Tuesday, November 12, 2019

ग़ज़ल,'जब तक जिओ'

          (बह्र~2122 2122 2122 212)

जब दुखी हों तब भी सबको गुनगुनाना चाहिए
झूम कर दिल के नगाड़े को बजाना चाहिए।

आँसुओं  में ही डुबो कर मारते क्यूँ ख़ुद को हो
जब तलक साँसें चले उड़ कर दिखाना चाहिए।

गर किसी से हो शिकायत मुआफ़ करना सीखलें
भूल कर सारे गिले, दिल में बिठाना चाहिए।

कौन लम्बी उम्र का करता तकाज़ा है यहाँ
ज़िन्दगी का बस मज़ा भरपूर आना चाहिए।

दोष दूजों में न देखें पहले ख़ुद को जांच लें
हो अगर ग़लती हमारी मान लेना चाहिए।

जानते हैं ज़िन्दगी धोका ही देगी जब हमें,
राख के इस ढेर से दिल क्यों लगाना चाहिए-


सुचिता अग्रवाल'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,असम

मुक्त कविता,"हुई फिर देश में हिंसा"


धधकती आग बरसी है सभी डरते नजर आये
हुई फिर देश में हिंसा लहू बहते नजर आये।

अहिंसा के पुजारी जो वही बेमौत मरते हैं
लगी ज्वाला दिलों में अब सभी कहते नजर आये।

इशारों पर भभक उठता शहर सारा वतन देखो
विषैले नाग सत्ता के हमें डसते नजर आये

खिलौने बन गए हैं हम चला व्यापार जोरों से
निलामी बढ़ रही शासक सभी बिकते नजर आये।

बुझी को फिर जलाते औरशोले भी है भड़काते
यही आतँक की शैली सभी रचते नजर आये।।

करे चित्कार मांगे न्याय जो निर्दोष थे बन्दे
बहे आँसू करे फरियाद वो डरते नजर आये।


लगा दो जोर सब अपना बुझादो आग के गोले
गिरो बन गाज दुश्मन पे सभी मरते नजर आये।


सुचिसंदीप, तिनसुकिया

मुक्त कविता,'माँ के उद्गार'


मिला मुझे जो सबसे प्यारा
वो रिश्ता अनमोल तुम्ही बेटी।
नहीं दुनिया में तुमसे बढ़कर
मुझको कोई प्यारा और बेटी।।

जब जब निराशा ने घेरा मुझको
तुम आशा की ज्योति बन जाती हो।
जब जब आँसू बहे हैं मेरे
खुशियों का खजाना बन जाती हो।
तुम राजदार और सलाहकार भी
तुम वफादार सखि हो बेटी
तुमसे जीवन यह जीवन मेरा
जीने की वजह तुम हो बेटी।

तुझमें अपना बचपन देखा
तेरे साथ हर लम्हा जीती हूँ।
तुझसे कहकर हर बात मैं दिल की
सकून बड़ा पा लेती हूँ।
माँ  कितनी खुशकिस्मत हूँ मैं
तुम्हे पाकर जाना यह बेटी
खुशियाँ तुम्हें जहाँ की दे दूँ
चाहत मेरे दिल की है बेटी।।

श्रृंगार किया जब जब तुमने
अपलक तुझे निहारा मैंने।
कहीं नजर न मेरी लग जाये
नजर ये सोच उतारी मैने।
तन सुन्दर मन उससे भी सुन्दर
गुणों की खान तुम हो बेटी
खुशियाँ जो तुमने दी मुझको
हो अनमोल खजाना वो बेटी।।

उपहार भला क्या दूँ तुमको
जो मेरा है सब तेरा है।
मिल जाये तुझे वो सब खुशियाँ
जिन पर अधिकार बस तेरा है।
जन्मोत्सव तेरा बस एक  बहाना
हर पल उत्सव तुम हो बेटी
है आँगन की रौनक बस तुमसे
मेरे आँचल की ममता तुम बेटी।।

सुचिसंदीप

मुक्त कविता,"सीमा पर सैनिक की दास्ताँ"


मुझे सबसे जो प्यारा है वतन भारत वो मेरा है।
मेरे सपनों में बसता है चमकता एक सितारा है।

कहे सैनिक ये सीमा का मुझे जांबाज बनना है,
वतन की गोद में खेला वतन महबूब मेरा है।।

उठाकर आँख जो देखे भड़कता दिल ये मेरा है,
मेरे महबूब की खातिर धड़कता दिल ये मेरा है,
डटा सीमा पे मैं कुर्बान इसकी शान की खातिर,
बने दुश्मन जो इसका है वही दुश्मन भी मेरा है।


कभी जब याद आता है शहर का घर जो मेरा है,
तभी खुश हो के मैं सोचूं वतन सारा ही मेरा है,
रहे नापाक क़दमों से सुरक्षित देश के वासी,
नहीं फिर आँच आएगी वचन पक्का ये मेरा है।।

दिलों में आपके रहलूं यही तो ख्वाब मेरा है,
अमर कुछ काम कर जाऊँ इरादा नेक मेरा है,
खिले इन फूल से बच्चों को ये सन्देश देना तुम,
वतन के प्राण तुम बनना वतन जो आज मेरा है।

        सुचिसंदीप, (शुचिता)अग्रवाल
तिनसुकिया(आसाम)

मुक्त कविता, " पत्नियों के आम सवाल"


मैंने पति को परमेश्वर समझा
उनकी नजर में दासी मैं क्यूँ?
होते हैं गर दो पहिये समान
फिर वो आगे मैं पीछे क्यूँ?
पुरुषत्व की भावना के अभिमानी
नारीत्व का क्यूँ सम्मान नहीं
वो धोंस दिखाते हैं प्रतिपल
है पत्नी इतनी प्रताड़ित क्यूँ?

जिम्मेदारियां मेरी भी कम नहीं
नहीं अहसास उन्हें है क्यूँ?
सर्वोपरी वो मेरी नजर में
तुच्छ मुझे समझते है क्यूँ?
खाना खाकर उठ जाते हैं
जूठे बर्तन तक वो उठाते नहीं
अवकाश मुझे एक दिन नहीं मिलता
उपेक्षित दृष्टि डालते है क्यूँ?

बातों बातों में मायका मेरा
उनकी आँखों में खटकता है क्यूँ?
डरते डरते गिड़गिड़ाते हुए
खर्च मुझे माँगना पड़ता है क्यूँ?
रहती हूँ पूर्ण समर्पित आजीवन
प्रेम को मेरे वो समझते नहीं
प्यार के दो बोल मैं चाहूँ
वो भी बोल नहीं सकते है क्यूँ?

       "सुचिसंदीप"

मुक्त कविता,'"क्रोध घातक आवृति"


बड़ी घातक बिमारी है चलो हम क्रोध को त्यागें,
बढे आकार इसका तो घटे सम्मान हया भागे,
नहीं पहचान रहती है सही हम या गलत बोले,
अड़े रहना ही आदत है बढे नफरत अधी जागे।

धरे संस्कार रह जाते जिसे हमने कमाया है,
गिरे नजरों तले सबके नहीं कुछ हाथ आया है।
बड़ी पीड़ा सताती है हमें जब होश है आता,
करें धिक्कार हाय क्यूँ हमें ये क्रोध आया है।

बढे दूरी दिलों की जब आवाजें तेज आती है,
रुको, सोचो, जरा बैठो दरारें क्यूँ ये आती है,
निकालो शब्द ऐसे ना किसी को जो करे घायल
सभी को प्यार से समझो समझ हर बात आती है।

नहीं वो फैसला अच्छा जिसे हम क्रोध में करते,
वही सीखें हमारे लाल जो व्यवहार हम करते,
करें निदान करें अभ्यास नहीं अब क्रोध करना है,
चलो संकल्प से अपने शुरू यह काम है करते।

नहीं मुश्किल यदि हम सोच को शुचिता बना लेवें,
मधुर व्यवहार से अपने सखा सबको बना लेवें,
नहीं तनकर झुका सकते किसी को याद ये रक्खो,
स्वयं झुककर स्वयं को ही बड़ा सबसे बना लेवें।

सुचिता अग्रवाल," सुचिसंदीप", तिनसुकिया

Saturday, November 9, 2019

राधेश्यामी छन्द,'जब-जब भक्तन से मिलने को'

(16 मात्राएं प्रति चरण)

जब-जब भक्तन से मिलने को,धरती पर अंबे आती है।
खिल जाते मुखड़े भक्तों के,ऐसी खुशियाँ माँ लाती है।

शैलसुता अरु ब्रह्माचारिणी,चन्द्रघण्टा कुष्मांडा हे माँ।
स्कंदरूपिणी कात्यायिनी,हे कालरात्रि स्वरूपा माँ।
हे महागौरी हे सिद्धिदात्री,तू स्वर्ग धरा पर लाती है।
जब-जब भक्तन से मिलने को,धरती पर अंबे आती है।

अँधियारा जग का मिट जाता,नवरातें रोशन होती है।
सब जागे दुर्लभ दर्शन को,मन में जलती एक ज्योति है।
माँ के भजनों में अमृत की,धारा सबको मिल जाती है।
जब-जब भक्तन से मिलने को,धरती पर अंबे आती है।

है आम्रपत्र की वन्दनवारें, हर गाँव नगर गलिहारे पर।
खुश होकर माता देख रही,जब झूमे दुनिया गरवे पर।
मंगलगीतों की धुन पर माँ, भक्तों को खूब नचाती है।
जब-जब भक्तन से मिलने को,धरती पर अंबे आती है।

#स्वरचित#मौलिक
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
Suchisandeep2010@gmail.com

गज़ल,'शौहरत ढूंढना सीखो'

(बहर1222*4)

खुली पलकों में सपनों को सजा कर देखना सीखो,
हकीकत बन गए सपने यही बस सोचना सीखो।

बनाना दायरा अपना हमारे हाथ में होता,
जहन में ख्वाहिशों की लौ जलाकर जागना सीखो।

किसी बंजर पड़ी भू पर फसल क्या खाक आएगी,
तमन्ना के धरातल पर सदा हल जोतना सीखो।

मुकद्दर के भरोसे जिंदगी अक्सर गँवा लेते,
सिकंदर हम जहाँ के हैं यही बस मानना सीखो।

पनपने दो न गम भय को खुशी में आस्था रखना,
सदा चाहत का संदेशा जहाँ में भेजना सीखो।

हुआ हर शख्स जो काबिल विचारों की बदौलत ही,
अमन के ही चिरागों से दीवाली पूजना सीखो।

कभी गुस्ताखियों में तो कभी अपनी ही मेहनत में,
मुकामों के हो मनसूबे कि शौहरत ढूंढना सीखो।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप

गज़ल,' लिखना नहीं है आता

    (बहर- 221 2122 221 2122)
       
बातें कई है दिल में लिखना नहीं है आता
शब्दों से जो परे है कहना नहीं है आता।

हर गैर की मुसीबत अपनी सी लगती तुमको
अपना खयाल कुछ भी रखना नहीं है आता।

हर काम को किया है तुमने बड़ी वफ़ा से
थककर जरा सा आलस करना नहीं है आता।

अपनों से ज्यादा हरदम औरों के हित की सोची
मन आसमाँ से ऊंचा झुकना नहीं है आता।

तुम सख्त देखने में भीतर तरल नरम हो
चलते हो रौब से जब डरना नहीं है आता।

फैशन की दौड़ में तुम पीछे जरा ही रहते
अंधी कतार में यूं लगना नहीं है आता।

भूखे को देखलो तो खुद का निवाला दे दो
तकलीफ दूसरों की सहना नहीं है आता।

मुझको गुमान इतना तुमसे बंधा है जीवन
तुमसे जुदा जरा सा रहना नहीं है आता।

कमियां सभी में रहती तुझमें भी इक कमी है
मेरी लिखी गजल को सुनना नहीं है आता।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

