स्पर्श से मृदंग बज उठते थे,
अलग अलग हम रहकर भी तब
मानो एक शरीर के हिस्से थे।
एक हुये हम विवाह हुआ,
खुशियाँ भी करवट लेती है।
धीरे धीरे प्रेम की अंधी
पट्टी आँखों से उतरती है।
बात बात पर खींचा तानी
क्रोध के बादल उमड़े थे।
प्रेम सूखकर पिंजर हो गया,
दिल मे चुभते अब शीशे थे।
रात रात अब देर से आना,
कैसी होटल कैसा सिनेमा।
उपहारों की शक्ल को देखे
जैसे बीत गया हो जमाना।
शब्द, परी कली और जानेमन
"पागल औरत" में बदले थे
पागल प्रेमी नहीं पति होता है,
शादी करके ही हम समझे थे।
डॉ. शुचिता अग्रवाल,"शुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम
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