चामर छन्द,'विचार शक्ति'


जो सदा यही कहे कि हौसले बुलंद है,
है हजार राह सामने दिवार चंद है।
वो रहे सदा सुखी वही बने महान है,
सौ करोड़ लोग में दिखे विराट शान है।

मार्ग की मुसीबतें विचार से हटाइये,
कार्यभार को सदा उमंग से उठाइये।
जिंदगी मिली हमें इसे सुधार लीजिये,
आज से अभी सभी गुमान छोड़ दीजिये।

खो गई निशानियाँ जिये-मरे निराश से,
कौन पूछता कहाँ गया कबाड़ वास से।
नाम जो कमा गये सिखा गये सभी हमें,
आस छोड़ना नहीं न पाँव भी कभी थमें।

सोच लें कि वक्त आज आपको बुला रहा ।
ज्ञान की उदार सी बयार ने यही कहा  ।।
बात जो सही लगे उसे अवश्य मानिए।
गीत की यही पुकार है महत्व जानिए ।।



शिल्प~[रगण जगण रगण जगण रगण]
            212  121  212  121 212
         {(गुरुलघु ×7)+गुरु, 15 वर्ण प्रति
        चरण, 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत}

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

ताटंक छन्द,'इज्जत'


इज्जत देना जब सीखोगे, इज्जत खुद भी पाओगे,
नेक राह पर चलकर देखो, कितना सबको भाओगे।

शब्द बाँधते हर रिश्ते को, शब्द तोड़ते नातों को।
मधुर भाव जो मन में पनपे, बहरा समझे बातों को।

तनय सुता वनिता माता सब,भूखे प्रेम के होते हैं,
कड़वाहट से व्यथित होय ये, आँसू पीकर सोते हैं।

इज्जत की रोटी जो खाते, सीना ताने जीते हैं,
नींद चैन की उनको आती, अमृत सम जल पीते हैं।

नारी का गहना है इज्जत, भावों की वह माता है,
शब्द प्रेम के सुनकर उसका , हृदय पिघल ही जाता है।

अपनों की इज्जत सब करना, अपने अपने होते हैं,
अपनों को जो ठोकर मारें, अपनी इज्जत खोते हैं।

जो बोयेंगे वो पायेंगे, फिर कैसी नादानी है,
सबकी इज्जत करना हमको, बात यही समझानी है।

डॉ. सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

ताटंक छन्द,'भूख'


क्षुधा पेट की बीच सड़क पर।
दो नन्हों को लायी है।।
भीख माँगना सिखा रही जो।
वो तो माँ की जायी है।।
हाथ खिलौने जिसके सोहे।
देखो क्या वो लेता है।
कोई रोटी, कोई सिक्का,
कोई धक्का देता है।।

खड़ी गाड़ियों के पीछे ये।
भागे-भागे जाते हैं।
करे सफाई गाड़ी की झट।
गीत सुहाने गाते हैं।।
रोटी की आशा आँखों में।
रोकर बोझा ढोते हैं।
पानी पीकर, जूठा खाकर,
या भूखा ही सोते हैं।।

डॉ. सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

दोहे,बिहू/सक्रांति


पोंगल,खिचड़ी,लोहड़ी,बिहु बोहाग,संक्रांत।
दिनकर उत्तरायण चले,खुशियों की सौगात।।

प्राकृतिक सौंदर्य में,असम प्रान्त का नाम।
पर्व मुख्य है बिहु यहाँ,तिल,चावल का खान।।

तिल चावल अरु नारियल,गन्ना है भरपूर।
दाल कलाई साथ में,खाना भात जरूर।

पेठा चिवड़ा दही सभी,खाते घर के लोग।
भोगाली बिहु में बने,तरह-तरह के भोग।।

खेती की धरती सजे,*मेजी* जलती रात।
झूम-झूम सब नाचते,हँस कर करते बात।।

है मकर संक्रांति का,पर्व अनूठा नेक।
दिखती विविध अनेकता भारत फिर भी एक।


मेजी-आग
बोहाग या भोगाली -बिहु पर्व का नाम

डॉ.सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

Friday, November 8, 2019

मनहरण घनाक्षरी,'किसान'


त्राही त्राही मच रही
आग ये बरस रही
सूखे होंठ गिला तन
पानी तो पिलाइये।

गरमी बेहाल करे
कैसे कोई काम करे
मजदूर मर रहे
वेतन दिलाइये।

 हरियाली जल गई
भूखमरी बढ़ गयी
गाँव, गली, शहर को
पेड़ों से मिलाइये।

धरती को सींच रहे
कृषि हल खींच रहे
भूख से किसान मरे
न्याय तो दिलाइये।

डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

Thursday, November 7, 2019

दोहा छन्द,'विविध दोहे'


आँचल प्रेम भरा हुआ, नैनन में है नीर।
नारी कोमल भाव से, मन से है गंभीर।

बैरी ममता मात की, अन्धी बहरी होय।
तनय सुता पिय प्रेम में, सारा जीवन खोय।।

बेटी है अभिमान तो, बेटा मेरा मान।
दोनों उर में हैं बसे, इनसे है सम्मान।।

रोली राखी हाथ में, आँखों में है आस।
आओ प्यारे वीर तुम, बहन बुलाये पास।।

करती लाड़ दुलार माँ, नहीं बड़ी यह बात
बालक देवर जेठ के, सभी लगाओ गात।।

चिड़िया बैठी डाल पर, गीत मधुर वह गाय।
ठंडी छाया है घनी, पेड़ लहरता जाय।।

हे करुणा सागर सुनो, कह दूँ मन की बात।
जप लूँ तेरे नाम को, चाहे दिन हो रात।

जीवन के आधार हैं ,दया, प्रेम सद्ज्ञान।
उम्र हमें छोटी मिली, काहे का अभिमान।।

नन्हा बालक गिर पड़ा, फिर भी करे प्रयास।
लक्ष्य एक चलना उसे, नहीं तोड़ता आस।।

जीवन एक प्रयास है, जीना अपना काम।
डटकर जो आगे बढे, उनका जग में नाम।।

मूक पुकारे कोख में, करती करुण पुकार
न्याय करो विपदा हरो, मैं निर्बल लाचार।

सुंदर बेणी गूंथकर,नारी करे श्रृंगार।
विविध रोग की ओषधी,पौधा हरसिंगार।।

बाधाओं को पारकर, बढ़ो लक्ष्य की ओर।
बढ़े सदा ही हौसला,देख सुहानी भोर।।

कविता धारा जाह्नवी, गोमुख हृदय विराट।
शुचिता भाव करे सदा , निर्मल जग का घाट।।

कृष्ण मीत अरु प्रीत है,कृष्ण रात अरु भोर।
कृष्ण गीत संगीत है, इस जीवन का छोर।।

आजादी जब थी मिली,सुखद खिली सी भोर।
नव भारत का जन्म था,करे नगाड़े शोर।।

मात पिता आशीष से,कटते सारे पाप।
नमन करो नित भोर ही,ये हरते संताप।।

क्रोध घनेरी रात है,प्रेम सुखद सी भोर।
क्रोध हारता सुख सदा,करता प्रेम विभोर।।

जले क्रोध की आग में,सहते पीड़ा घोर।
जीवन उनका रात है, कभी न आती भोर।।

परहित सेवा भाव से,लड़ते वीर सुपूत।
सीना ताने हैं खड़े,ध्वज रक्षा हित दूत।।

कुछ संबंधी जुर्म के,काले जिनके काम।
काले कपड़े बाँधकर,छुपा रखा निज नाम।।

नालायक उद्दण्ड ये,करते जन आघात।
हाथों में पाषाण ले,करते मन की बात।।

सुन्दर भू कश्मीर पर,आतंकी अभिशाप।
दहशत फैला कर करें,कुछ युवा यह पाप।।

छुपा रखा मुख झूठ ने,सच है सीना तान।
शर्मसार सब एक से,दूजे पर अभिमान।।

ज्यूँ आँखों में धूल की, पीड़ा सही न जाय।
वैसे ही आतंक का,कंकर बहुत सताय।।

सोमवार शिव साधना, मंगल को हनुमान।
बुध गणेश का वार है, ये गुरुवर का ज्ञान।।

बढ़ते प्रदुषण की दवा,अवगुंठन की छाँव।
पालन नर-नारी करो,शहर,नगर अरु गाँव।।

सुनलो प्रभुजी कामना,हरूँ धरा का भार।
पामर पथ पर पुण्य की,बहा सकूं मैं धार।।

सोम रूप प्रिय राधिका,मनमोहक घनश्याम।
सगुण युगल छवि है बसी,मन वृन्दावन धाम।।

शेर नाचने झट लगे,डर चाबुक की मार।
वैतरणी का भय भला,है पुण्यों से पार।।

नग गोवर्धन ने किया,इंद्र कोप पर वार।
गिरिधारी गोविंद की,लीला का यह सार।।

उम्र दौड़ती जा रही,लिया न प्रभु का नाम।
जीवन का औचित्य क्या, किया न असली काम।।

प्रीत पुलिन सम ही रहे, नव जीवन सौगात।
सूखे की हर मार को,दे सकती है मात।।

माँ चमकी आकाश में, बन पूनम का चाँद।
मचले मन आगोश को,आओ नभ को फाँद।।

उर परहित का बीज ले,नेकी जो उपजाय।
जग भी बोये यह फसल,वही बुद्ध कहलाय।।

सरयू तीरे है बसा, राम धाम साकेत।
कण-कण में श्री राम है,शुभ चंदन सम रेत।।

सन्त कबीरा कह गये, श्रेष्ठ गुरु का ज्ञान।
ढाई आखर प्रेम का,राह राम की जान।

जाति पाँति के भेद से, बड़ा सन्त का नाम।
मन शुचिता शीतल वही,पाता है सम्मान।।
















डॉ. शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

Wednesday, November 6, 2019

दोहा छन्द,'सौरठा विधान


1.लिखें सौरठा आप, दोहे को उल्टा रचें।
   सभी हरे संताप, पढ़े सौरठा जो कोई।।

2. अठकल पाछे ताल, विषम चरण में राखिये।
    विषम अंत की चाल, तुकबंदी से ही खिले।।

3. अठकल सरल विधान, जगण शुरू में टाल दें
     दो चौकल रख ध्यान, या त्री-त्री-दो मात्त हो।।

4. सम का मात्रा भार, अठकल पाछे हो रगण ।
     सौरठ-सम का सार, तेरह मात्रा ही रखें।।

5. माँ शारद उर राख, रचें सौरठा मन हरण ।
    बढ़ती इससे साख, छंद सनातन यह मधुर।।


सुचिसंदीप,'सुचिताअग्रवाल'
तिनसुकिया, असम

कुंडलियाँ,'नए साल पर'

कुंडलिया

आये जीवन में खुशी,  दुगुनी अबकी साल
सुख समृद्धि धन लाभ से, होवें मालामाल।।
होवें मालामाल, नेक राहों पर चलकर
छुट जाए सब कष्ट, राह के सारे जलकर
खुशियों का अंबार, आप जीवन में पाये
मंगल होवे काज, बहारें ऐसी आये।।

सुचिसंदीप(शुचिता)अग्रवाल
तिनसुकिया, असम

चौपाई छंद गीतिका 'रक्षाबंधन'


राखी बांधे बहन कलाई।
हरदम खुश हो मेरा भाई।।

सुख काया वैभव धन चाहे।
वीरा के प्रति मां की जाई।।

नाच रहे खुशियों से परिजन।
मात पिता भाई भौजाई।।

झूम झूम कर सावन गाये।
छंद गीत अरु वैण सगाई।।

भाई का आँगन मंगलमय।
बंधनबार सजाकर लायी।।

महिमा राखी की है न्यारी।
नवयौवन सी रौनक छाई।।

खुशियाँ देना खुशियाँ लेना।
यही रीत बस चलती आयी।।

आंखों में दोनों ने झांका।
निश्छल प्रेम भरी सच्चाई।।

है अटूट बन्धन राखी का।
रिश्तों की यह दूध मलाई।।

सुचिसंदीप"शुचिता"अग्रवाल
तिनसुकिया,असम

जलझूलनी एकादशी

(डोल, जलझूलनी, पद्मा या वामन एकादशी पर रचित रचना)


कृष्ण लिए अवतार धरा पे
मात यशोमति लाड लड़ाये ,
ग्यारस डोल घड़ी शुभ आयी,
मात नहावन से हरषाये।

जो जग के हरते दुख सारे
श्याम धणी लगते अति प्यारे,
बाल मनोहर रूप प्रभू का,
आज सजा हर आँगन भू का।

नंद बड़े खुश होकर गाये
गोकुल उत्सव में सब आये।
झूम रही सखियाँ बलखाती
लाड़ लडाकर वो सकुचाती।

ग्यारस की यह पावन बेला
आज लगा धरती पर मेला,
देव लगे बरखा बरसाने
स्वागत को हर राह सजाने।


विधान~दोधक/बन्धु/मधु छंद
[भगण भगण भगण+गुरु गुरु]
( 211 211 211  22
11वर्ण,,4 चरण
दो-दो चरण समतुकांत]


डॉ.सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

मधु छन्द,'जलझूलनी एकादशी'

(डोल, जलझूलनी, पद्मा या वामन एकादशी पर रचित रचना)


कृष्ण लिए अवतार धरा पे
मात यशोमति लाड लड़ाये ,
ग्यारस डोल घड़ी शुभ आयी,
मात नहावन से हरषाये।

जो जग के हरते दुख सारे
श्याम धणी लगते अति प्यारे,
बाल मनोहर रूप प्रभू का,
आज सजा हर आँगन भू का।

नंद बड़े खुश होकर गाये
गोकुल उत्सव में सब आये।
झूम रही सखियाँ बलखाती
लाड़ लडाकर वो सकुचाती।

ग्यारस की यह पावन बेला
आज लगा धरती पर मेला,
देव लगे बरखा बरसाने
स्वागत को हर राह सजाने।


विधान~दोधक/बन्धु/मधु छंद
[भगण भगण भगण+गुरु गुरु]
( 211 211 211  22
11वर्ण,,4 चरण
दो-दो चरण समतुकांत]


डॉ.(मानद)सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

दुर्मिल सवैया, 'बसन्त'


दुर्मिल सवैया 
"मधुमास"   
        
नव रंग सजे नवगीत बजे, मधुमास सदैव सुहावत है।
चिड़िया चहके बगिया महके,अति मौसम सौम्य लुभावत है।
खलिहान हरे हलवाह हँसे, मन गावत धूम मचावत है।
ऋतुराज उमंग भरे मन में, शुचि प्रेम धरा पर आवत है।।

◆◆◆◆◆◆◆◆

दुर्मिळ सवैया विधान -

दुर्मिळ सवैया चार चरणों का 24 वर्णों के वर्णिक छंद है। सभी सवैया छंद गण आश्रित छंद होते हैं । इसी तरह दुर्मिळ सवैया भी 24 वर्णों का सगण (112) पर आश्रित है, जिसकी 8 आवृत्ति होती है। इसकी सरंचना लघु लघु गुरु × 8  (112 × 8 ) है।

(112 112 112 112 112 112 112 112 )

अन्य सभी सवैया छंदों की तरह इसकी रचना भी चार चरण में होती है और सभी चारों चरण एक ही तुकांतता के होने आवश्यक हैं।

सवैया छंद यति बंधनों में बंधे हुये नहीं होते हैं परंतु कोई चाहे तो लय की सुगमता के लिए दुर्मिळ के चरण में 12 -12  वर्ण के 2 यति खंड रख सकते है ।चूंकि यह एक वर्णिक छंद है अतः इसमें गुरु के स्थान पर दो लघु वर्ण का प्रयोग करना अमान्य है।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया,असम



दोहा छन्द,'परिवार'

त्याग प्रेम से सींचिये, फले फुले परिवार।
स्वार्थ भेद सब छोड़िये, रहे सुखी संसार।।

आस न दूजे की करो, आप करो सत्कार।
दुख में साथ निभाइये, श्रेष्ठ वही परिवार।।

बालक देवर जेठ के, पाये हमसे प्यार।
भेदभाव निपजे नहीं, संयुक्तम परिवार।।

आपस के मतभेद का, खुद करलो उपचार।
दीमक से रखना सदा, दूर सुखी परिवार।।

मीठी वाणी बोलकर, जीतो सबसे प्यार।
कड़वाहट ही तोड़ता,याद रखो परिवार।।

भला देश का कीजिये, नेक बने संसार,
खुद के भीतर झाँकिये, जीवन का ये सार।।

निंदा कभी न कीजिये, टूटेंगे परिवार।
'शुचि' मन निर्मल राखिये, करो नेक व्यवहार।।

सुचिसंदीप 'सुचिता अग्रवाल'
तिनसुकिया, असम

मुक्त कविता, 'हिन्दी को सम्मान दो'

हिन्दी दिवस मनाते  जोश में है सब गाते
नाचते और झूमते  भारतवासी देखो।
आज प्रचार करते  कल फिर भूल जाते
वादों की कसौटियों पे खरे ना उतरते।

प्रतिष्ठा बढ़ानी होगी  हिन्दी अपनानी होगी
बाजी मारनी ही होगी  नेताजी को देश में।
दूसरों से लिखवाते  भाषण खुद बोलते
हिन्दी दिवस मनाते  दिखावा है देश में।

अंग्रेजी के ठेकेदार देश में भरे गद्दार
हिन्दी का करे प्रचार  बिना किसी भाव से।
अंग्रेजी ही पढ़ते हैं  अंग्रेजी ही पढ़ाते हैं
अंग्रेजी ही बोलते हैं  पूरे मन भाव से।

दो नावों में है सवार  कोई नहीं आर पार
दोगला है व्यवहार  शर्मनाक बात है।
हिन्दी का अधूरा ज्ञान  अंग्रेजी के विद्वान्
पाते हैं वही सम्मान  पत्ते की ये बात है।

हिन्दी में हम सोचेंगे  हिंदी में ही समझेंगे
हिन्दी में हम पढ़ेंगे  लाओ हिन्दी देश में।
रटंत विद्या ना करो  ज्ञान का प्रचार करो
मातृभाषा अपनाओ  भारतवासी देश में।

छोड़दो दिखावा सब  सादगी में आओ अब
गौरव मिलेगा जब  अपनों को मान दो।
निज भाषा अपनाओ  पश्चिम का मोह त्यागो
स्वदेशी को अपनाओ  हिन्दी को सम्मान दो।।

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया

मुक्त कविता,"नेत्रदान कर दो"


जाते जाते भला किसी का तो तुम कर जाओ
दुनिया न देखी उसे, नेत्रदान कर दो।
जाते जाते रंग किसी में तो तुम भर जाओ
मिटादो अँधेरा सब नेत्रदान कर दो।

देखी नहीं दुनिया है, सुन के ही समझे हैं,
ज्योति इन अँखियों में, आप भेंट कर दो।
बड़ा उपकार होगा, नेक बड़ा काम होगा,
दो लोगों को आँखें मिले, नेत्रदान कर दो।

अनमोल उपहार, दिया है प्रभु ने हमें,
मरने के बाद इसे , व्यर्थ मत जाने दो।
जल जाती काया सारी, रह जाती माया यहाँ,
साथ कुछ जाता नहीं,नेत्रदान कर दो।

उठा रहे जो बीड़ा है, निःस्वार्थ सेवा भाव से,
धरा के वो कोहिनूर, बड़ा काम करते।
लाखों इसमें भलाई, एक भी बुराई नहीं,
लानी जन जागृति है, नेत्रदान कर दो।

सुचिता अग्रवाल,'सुचिसंदीप'

मुक्त कविता,"नयी सोच नया सवेरा"


खुली पलक में ख्वाब बुनो,
और खुली आँख से ही देखो।
सपने चाँदनी रात में नहीं,
तप्त तपन  की किरणों में बुनो।

तपना पड़ता है सूरज की तरह,
ख्वाब पूरे यूँ ही नहीं होते।
निशा की आगोश में,
सपनों के घरौंदे नहीं होते।

आगे बढ़ो बढ़ते चलो,
कोशिश करने वाले घायल नहीं होते।
कामयाबी के शिखर पर पहुंचने वाले,
दिल से कभी कायर नहीं होते।

जागते रहो कर्म करते रहो,
देखो न सपने बस सोते सोते।
प्रेरणा किसी को बना स्वयं तुम,
उदाहरण बन जाओ जाते जाते।

कर लो हौसलों को बुलन्द,
आएगी कामयाबी परचम लहराते।
समय को स्वर्ण सा कीमती समझो,
खर्च करो उसे डरते डरते।

जहाँ चाह नहीं वहाँ राह नहीं,
करो कामना सोते जागते।
मर न जाओ यूँ ही कहीं,
गठरी निराशा की ढोते ढोते।

अमर हुए हैं नाम जिनके,
वे भी थे इंसान हमारे जैसे।
जो लक्ष्य से कभी भटके नहीं,
किये मुकाम हासिल कैसे कैसे।

चाहें तो हम और आप,
दुनिया में क्या है जो नहीं कर सकते।
ला विचारों में बदलाव कर्म करो,
लक्ष्य करो तैयार समय रहते रहते।

यूँ ही नहीं ये अमोल जिन्दगी,
व्यर्थ गँवानी बस रोते रोते।
नयी सोच और नयी सुबह का,
करलो संकल्प अब हँसते हँसते।

'सुचिसंदीप'सुचिता अग्रवाल
तिनसुकिया,असम

मुक्त कविता,' नया ये साल आया है"


नये सपने नयी राहें नया ये साल आया है।
हमारे देश में बदलाव का ये दौर आया है।

करें सहयोग हम मिलकर बनें हम देश की ताकत,
जगो अब नींद से अपनी सवेरा खास आया है।

चलो हम ख्वाब को अपने पुरा इस साल करते हैं,
मिटादें आपसी रंजिश सृजन में प्यार भरते हैं।

गिरादो आज उस दिवार को जो मार्ग में बाधित,
चलो हम भूलकर दुःख को खुशी के गीत गाते हैं।

दिखाएँगे नये युग को कलम में जोर कितना है,
हमारी बाजुओं में दम दिखाएँगे कि कितना है।

बढ़ो शब्दों की ताकत से हमें आवाज उठानी है,
सुनादो गैर मुल्कों को कि भारत वीर कितना है।

कभी हम डूबकर इसमें दिलों के भाव लिखते हैं,
कभी कुछ खास देखें तो कलम से आह भरते हैं।

सिपाही हम भी हैं इस देश के हाथों में स्याही है,
चलो इस साल भारत का नया इतिहास रचते है।।

विद्यावाचस्पति सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया(आसाम)

लघु निबंध,'समाज एवम देश के प्रति हमारी जिम्मेदारी'


सर्वविदित है कि भव्य समाज एवम देश के अभिनव निर्माण का श्री गणेश स्वयं से शुरू होता है।
आत्म निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण ,देश निर्माण एवम विश्व निर्माण इन्ही सीढ़ियों पर चलते हुए हमें अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना चाहिए।
हम स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक है लेकिन अधिकतर लोगों ने स्वतंत्रता का अर्थ स्वछंदता ही लगा रखा है।
हम कितना अपने पड़ोसी का ध्यान रखते हैं?
देश के लोगों के प्रति कितनी सहानुभूति है?
 राष्ट्रीय सम्पति या सामाजिक सम्पति के सदुपयोग का हमें कितना ध्यान रहता है?
क्या समाज या राष्ट्र हित के लिए हम अपनी संकीर्ण मानसिकता पर अंकुश लगा सकते हैं?
इन सब प्रश्नों का उत्तर स्वयं में ढूंढें तो हमें स्वतः ही पता चल जाएगा कि हम कितने जिम्मेदार नागरिक हैं।
हमारे राष्ट्र प्रेम के उदाहरण सामने ही है अधिकतर राष्ट्रीय उद्योग, कलकारखाने, पाठशालाएं, अस्पताल आदि घाटे में चल रहे हैं।
इसका बहुत बड़ा कारण यह है कि देश की संपत्ति को हम अपनी नहीं समझते हैं।
सरकारी ईंटें चुराकर अपने घर की दीवार बनवा लेते हैं, रेलवे में टिकट की चोरी करके कुछ पैसे टी टी की पॉकेट में भरकर भ्र्रष्टाचार की आग को बढ़ावा दे ते हैं, कूड़ा कचरा जानबूझकर दूसरों के घरों के सामने या सड़कों पर गिरा देना,सरकारी संपत्ति की चोरी करना यह सब हमारी ओछी हरकतें हैं जिनका निदान हमारे ही पास है।
जिस तरह कन्या का विवाह करने, बीमारी का इलाज करवाने, बच्चे का बढ़िया। स्कूल में दाखिला करवाने के लिए हम एड़ी और चोटी का जोर लगा देते हैं तो समाज एवम देश के स्तर को ऊँचा  उठाने वास्ते भी सत्प्रवतियों को सुविकसित करना ही चाहिए।
स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार तभी हो सकता है जब हम उसके लिए पात्रता सिद्ध करें।
समाज मे रहकर सहयोग की भावना को बढ़ावा देना चाहिए। एकता में बड़ी ताकत होती है । बड़े से बड़े काम हम एकता के बल पर पूरे कर सकते हैं। अतः सही राह का चुनाव करें और परिवार, समाज, देश को सही मार्गदर्शन देने में सहयोग करें।
कम से कम अपना तो सुधार करें ताकि समाज और राष्ट्र की जिम्मेदारी उठाने के लायक बन सकें।

सुचिसंदीप "सुचिता"अग्रवाल
तिनसुकिया,असम

लघु निबंध,"सफलता की कुंजी"



जिस तरह एक मृग सुगंध को ढूंढने के लिए वन वन भटकता फिरता है जबकि वह सुगंध फैलाने वाली कस्तूरी मृग की नाभि में ही विद्यमान है। ठीक उसी तरह सफलता की कुंजी या सफलता की चाबी हर इंसान के पास मौजूद है और वो उसे पाने के लिए जीवन भर दौड़ता ही रह जाता है।
इंसान के सकारात्मक विचार ही वह कस्तूरी है या यूं कहिये की सफलता की कुंजी है जिसकी सुगंध से हम पूरे संसार को महका सकते हैं।
इतिहास गवाह है दुनिया की हर खोज के पीछे विचार शक्ति का हाथ है। जितने भी महान लोग धरती पर हुए हैं उन सबको सकारात्मक विचार शक्ति की ताकत का भान हुआ और तत्काल उसके प्रयोग से वो सब अमर हुए हैं।
सम्पूर्ण ब्रह्मांड हमारे विचारों से संप्रेषित होता है।
यह एक आकर्षण के नियम के तहत काम करता है। हम अपने अच्छे या बुरे विचारों की घोषणा ब्रह्मांड को करते हैं और वही विचार वस्तु बनकर हमारे सामने प्रकट होते हैं।
हमें क्या चाहिए, हम क्या पाना चाहते हैं या क्या बनना चाहते हैं इसकी सूचना अपने विचारों द्वारा ब्रह्मांड को देना हमारा कार्य है। कार्य की पूर्णता ब्रह्मांड का काम है। वह वही लौटाएगा जिनका हम विचारों की शक्ति द्वारा आह्वान करते हैं बिना नकारात्मकता के।
बहुत कम लोगों को इस रहस्य के बारे में पता है इसलिए सफल भी बहुत कम लोग ही हो पाते हैं।
जानकर आश्चर्य होगा कि पूरे संसार का 96% धन मात्र 1% लोगों के द्वारा कमाया जाता है । उनके पास विचारों का जादू है और वो अपने विचारों द्वारा धन को आकर्षित करते हैं।
लंबे समय तक विचारों में बिना नकारात्मकता के जिस चीज का मंथन होता रहता है वह अवश्य प्रकट होती है।

कहने का मतलब यही है कि अपने विचारों को सकारात्मक करने का प्रतिपल अभ्यास करें, बहुत ऊंचा सोचें, लगन और विश्वास का दामन थामे रखें, अपने अंदर छुपी सफलता की राह को समझें और तत्परता से आगे बढ़ने को तैयार रहें।
हम अपनी तकदीर खुद बना सकते हैं। विचारों का चुनाव सोचसमझ कर करें सफलता अपने आप कदमों में चली आएगी यह मेरा अटल विश्वास है।

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

लघु निबंध,"महाराणा प्रताप"




महाराणाप्रताप का व्यक्तित्व  एवम् कृतित्व आज भी उतना ही प्रेरणादायक है। यह संसार संघर्ष भूमि है, प्रत्येक मनुष्य के जीवन में समय समय पर कठिनाइयां, विपत्तियां  तो आती ही रहती है लेकिन उस समय भी अपने सिद्धांतों पर डटे रहने वाले  ही  लोगों की नजर में माननीय, आदरणीय, सम्माननीय होते हैं।
जो अपने स्वार्थ को त्यागकर दूसरों के उपकार के लिए ही पर्यटन करे या अपना सम्पूर्ण जीवन ही परोपकारिता में लगा दे वही महापुरुष कहलाते हैं। 
महाराणा प्रताप में ये दोनों ही विशेषताएं कूट कूट कर भरी थी, इसी वजह से आज सैंकड़ों वर्षों के बाद भी उनका गुणगान करके हम अपना जीवन भी श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न करते हैं।
महाराणा प्रताप ने अपने सीमित साधनों से ही स्वाभिमान और देश के गौरव की रक्षा  के नाम पर अकबर की विशाल सेना का डटकर मुकाबला किया था। उनके पिता महाराणा उदयसिंह निर्बल प्रकृति के विलासप्रिय राजा थे। लेकिन उन्ही का 25वां पुत्र प्रताप इतना गौरवशाली, प्रतापी हुआ कि उनका नाम इतिहास में अमर हो गया।
उन्होंने प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक मैं चितौड़ को स्वतंत्र न कर लूंगा तब तक महलों को त्यागकर झोंपड़े में ही रहूंगा, जमीन पर सोऊंगा और पत्तल पर ही भोजन करूंगा। हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात राणा जी का जीवन 21 वर्षों तक जंगलों में ही व्यतीत हुआ ऐसे में भी बादशाही सेना उनके पीछे ही पड़ी रहती थी यदि प्रताप झुककर अकबर  को भारत सम्राट मां लेते तो वो भी सम्मान के साथ अपने भवन में रह सकते थे लेकिन वो ना तो कभी झुके और ना ही शरण मे आये। अपने परिवार की रक्षा के लिए बहुत सी कठिनाइयों का सामना उनको करना पड़ा था
अतः महाराणा प्रताप का जीवन देखते हुए इसमें संदेह नहीं कि त्याग और बलिदान ही ऐसे गुण है जिनके आधार पर किसी व्यक्ति को महानता और स्थायी मान्यता प्राप्त हो सकती है।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप', 
तिनसुकिया
असम

लघु निबंध,"चंद्रशेखर आजाद -कुछ स्मृतियाँ"



सच्चे क्रांतिकारियों के मनोभाव, व्यक्तित्व, कृतित्व एवम् सिद्धान्त ही उनके सर्वस्व होते है। उन्ही के खातिर वे हंसते हंसते अपना बलिदान भी कर देते है।
23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के भाँवरा नामक ग्राम में सीताराम तिवारी जी के घर इनका जन्म हुआ।
चंद्रशेखर आजाद सरल स्वभाव के थे। दाव पेंच, कपटी बातों से उनको सख्त नफरत थी। आजाद बचपन से ही निर्भीक और उत्साही प्रवृति के थे। आंदोलन के उस दौर में आजाद ने भी पढ़ाई छोड़कर आंदोलन में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया था मात्र 14 या 15 की उम्र में।
एक बार मजिस्ट्रेट की अदालत में इन्होंने अपना नाम 'आजाद' पिता का 'स्वाधीन' एवम् घर 'जेलखाना' बताया था। जवाब पर बेंतों से मार भी पड़ी लेकिन जबान के पक्के आजाद हंसते रहे और अंग्रेजी सरकार की आंखों का कांटा बन गए।
उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि कोई भी पुलिस वाला मेरे जीवित शरीर को हाथ भी नहीं लगा सकता है, और न जेल में बंद कर सकता है। " मैं सदा "आजाद" ही रहकर दिखाऊंगा। बड़े बड़े चतुर गुप्तचरों के अथक प्रयास के बावजूद भी आजाद को पकड़ पाना नामुमकिन ही था।
सभी साथी गिरफ्तार हो जाते तब भी योजनाओं को वह बखूबी अंजाम देकर अंग्रेजी सरकार की नींद हराम किये हुए थे।
वे अन्याय के विरोधी थे, स्वयं खतरा उठाकर भी वे अन्याय पीड़ितों की रक्षा हेतु दुष्ट लोगों से भिड़ जाते थे।
स्त्रियों की इज्जत करना तथा गरीबों के प्रति हमदर्दी के मानवीय गुणों की खान थे हमारे आजाद।
नेतृत्व क्षमता, भूखे रहकर भी देश की सेवा सर्वोपरि, साथियों की सुरक्षा का खयाल रखना, खतरे के समय सबसे आगे रहना तथा अंधविश्वास और पाखंड से दूरी बनाए रखना आजाद को अन्य सभी से भिन्न बनाता है।
अपने ही साथियों के विश्वास घात ने आजाद को शहीद होने पर मजबूर किया।
1931 में एक बार सुखदेव राज के साथ एक बगीचे में आजाद क्रांतिदल की वर्तमान दशा पर बात कर रहे थे तभी पुलिस के द्वारा वे घेर लिए गए तब सुखदेव को जैसे तैसे बचा कर स्वयं परिस्थिति को समझते हुए अपनी पिस्तौल से अपनी कनपटी पर गोली मार ली और आजाद वीर गति को प्राप्त हुए।
आजाद के सिद्धान्तों की पूर्ति आज भी आजादी के इतने साल बाद भी नहीं हो सकी है उनके प्रति उचित श्रद्धांजलि उनके नेक स्वप्न को साकार रूप देना होगा।
चंद्रशेखर आजाद का वास्तविक सम्मान हम देश और समाज के कल्याण की भावना को सर्वोपरि समझ कर ही कर सकते हैं।

"ईश रूप है वीर का, देवालय सम देश
जिस घट भाव नहीं भरे ,वो पत्थर अवशेष "

डॉ.(मानद)सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

'कुंडलियाँ छन्द,'गुरुपूर्णिमा'

माता गुरुवर प्रथम थी,आज नमन सौ बार
पिता,भ्रात,ज्ञानी सभी,वन्दन कर स्वीकार
वन्दन कर स्वीकार,परमवर गुरुवर मेरे
शुचि का बारम्बार,नमन चरणों में तेरे
साहित्यिक सद्ज्ञान,मुझे प्रतिपल मिल जाता
हर शिक्षक गुरु धाम, जहाँ बसती है माता।

सुचिताअग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

'गीता जयंती',लघु निबंध


 
श्रीमद्भगवत गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण ने धर्मभूमि कर्मभूमि कुरुक्षेत्र में महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन को दिया था। विक्रम संवत प्रारम्भ होने के लगभग 3000 वर्ष पूर्व जब कौरवों और पांडवों के मध्य युद्ध होने वाला था तब अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु कृपया रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कर दीजिए मैं इन युद्ध की इच्छा से आए हुए लोगों को देखना चाहता हूँ ।तब भगवान ने अर्जुन से कहा कि हे पार्थ इन कुरुवंशियों को देखो। जैसे ही अर्जुन ने कौरवों की सेना में खड़े अपने भाई बंधुओं ,चाचा, मामा, ससुर, पितामह ,गुरु जन आदि को देखा वे अपना कर्तव्य भूल कर घोर शोक ग्रस्त हो गए, उन्हें कर्तव्य का ज्ञान जाता रहा।  अनेक तरह से उन्होंने भगवान से कहा कि हे प्रभु मैं भिक्षा के  द्वारा निर्वाह करना ज्यादा उचित समझता हूँ बजाए अपने परिवार वालों की हत्या करने के। इसके अलावा भी बहुत तरह की दलीलें देकर अर्जुन ने भगवान से युद्ध ना करने के लिए आग्रह किया भगवान ने कहा की -"हेअर्जुन तुम्हें अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं रहा है। यह धर्म युद्ध है इसमें तुम्हारा कर्तव्य युद्ध करने का ही है," लेकिन जब अर्जुन दोनों तरह की बातों के बीच में उलझे तो उन्होंने भगवान की शरण लेना ही ज्यादा उचित समझा तब बड़े ही विनम्रता और कातर भाव से उन्होंने भगवान की शरण ली और भगवान से कहा कि हे मधुसूदन मैं आपकी शरण हूँ कृपया मुझे उचित मार्ग दिखाएं ।तब परम कृपालु प्रभु ने कृपा करके अर्जुन को जो परम उपदेश दिया उसे ही भगवद्गीता कहा जाता है। भगवत गीता में कुल 18 अध्याय एवं 700 श्लोक है। भगवान ने जीव मात्र के कल्याण के लिए सरल से सरल साधन अनेक प्रकार से इस में बताएं हैं। मुख्यतः तीन प्रकार के साधनों का भगवान ने  वर्णन किया है। भक्ति योग ,ज्ञान योग, एवं कर्म योग द्वारा मनुष्य किसी भी परिस्थिति में, किसी भी वर्ण, आश्रम एवम धर्म , सम्प्रदाय में हो अपना कल्याण कर सकता है। अपनी रुचि योग्यता एवं सामर्थ्य के अनुसार उपरोक्त किसी भी साधन के द्वारा भगवत प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होकर बहुत ही  शीघ्र एवं सुगमता पूर्वक अपने मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है ।भगवान ने भगवत गीता में स्पष्ट रूप से कहा है कि मनुष्य जीवन केवल भगवत प्राप्ति के लिए ही मिला है ,अतः प्रत्येक मनुष्य को चाहिए की इस बहुमूल्य मनुष्य शरीर को पाकर अपना कल्याण अवश्य ही कर लेना चाहिए। भगवत गीता पर अनेक भाषाओं में अनेक टिकाएं, पुस्तकें लिखी गई है।
भगवान ने  भगवत गीता का उपदेश मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को ही दिया था अतः मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी गीता जयंती के रूप में मनाई जाती है।

शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

मुक्त कविता,"मौसम"


ये मौसम सी आँखें, ये मौसम सा मन है
ये मौसम सी बातें, ये मौसम सा तन है।

बदलती ज्यूँ ऋतुयें बदलता ये मन है,
ये मौसम सी दुनिया का अपना धरम है।

बचपन जवानी बुढापा फिर आया
बदलने को धरती पे पाया जनम है।

कभी जान बनकर जो दिल में था रहता
अब हुआ वो किसी अजनबी का करम है।

रखी नींव स्वार्थ की फिर रिश्ते बनाये
पड़ी जब दरारें क्यूँ व्याकुल सा मन है।

नहीं कोई खुद की नजर में है बूरा
जो दुनिया समझ ले ये उनका भरम है।

हँसे हम खुशी में बहे अश्क दुख में
फूलों की बगियाँ, कभी काँटों का वन है।

नहीं कोई बदला बदल मैं ही गयी हूँ
बदला नजरिया और बदला चमन है।


सुचिता अग्रवाल,'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

दोहा छन्द,"माँ दुर्गा"


अष्टभुजाओं में लिये, गदा धनुष तलवार।
 आठ दिशाओं से करे, दुष्टों पर माँ वार ।।

 चक्र लिये दुर्गा बढ़ी, ऊँचा करके भाल।
भक्तों की रक्षक बनी, महिषासुर की काल।।

चंडी का अवतार ले, किया दुष्ट संहार।
धारा दुर्गा नाम भी, महिषासुर को मार।।

सोई नारी जाग अब, माता शंख बजाय।
अबला से सबला बनो, कब तक बैठ लजाय।।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
16-10-2018

मुक्त कविता,भारतीय नारी की डायरी के पन्ने"


आज सोमवार है।
जल्दी उठकर सारे काम करने हैं,
बच्चों के मनपसन्द खाने के
टिफिन तैयार करने हैं।
ऑफिस जाने के लिए बेटे के,
कपड़े भी प्रेस करने होंगे,
पति जो रात को बोलकर सोये थे
वो सामान तथा कागज याद से देने होंगे।
किसी की दवाई, मोबाइल या
जरूरत के कागज कहीं छुट न जाये
दौड़ते-दौड़ते बाहर तक पकड़वाकर
अब साँस सी भरने लगी है,
पर साफ-सफाई खाना बनाने से लेकर
बाकी सब काम निपटाने में
कहीं देर न हो जाये।

आज मंगलवार है।
बिटिया को स्कूल में
गिटार देकर भेजना है।
ओह आज उसका स्पोर्ट्स भी है
अतः सफेद जुत्ते पहनाने हैं।
बेटे की पसंद की
चलो आज सब्जी बना लेती हूँ।
याद से आज पति को
मन्दिर जाने को कहती हूँ।
बड़ी बेटी की पढ़ाई पूरी हुई तो क्या
आजकल उसका रात भर जगना
और सुबह लेट से उठना भी तो
हँस-हँस कर सहना है।
खैर.... मैं नहाकर जल्दी से
पूजा तो कर लेती हूँ।
माँ-बाबूजी को नास्ता देने में
कहीं देर न हो जाये।

बुधवार को नास्ते पर
कुछ लोग आने वाले हैं।
पूड़ी-सब्जी और कुछ मीठा
इतनी सी पति की फरमाइश है।
आज लंच में कुछ अच्छा बने
यह बेटी की ख्वाइश है।
यूनीफॉर्म तथा जूते भी धोने की
आज ही गुंजाइश है।
व्यापार काम से पति कल
बाहर जाने वाले हैं।
सूटकेस लगाना भी
मेरे ही हवाले है।
कि बेटी की आवाज आई
मम्मी जल्दी खाना दो,
पिक्चर देखने जाना है,
कहीं देर न हो जाये।

आज बृहस्पतिवार है।
चलो आज कपड़े नहीं धोऊंगी।
कोई बात नहीं उस समय में
अलमारी, राशन वगैरह
ठीक ही कर लेती हूँ।
बच्चों के लिए बाजार से
थोड़ा नास्ता ले आती हूँ।
पर जाने से पहले सासु माँ के
कहे काम पूरे कर देती हूँ
वरना तो खैर....
आज से बिटिया को अच्छी से पढ़ाऊँगी,
उसका अधूरा प्रोजेक्ट भी करवाऊँगी।
अब जल्दी तैयार होती हूँ वरना
कहीं देर न हो जाये।

आज शुक्रवार है।
खाना बन चुका,
अब आयरन लगा लेती हूँ।
सब कमरों में चद्दर भी
आज ही बदल देती हूँ।
रात को पार्टी में जाने से पहले
घर पर खाना जल्दी से बना लेती हूँ।
आने में देर हो जाएगी तो
दही भी अभी ही जमा देती हूँ।
अलार्म जरूर लगाना होगा
सुबह नींद खुलने में
कहीं देर न हो जाये।

शनिवार कितनी जल्दी आ गया।
कैसे पूरा सप्ताह निकल गया।
बस आज केवल बिटिया को
कोचिंग से मुझे लाना होगा।
रविवार को यह तो आराम होगा।
जूस के लिए फ्रूट्स भी मंगवाने है
हिसाब दिखाकर पैसे भी अब लेने हैं।
रिस्तेदारों की शिकायत है कि
मैं फोन नहीं करती हूँ।
चलो आज हाल पूछ लेती हूँ,
कम से कम रिश्ते निभाने में
कहीं देर न हो जाये।

फिर से आज रविवार है।
अतः थोड़ी ज्यादा व्यस्त हूँ।
बच्चों की फरमाइश पर
खुश होकर बहुत कुछ करना है।
वरना कहेंगे कि-
एक ही दिन तो हमें छुट्टी मिलती है
और उस दिन भी आप हमारे लिये
कुछ भी नहीं करती।
आखिर मैं भी तो एक भारतीय नारी हूँ
जो माँ, पत्नी और बहू बनकर
काम करते कभी नहीं थकती।

डॉ.सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

चौपाई छंद,बाढ़ त्रासदी


बरखा रौद्र रूप धर आयी।
घोर धरा पर विपदा छाई।।

बिलख बिलख कर रोये माई।
डूब रहा पानी में भाई।।

एक डाल पर छुटकी झूली।
खाना पीना सब वो भूली।।

आँगन डूबा फूटी शाला।
चिरनिद्रा में बालक बाला।।

पड़ा धरा पर बरगद बूढा।
आलय नभचर ने था ढूंढा।।

गाय बैल बकरी सब रोये।
जाग गए जन थे जो सोये।

बाढ़ डाकनी सी लगती है।
याम आठ ये तो जगती है।।

अपने धाम चली तुम जाओ।
बाढ़ दुबारा अब नहि आओ।


डॉ.(मानद)सुचिसंदीप" सुचिता अग्रवाल
तिनसुकिया,असम

दोहा छन्द,"बहन"


बेटी फूल गुलाब का,घर को जो महकाय।
बहन पीर बूटी कहो, दुख में याद सताय।।

बड़ी बहन माँ सी लगे, छोटी सुता समान।
हृदय लहर शुचिता बहे, मधुरिम जैसे गान।।

बहन प्रीत की डोर है, ममता की पहचान।
कोमल मन सुखदायिनी, भाई की वह जान।।

तीन रूप में है छुपी, नारी शक्ल महान।
बहन सुता माता बनी, देवी की पहचान।।

सुचिसंदीप"सुचिता अग्रवाल
तिनसुकिया,असम

विधाता छन्द,"बधाई वैवाहिक वर्ष गांठ पर"


बधाई दे रहे हम तो सदा खुशियों के डेरे हो,
बहारें ही बहारें हो खिले हरदम ये चेहरे हो,
सभी सपने जो मिलकर साथ इक दूजे के देखे थे
अधूरे हैं अगर सपने दुआ है ये कि पूरे हो।

मधुर संगीत के जैसा हर इक लम्हा हो जीवन का,
किसी मंदिर के दर जैसा रहे आँगन ये पावन सा,
नयी खुशियाँ नये रिश्ते नयी किलकारियाँ गूँजे
रहे आबाद ये उपवन सुखद शीतल सी लहरें  हो।

नसीबों से ही मिलती है जो जोड़ी आपने पाई
निभाई भी वफादारी तभी खुशियाँ हैं ये आयी
रहे ये साथ यूँ जोड़ी सलामत सात जन्मों तक
बधाई आप दोनों को,सजाकर थाल मैं लायी।

सुचिता अग्रवाल,'सुचिसंदीप'

मुक्त कविता,"पहली कमाई"


आज से पहले ना हुआ  यह सुखद अहसास
पहली कमाई हाथ में कितनी लगती खास।

दिव्य रूप लक्ष्मी तेरा देखा है पहली बार
खुशियों से मन झूम उठा नाचे घर परिवार।

पहली कमाई कीजिये प्रभु आप स्वीकार
नेकि के रस्ते बढूं सदा करूँ उपकार।

मात पिता की आंखों में खुशियों के आँसू आये
पूरे हुए वो सब सपने वर्षों से थे जो संजोए।

लगन, परिश्रम, हौसले सदा थे मेरे पास
राहों में रौड़े मिले पर टूटी कभी ना आस।

हुआ चूर थककर कभी ,आलस से घबराया
पानी है मंजिल मुझको, खुद को ही मैने समझाया।


सुचिसंदीप (सुचिता अग्रवाल)
तिनसुकिया (असम)

मुक्त कविता,"दुश्मन हाथ मले पछतायेगा"


भारत नाको चने चबवायेगा,
दुश्मन हाथ मले पछतायेगा।

अधकल गगरी छलकत जाय,
अक्ल के दुश्मन आँख दिखाय।

आगे कुंवा पीछे खाई,
भाग न पायेगा हरजाई।

आसमान से गिरा खजूर पर अटका,
दुश्मन तू खायेगा अब झटका।

कबहूँ निरामिष होय न कागा,
हर भारतवासी अब जागा।

काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती,
एक दिन तो मुंह की खानी पड़ती।

बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी,
दुश्मन तेरी अब एक नहीं चल पाएगी।

लातों के भूत बातों से नहीं मानते,
जवाब हम अब और भी है जानते।

सीधी उंगली से घी नहीं निकलता,
हत्यारों पर बातों का असर नहीं होता।

सौ सुनार की एक लुहार की,
अबकी बार खाकर देख भारत की।

हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊं,
इन दुष्टों को मैं कैसे समझाऊं??

सुचिता अग्रवाल,'सुचिसंदीप'

मुक्त कविता,"दहेज दानव"


चलो आज प्रण करते हैं हम
बेटे को बिकने नहीं देंगे हम।
बहु में रूप बेटी का देखें
बिन दहेज ब्याह लाएंगे हम।

कम खर्चीली शादी करनी है
आडम्बर का विरोध करेंगे हम।
विभत्स परिस्थिति लेन देन की
जड़ से इसको काटेंगे हम।

दिन के उजियारे में ब्याह करें
भीड़ एकत्रित करें न हम।
सामुहिक विवाह प्रोत्साहन देकर
जागृति घर घर लाएंगे हम।

बेटी की शादी के वक्त ही
दहेज का रोना नहीं रोयेंगे हम।
इस दानव को भूले से भी अपने
बेटे की शादी में न बुलाएंगे हम।

प्रेम का पलड़ा रहेगा भारी
धन से तुलना ना करेंगे हम।
कुप्रथा का अंत करना है तो
अपने घर से शुरुआत करेंगे हम।।

'सुचिसंदीप' सुचिताअग्रवाल
तिनसुकिया,असम

मुक्त कविता,"तू कहे अगर तो"


तू कहे अगर तो
तेरे आँचल को छोड़
भारत माँ का दामन थाम लूँ
माँ मैं तुझसे ज्यादा
जय भारत माँ नाम लूँ।

तू कहे अगर तो
सिर्फ इस घर की ही नहीं
पूरे देश की जिम्मेदारी उठाऊँ।
तुम्हारे पिलाये दूध की ताकत से
इस मिट्टी की शान बढाऊँ।

तू कहे अगर तो
दुश्मन के गले की फांस बनकर
मौत से भयभीत करूँ।
नापाक इरादों, मनसूबों पर
अपने कृत्यों से पानी भरूँ।

तू कहे अगर तो
इस धरती को माँ
हर पल दुल्हन सी सजाऊँ मैं
तेरी कोख से जन्मा हूँ लेकिन
देश का लाल कहलाऊँ मैं।

डॉ.सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

मुक्त कविता,"गर्मी तो मेहमान हमारी"


है गर्मी तो मेहमान हमारी,
कभी कभी चली आती है।
ज्यादा मन नहीं लगता उसका,
दुम दबा चली जाती है।

बारिश की रिमझिम बूंदों ने,
अपना डेरा बना लिया है।
सर्दी है अंतरंग सहेली,
गर्मी नहीं सुहाती है।

यौवन रूप प्रकृति का,
सदाबहार ही रहता है।
पत्तों पर बारिश की बूंदें,
आकर्षित सबको करती है।

देख सुहाना रूप यहाँ का,
गर्मी का मन मचल उठता है।
सूरज दादा को साथ मे लेकर,
हम पर रोब जमाने आ जाती है।

बारिश की किचकिचाहट से,
जब हम विचलित हो उठते हैं।
घर की साफ सफाई खातिर,
गर्मी की याद हमें आती है।

गर्मी ने पूरे देश में जब,
हाहाकार मचा रखा है।
असम की धरती हमको तब,
स्वर्ग सी नजर आती है।


सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया(असम)

कुंडलियाँ,"गर्मी"


आयी गरमी लू बहे, गरम गरम माहौल
बच्चे पल पल में रहे, कपड़े सारे खोल।
कपड़े  सारे खोल, नाचते मस्ती में सब
ठंडी कुल्फी खाय, मांगते शर्बत ये अब
हुए सभी बेहाल, मगर छुट्टियाँ भी भायी
कितने दिनों के बाद, हाय गरमी यह आयी।



सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

मुक्त कविता," मुस्कुराना याद है"


दस्तक हौले से दी तुमने
दिल के दरवाजे खुले तभी
कुछ असमंजस में तुम भी थे
कुछ घबराई मैं भी थी
उस प्रेम की पहली धड़कन का
वो मुस्कुराना याद हैं।

खामोशी में झूमता लम्हा था
सर्द हवाएं , माथे पर पसीना था
कभी झोंकों से बदन में सरसराहट
कभी स्पर्श तुम्हारे हाथों का था
शर्मा कर हमारी नजरों का
वो मुस्कुराना याद है।

खिला उपवन तुमसे था मेरा
बस तुम्ही शाम और तुम्ही सवेरा
जीवन की दौलत तुझमें ही पाई
जब कसम एक होने की खाई
बाहों में खुशी को भरकर के
वो मुस्कुराना याद हैं।

डॉ(मानद)सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'

Tuesday, November 5, 2019

लावणी छन्द,'"नहीं एक भी मम्मी वाला,मम्मी तुझमें गुण कोई"





नहीं एक भी मम्मी वाला,मम्मी तुझमें गुण कोई,
गुस्सा करके हमें डाँटकर,तू भी साथ सदा रोई।

अपने मन की बात बेझिझक,तुमको हम बतलाते हैं,
नहीं लगा भय तेरा हमको,ना तुझसे कतराते हैं।
जाग रहे हैं बच्चे लेकिन तू हरदम जल्दी सोई।
नहीं एक भी मम्मी वाला,मम्मी तुझमें गुण कोई।

हम बच्चों के कपड़े पहने,जूते तू पहना करती,
जैसे पापा से हम डरते,वैसे ही तू भी डरती।
कभी-कभी मोबाइल में भी,तू हमसे ज्यादा खोई।
नहीं एक भी मम्मी वाला,मम्मी तुझमें गुण कोई।

मैग्गी पिज़्ज़ा बर्गर इडली,सारे मिलकर खाते हैं,
हमसे छोटी तुम लगती हो,जब होटल हम जाते हैं,
सैर सपाटा हँसी ठहाका,तू भी साथ सदा होई,
नहीं एक भी मम्मी वाला,मम्मी तुझमें गुण कोई

सबसे प्यारा दोस्त हमारा,माँ तुझमें ही दिखता है,
ऐसी किस्मत ऊपर वाला,फुर्सत में ही लिखता है,
तुमसे अच्छा और जगत में,लगा नहीं हमको कोई,
नहीं एक भी मम्मी वाला,मम्मी तुझमें गुण कोई

#स्वरचित
डॉ.(मानद)सुचिता अग्रवाल'सुचिसंदीप'

Monday, November 4, 2019

गीत,'देशभक्ति'

विष्णुपद छंद [सम मात्रिक]

   
इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।

वही खून फिर से दौड़े जो,भगतसिंह में था,
नहीं देश से बढ़कर दूजा, भाव हृदय में था,
प्रबल भावना देशभक्ति की,नेताजी जैसी,
इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।

वही रूप सौंदर्य वही हो,सोच वही जागे,
प्राणों से प्यारी भारत की,धरती ही लागे,
रानी लक्ष्मी रानी दुर्गा सुंदर थी कैसी,
इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।

गाँधीजी की राह अहिंसा,खादी पहनावा,
सच्चाई पे चलकर छोड़ा,झूठा बहकावा,
आने वाला कल सँवरे बस,डगर चुनो ऐसी,
इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।

वीर शिवाजी अरु प्रताप का, बल छुप गया कहाँ,
बनें उन्ही सी संतानें भी, शेर समान यहाँ
आँख उठाए जो भारत पर,ऐसी की तैसी,
इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।।

🖋#स्वरचित
शुद्धचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप

(विधान-विधान – 26 मात्रा, 16,10 पर यति, अंत में वाचिक भार 2 l कुल चार चरण, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत )

Saturday, November 2, 2019

मनहरण घनाक्षरी,'श्री मद्भगवत गीता'


शोकग्रस्त पार्थ हुये,
अस्त्र-शस्त्र को न छुये,
श्याम सखा मेरे प्यारे,
मार्ग तो सुझाईये।

थर-थर काँप रहा,
बन्धुओं को भाँप रहा,
जल रही आग हिय,
उसे तो बुझाइये।

सेनाओं के बीच श्याम,
मित्र को देते हैं ज्ञान,
धर्म की पुकार जान,
युद्ध अपनाइये।

कर्म की प्रधानता है,
धर्म की महानता है,
मोह जाल त्याग कर,
अस्त्र भी उठाइये।

विधि का विधान जान,
स्वयं को निमित्त मान,
राग, द्वेष, काम छोड़,
समता ही धारिये।

भक्तों के उद्धार हेतु,
दुष्टों के संहार हेतु,
होता हूँ प्रकट में ही,
पार्थ शोक हारिये।

भ्रम सब छोड़ सखा
मोहमाया तोड़ सखा,
मुक्त तुम्हें कर दूँगा,
जीवन सुधारिये।

दिव्य रूप देख प्रभु,
नष्ट हुआ मोह प्रभु,
आपकी शरण हूँ मैं,
युध्द ललकारिये।

डॉ शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

मुक्त कविता,'चल उड़ पंछी'

ना जानू मैं हिंदु- मुस्लिम,
ना जानू सिक्ख -ईसाई,
दाने कोई देता है तो,
करता कोई पानी की भरपाई।
चल उड़ पंछी निर्भय होकर
तुझे आजादी रास आयी।।

नहीं हवा का कोई मजहब,
फसल पानी पाकर लहराई,
जाति पाँति के हिस्सों में बंटकर,
क्यूँ न मानवता लज्जायी?
चल उड़ पंछी निर्भय होकर
तुझे आजादी रास आयी।।

बुद्धिहीन और मूक होकर भी,
कहाँ हमने कभी की है लड़ाई?
डाल डाल और पात पात की
सदा हमने शोभा ही बढ़ाई।
चल उड़ पंछी निर्भय होकर
तुझे आजादी रास आयी।

छोड़ दे मानव अब तू लड़ना,
खूनी होली जो खेली और खिलाई।
एक सुत्र में बंधकर तो देखो,
मानव जीवन की चिर सच्चाई।
चल उड़ पंछी निर्भय होकर,
तुझे आजादी रास आयी।

रे पागल! तुम खो दोगे वो,
जो दुनिया तुमने ही है बसाई,
मिट जाएगा कुछ न रहेगा,
जागो नयी सुबह है आयी।
चल उड़ पंछी निर्भय होकर
तुझे आजादी रास आयी।।

ना हिंदु ना मुस्लिम कोई,
सभी यहाँ है भाई भाई,
एक जिस्म और एक रक्त है,
फिर हममें कैसी ये लड़ाई?
चल उड़ पंछी साथ हमारे
हमें आजादी रास आयी

चल उड़ पंछी साथ हमारे
हमें आजादी रास आयी।।

डॉ. सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

मुक्त कविता,'एक चिट्ठी माँ के नाम'



नयी माँ आ गयी
माँ तेरे जाने के बाद।
पापा की गोद में
नए भाई ने ले ली मेरी जगह
तेरे जाने के बाद।
कुछ नहीं बदला माँ
अब भी खिलौने नए आते हैं,
कपडे रंग बिरंगे
पापा लाते हैं।
दिवाली के पटाखे
होली के रंग
छोटू और नई माँ
को लेकर संग।
अब भी पापा
वैसे ही घुमते हैं
सिर्फ स्कूटर पे
आगे खड़े होने की जगह
छोटू भाई ने ले ली
तेरे जाने के बाद।
तब तू दौड़ दौड़ कर
कभी गोद में अपनी मुझे बैठाकर
कौन खाया...कौन खाया
बिल्ली वाली कहानी सुनाकर
झट से खाना मुझे खिलाती थी।
तब मैं तुम्हें बहुत
तंग किया करता था।
अब राजा बेटा बन गया हूँ
खुद मांगकर खाना
नयी माँ से ले आता हूँ।
बिना शोर मचाये
चुपचाप खाकर
बर्तन भी धोकर
रख देता हूँ।
तुमने प्यार ने बिगाड़ रखा था
नयी माँ ने मुझे सुधार दिया
तेरे जाने के बाद।
पता है माँ??
नयी माँ बहुत अच्छी है
वो मुझे रोज
स्कूल जाने को भी नहीं कहती है
छोटू का काम करने के लिए
अक्सर मुझे घर पर ही रख लेती है
नयी साइकिल पर छोटू को बैठाकर
पीछे से धक्का देना मुझे
बहुत अच्छा लगता है।
कपडे सुखाने के लिए
जब छत पर जाता हूँ
कुछ देर छुप छुप कर
उड़ती पतंग को देखना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
जब नहीं पढ़ता था
तुम डांटा करती थी
पढ़ने बैठने पर डाँट पड़ती है
तेरे जाने के बाद।
रात का सन्नाटा
खामोश कमरा मेरा साथी है
माँ की लोरी, पापा की कहानी
अब कहाँ मुझे नींद दिलाती है।
सिसकियाँ भी अब तो
तकिये को मुँह पर रखकर लेता हूँ
रोने पर कोई भी अब
चुप होजा राजा बेटा
कहकर न गले लगायेगा
सुन लेगी मेरी आवाज तो
कल भूखा रहना पड़ जाएगा
पापा भी छोटू को चूमकर
दफ्तर चले जाते हैं
मैं भी घर पर रहता हूँ
अब वो अक्सर भूल जाते हैं।
मैं भी एक सितारा माँ
बन जाता तेरे साथ
क्यूँ नहीं मुझे भी
ले गयी अपने साथ?
गुस्सा आता है
तुम पर बहुत
तेरे जाने के बाद।

डॉ. सुचिता अग्रवाल ,'सुचिसंदीप'
 तिनसुकिया, असम

दोहा छन्द, "सेवा"


भ्रमर दोहा
विधा-
इस दोहे के चारों चरणों में 11वीं मात्रा लघु एवं शेष गुरु वर्ण रखना होता है।


वाणी देती वेदना,वाणी दे सम्मान।
सेवा वाणी से करें,दीनों को दें मान।।

सेवा ऐसी कीजिये,होती जो निस्वार्थ।
जो योगी हों भाव के,वो होते सिद्धार्थ।।

कोई पूजे देवता,कोई ये संसार।
जो सेवा को पूजते,वो पूजा का सार।।

सेवा के संकल्प से,पापी धोते पाप।
सारे कष्टों को हरे,कल्याणी ये जाप।।

चाबी सेवा की भरो,सोने की है खान।
लूटो सारे जोश से,पूँजी मोटी जान।।

#स्वरचित#मौलिक
डॉ.(मानद)सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम

Wednesday, October 30, 2019

मुक्तक, रिश्तों पर आधारित

सागर में अनमोल खजाना,जैसे होते मोती हैं,
जीवन संचालित जिससे है,वो तो प्रीत की ज्योति है।
जग के निर्माता ने जिसके,जी भर प्रीत भरी लहु में,
वो हर घर की बिटिया प्यारी,डोर जगत की होती है।

डॉ.सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप

Friday, October 25, 2019

कुकुभ छन्द, 'माँ लक्ष्मी वंदना'


चाँदी जैसी चमके काया, रूप निराला सोने सा।
धन की देवी माँ लक्ष्मी का, ताज चमकता हीरे सा।

जिस प्राणी पर कृपा बरसती, वैभव जीवन में पाये।
तर जाते जो भजते माँ को, सुख समृद्धि घर पर आये।

पावन यह उत्सव दीपों का,करते ध्यान सदा तेरा।
धनतेरस से पूजा करके, सब चाहे तेरा डेरा।

जगमग जब दीवाली आये,जीवन को चहकाती है।
माँ लक्ष्मी के शुभ कदमों से, आँगन को महकाती है

तेरे साये में सुख सारे, बिन तेरे अँधियारा है।
सुख-सुविधा की ठंडी छाया, लगता जीवन प्यारा है।

गोद सदा तेरी चाहें हम, वन्दन तुमको करते हैं।
कृपादायिनी सुखप्रदायिनी,शुचिता रूप निरखते हैं।

डॉ.सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

Thursday, October 24, 2019

मुक्त कविता, "मेरे उपवन की दो कलियाँ"


मेरे उपवन की दो कलियाँ,
खिल रही फूल सी सुन्दर वो ।
महका है जीवन उनसे ही,
है मुझे जान से प्यारी वो।

बहार जीवन में उनसे ही है,
गम सारे भुला देती है वो।
मधुर व्यवहार और मीठी वाणी,
बेटियाँ न्यारी प्यारी है वो।

घर की रौनक उनसे बढती,
खुशियों के गीत गाती है वो।
है दुःख की दवा दोनों के पास,
पल भर में हँसा देती है वो।

हो रहा समय व्यतीत ऐसे,
मानो पंख लगा उड़ रहा है वो।
मन सोच मेरा घबराता है अब,
किसी और की अमानत है वो।

हर संस्कार दे रही प्रेम से उनको,
अवगत हर सीख से हो रही वो।
जीवन की हर राह में रहे खुश,
हुनर सारे सीख रही है वो।

आत्मविश्वास और स्वावलंब की,
प्रतिमूर्ती नजर आती है वो।
आडम्बर ,दिखावा, दहेज की बू से,
मुरझा भी सकती है वो।

है जिसे भावनाओं की कदर,
उसे अपना सकती है वो।
है प्रेम पर यह दुनिया कायम,
यही विश्वास रखती है वो।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'

मुक्त कविता, 'नयी सोच नया सवेरा"

खुली पलक में ख्वाब बुनो,
और खुली आँख से ही देखो।
सपने चाँदनी रात में नहीं,
तप्त तपन  की किरणों में बुनो।

तपना पड़ता है सूरज की तरह,
ख्वाब पूरे यूँ ही नहीं होते।
निशा के आगोश में,
सपनों के घरौंदे नहीं होते।

आगे बढ़ो बढ़ते चलो,
कोशिश करने वाले घायल नहीं होते।
कामयाबी के शिखर  पर पहुंचने वाले,
दिल से कभी कायर नहीं होते।

जागते रहो कर्म करते रहो,
देखो न सपने बस सोते सोते।
प्रेरणा किसी को बना स्वयं तुम,
उदाहरण बन जाओ जाते जाते।

कर लो हौसलों को बुलन्द,
आएगी कामयाबी परचम लहराते।
समय को स्वर्ण सा कीमती समझो,
खर्च करो उसे डरते डरते।

जहाँ चाह नहीं वहाँ राह नहीं,
करो कामना सोते जागते।
मर न जाओ यूँ ही कहीं,
गठरी निराशा की ढोते ढोते।

अमर हुए हैं नाम जिनके,
वे भी थे इंसान हमारे जैसे।
जो लक्ष्य से कभी भटके नहीं,
किये मुकाम हासिल कैसे कैसे।

चाहें तो हम और आप,
दुनिया में क्या है जो नहीं कर सकते।
ला विचारों में बदलाव कर्म करो,
लक्ष्य करो तैयार समय रहते रहते।

यूँ ही नहीं ये अमोल जिन्दगी,
व्यर्थ गँवानी बस रोते रोते।
नयी सोच और नयी सुबह का,
करलो संकल्प अब हँसते हँसते।

डॉ.(मानद)  सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,आसाम

गीत, '"गीत प्रणय के गाती हूँ"

कुकुभ छंद, "मेरा मन"

जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।
खुशियाँ लेकर आये जो क्षण, फिर उनको जी जाती हूँ।।

यादों की खुश्बू भीनी सी, बचपन उड़ती परियों सा।
यौवन चंचल भँवरे जैसा, गुड़ियों की ओढ़नियों सा।।
पलकें मंद-मंद मुस्काकर, पल-पल में झपकाती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।।

कहने को तो प्रौढ़ हुई पर, मन भोला सा बच्चा है।
चाहे दुनिया झूठी ही हो, खुश होना तो सच्चा है।।
आशाओं के दीप लिये फिर, मैं नवजीवन पाती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।।

माना अब मिलना मुश्किल है, कुछ साथी जो मेरे थे।
वो ही दिन के बने उजाले, वो सपनों को घेरे थे।।
गाँवों से शहरों की दूरी, पल में तय कर आती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती
हूँ।।

प्रेम डोर में सब रिश्तों की, माला एक पिरोती हूँ।
नेहल सपनों की बाहों में, हर्षित मन से सोती हूँ।।
मैं अपनी खुशियों का परचम, प्रतिदिन ही फहराती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।।

शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

गीत, 'भँवर'

*ताटंक छन्द*

बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पाई है,
राहों में अपनी दलदल की,खोदी मैंने खाई है।

कच्ची माटी के ढेले सा,मन कोमल सा मेरा था,
जिधर मिले बल उधर लुढ़कता,अपविकसित सा घेरा था।
पकते-पकते माटी भीतर,दूषित हवा ले आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।

ईर्ष्या,निंदा,क्रोध,लालसा,विकसित हर पल होते हैं,
बोझ तले जो इनके दबते,मानवता को खोते हैं।
त्यागो इनको आज अभी से,एक यही भरपायी है।
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।

सोचो मानव जीवन पाकर,क्या खोया क्या पाया है?
कैसे-कैसे गुण आने थे,देखो क्या-क्या आया है।
बंद आँख थी आज खुली है,खुलते ही भर आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।

हे प्रभु इतना ही बस चाहूँ, अवगुण अपने धो डालूँ,
एक दोष के बदले दो गुण,अब जीवन में मैं पालूं।
'शुचि' जीवन नैया को दर पर,लेकर तेरे आयी है,
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।।

डॉ.(मानद) सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम

Monday, October 21, 2019

कुंडलियाँ छन्द

हास्य कुंडलिया


(1)

सारे घर के लोग हम, निकले घर से आज

टाटा गाड़ी साथ ले, निपटा कर सब काज।

निपटा कर सब काज, मौज मस्ती थी छाई

तभी हुआ व्यवधान, एक ट्रक थी टकराई।

ट्रक पे लिखा पढ़ हाय, दिखे दिन में ही तारे

'मिलेंगे कल फिर बाय', हो गए घायल सारे।।



(2)

खोया खोया चाँद था, सुखद मिलन की रात

शीतल मन्द बयार थी, रिमझिम सी बरसात।

रिमझिम सी बरसात, प्रेम की अगन लगाये

जोड़ा बैठा साथ, बात की आस लगाये।

गूंगा वर सकुचाय, गोद में उसकी सोया

बहरी दुल्हन पाय, चैन जीवन का खोया।



(3)

गौरी बैठी आड़ में, ओढ़ दुप्पटा  लाल

दूरबीन से देखकर, होवे मालामाल

होवे मालामाल, दौड़ जंगल में भागा

पीछे कुत्ते चार, हांपने मजनू लागा

हांडी गोल मटोल, नहीं कोई भी छोरी

हरित खेत लहराय, खेत की थी वो गौरी।।



(4)

रोटी बोली साग से, सुनो व्यथा भरतार

गूंथ गूंथ बेलन रखे, मारे नित नर- नार।

मारे नित नर -नार, पीड़ सब सह लेती हूं

खाकर भी बिसराय, तभी मैं रो पड़ती हूँ।

पिज़्ज़ा बर्गर खाय, करेंगे बुद्धि मोटी

पड़ेंगे जब बिमार, याद तब आये रोटी।



(5)

फूफा-जीजा साथ में, दूर खड़े मुख मोड़

नया जवाई आ गया, कौन करे अब कोड़।

कौन करे अब कोड़, आग मन में लगती है,

राजा साडू आज, उसे आंखें तकती है।

रगड़ रहा ससुराल, समझ हमको अब लूफा

हुए पुरातन वस्त्र, रो रहे जीजा-फूफा।।


 (6)         

बहना तुमसे ही कहूँ, अपने हिय की बात

जीजा तेरा कवि बना, बोले सारी रात

बोले सारी रात, नींद में कविता गाये

भृकुटी अपनी तान, वीर रस गान सुनाये

प्रकट करे आभार, गजब ढाता यह कहना

धरकर मेरा हाथ, कहे आभारी बहना।।
   

विविध कुंडलिया

   (1)

गीता पुस्तक ज्ञान की, भवसागर तर जाय

जनम जनम के फेर से, पढ़कर पार लगाय।

पढ़कर पार लगाय, सफल जीवन हो जाये,

मानव सद्गति होय, धाम प्रभु का ही पाये।

जो समझे यह गूढ़, जगत को उसने जीता,

'शुचि' मन सुन्दर धाम, राह जिसकी है गीता।।


(2)

गंगा मैया आपकी,शरण पड़े नर नार

पावन मन निर्मल करो, काटो द्वेष विकार।

काटो द्वेष विकार, प्रेम की अलख जगादो

करो पाप संहार, हमें भवपार लगा दो।

मैल दिलों के धोय, सदा मन रखना चंगा

विनती बारम्बार,जगत जननी माँ गंगा।

 (3)

पाया इस संसार में, छल, माया का जाल

नये नये पकवान से, सजा हुआ सा थाल।

सजा हुआ सा थाल, प्रलोभन कई लुभाते

कुछ नहिं सकें पचाय, रात दिन फिर भी खाते।

जाना सब कुछ छोड़, सत्य को क्यूँ बिसराया?

सत् चित् अरु आनन्द इसी जग भीतर पाया।

(4)

आये जीवन में खुशी,  द्विगुणित  अबकी साल

सुख समृद्धि धन लाभ से, होवें मालामाल।।

होवें मालामाल, सभी सत पथ पर चलकर।

मिट जाए हर कष्ट,रहें हम प्रेम से मिलकर।।

खुशियों का भण्डार, यहाँ जन-जन हर्षाये।

मंगल होवे काज,सौम्यता घर-घर आये।


 (5)

श्यामा तेरे रूप का, मनन करूँ दिन रात

सगुण रूप चितचोर से, मन की करती बात।

मन की करती बात, श्याम ही राह दिखाते

जीवन का हर गूढ़, बैठ कर पास सिखाते।

मन में है विश्वास, नाथ जग के हैं रामा

'शुचिता'जीवन सार, प्रेम सागर हैं श्यामा।

 (6)

कृष्णा कृष्णा बोलिये, चाहे दिन  हो रात

खोल हृदय की पोटली, उनसे करिये बात

उनसे करिये बात सफल जीवन हो जाये

छोड़ेंगे नहि हाथ वही भवपार लगाये

सुख सारे मिल जाय मिटेगी सारी तृष्णा

सब देवों के देव जगत के पालक कृष्णा।

(7)

नेता निकले माँगने, लोगों से अब वोट।

सड़क मरम्मत हो रही, वरना लगते सोट।

वरना लगते सोट,चुनावी आफत आई।

पाँच साल के बाद, निकलती सभी मलाई।

जीत अगर मिल जाय, छुपेंगे बनकर  प्रेता।

फिर सत्ता मिल जाय, योजना करते नेता।


 (8)

मानव जीवन है मिला, सत्कर्मों के बाद

पावन पाकर ये बने, मानवता की खाद

मानवता की खाद, खिलेगा उपवन प्यारा

इंसानों में श्रेष्ठ, बनेगा जीवन न्यारा

मानवता का गूढ़, समझ नहि पाते दानव

अपनाते कर जोड़, वही कहलाते मानव।

(9)

माटी शुचि इंसानियत,करो लेप नर नार

आत्मचेतना का करे, अद्भुत यह श्रृंगार

अद्भुत यह श्रृंगार, श्रेष्ठ मानव बन जाता

देवों का प्रिय रूप, अलौकिक जीवन पाता

जो जाती है साथ, कमाई वो यह खाटी

है खुशियों की खान, लगा मानवता माटी


(10)

आया सूरज साथ ले, खुशियों की सौगात।

शरद छुपा फिर आड़ में, दिनकर ने दी मात।

दिनकर ने दी मात, लगे धरती यह प्यारी।

हरित खेत लहराय, धरा की आभा न्यारी।

शरद सुहानी भोर, गगन है मन को भाया ।

कोयल छेड़े तान,  झूम के पपिहा आया।

  (11)

बाला के अस्तित्व की, रक्षा करना नार।

गर्भपात औजार से, मत देना तुम मार।

मत देना तुम मार, जगाना ममता अपनी।

करके निष्ठुर पाप, झूठ है माला जपनी।

नारी कोख महान,पाप यह टीका काला।

मूँक रहे निरुपाय, न्याय माँगे हर बाला।।


 (12)

माया इस संसार की, समझ सके नहि कोय

लोभ मोह ममता भरी, लाख प्रलोभन होय

लाख प्रलोभन होय, होड़ मचती है भारी

अँधों की है भीड़, भागती दुनिया सारी

बेच दिया ईमान, बेचती नारी काया

डूब रहा इंसान, डुबाती देखो माया।।

(13)

योगा के अभ्यास से, रोग मुक्त हो जाय।

मन सुंदर तन भी खिले, पहला सुख वह पाय।

पहला सुख वह पाय, निरोगी काया ऐसी।

सावन की बौछार, सुखद होती है जैसी।

अब तो मानव जाग ,अभी तक दुख क्यों भोगा?

शुरू करो मिल साथ, आज से करना योगा।।

(14)

अपनी भूलों का करे,जो जन पश्चाताप।

कटते उनके ही सदा,जीवन के संताप।।

जीवन के संताप,डगर में रोड़े होते।

सुख का हम अभिप्राय,भूलवश क्यूँ है खोते?

निंदा की लत छोड़,प्रेम की माला जपनी।

औरों में गुण देख,भूल बस देखो अपनी।।

(15)

ऐसी धार बहाइये , पापी मन बह जाय,

सुंदरतम संसार की, मूरत मन को भाय।

मूरत मन को भाय ,सफल जीवन ये करलें,

मानवता से प्रेम, प्रीत से झोली भरलें।

'शुचि' तय साँस वियोग, आस इस जग से कैसी?

छोड़ सकें जंजाल,भीख माँ दे दो ऐसी।

(16)

तरसे कोई मेघ तो, तरसे कोई धूप।
बाढ़ डाकनी आ गयी, इंद्र हुए है कूप।
इंद्र हुए हैं कूप,असम की जनता रोये।
पानी चारों ओर, बड़ी चिंता में खोये।
सूखा राजस्थान नहीं क्यूँ जाकर बरसे?
पड़ा हुआ आकाल,वहाँ की जनता तरसे।

(17)


मानव ने फैला दिया,सकल संतुलन दोष।
हुआ भूमि,जल,वायु का,ध्वस्त धरा उद्घोष।
ध्वस्त धरा उद्घोष, प्रदूषण मत फैलाओ।
समतोलन सिद्धांत,प्रगति पथ पर अपनाओ।
हुआ अंत शुरुआत,क्रूरता छोड़ो दानव
बचा एक उपचार,बढ़ाओ पौधे मानव।

(18)
सबकी हो यह भावना,स्वस्थ हमारा देश।
ऊर्जा से भरपूर है,भारत का परिवेश।
भारत का परिवेश,सुखद जीवन है देता,
रोगों को क्षण में,चमत्कृत हो हर लेता।
रिपु-रण की लघु चाल,'करोना' झूठी भभकी।
प्रबल हमारी सोच,करेगी रक्षा सबकी।

(19)

राधा पूछे श्याम से,मानव का क्या हाल?
पूज रहे सब क्यूँ हमें,होकर के बेहाल?
होकर के बेहाल,मौत से डरते देखा,
बीच भँवर कट जाय,जीव की जीवन रेखा।
कोरोना है नाम,राक्षसी आयी बाधा,
कृष्ण करे संहार,चलो धरती पर राधा।


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम

● कुण्डलिया छंद विधान ●

कुंडलिया एक मात्रिक छंद है। यह एक दोहा और एक रोला के मेल से बनता है। इसके प्रथम दो चरण दोहा के होते हैं और बाद के चार चरण रोला छंद के होते हैं। इस प्रकार कुंडलिया छह चरणों में लिखा जाता है और इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं, किन्तु इनका क्रम सभी चरणों में समान नहीं होता। दोहा के प्रथम एवं तृतीय चरण में जहाँ 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं, वहीं रोला में यह क्रम दोहे से उलट हो जाता है, अर्थात प्रथम व तृतीय चरण में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। दोहे में यति पदांत के अलावा 13वीं मात्रा पर होती है और रोला में 11वीं मात्रा पर।

कुंडलिया रचते समय दोहा और रोला के नियमों का यथावत पालन किया जाता है। कुंडलिया छंद के दूसरे चरण का उत्तरार्ध (दोहे का चौथा चरण) तीसरे चरण का पूर्वाध (प्रथम अर्धरोला का प्रथम चरण) होता है। इस छंद की विशेष बात यह है कि इसका प्रारम्भ जिस शब्द या शब्द समूह से किया जाता है, अंत भी उसी शब्द या शब्द समूह से होता है। कुंडलिया के रोला वाले चरणों का अंत दो गुरु(22) या एक गुरु दो लघु(211) या दो लघु एक गुरु(112) अथवा चार लघु(1111) मात्राओं से होना अनिवार्य है।

*रोला में यति पूर्व 21 (गुरु लघु) तथा यति पश्चात त्रिकल आना चाहिए*

Friday, October 18, 2019

मुक्त कविता,"पहचानिये अपनी प्रतिभा"

सामने है मंजिल फिर भी दिखाई नहीं पड़ती
रुके रुके से है कदम क्यूं राहें आगे नहीं बढ़ती।

प्रतिभा है अगर आपमें क्यूं उजागर नहीं करते
संकोची बनकर कब तक छुपते रहेंगे डरते डरते।

हर कला अपने आप में सर्वोत्तम होती है
न ही कोई ज्यादा तो कोई कम होती है।

अपने आप को संकोचवश जकड़ कर न रखिये
दो कदम हर वक़्त ज़माने के साथ बढाए रखिये।

यह न भूलिए की कोई भी बड़ा बनकर नहीं आता है
अपने हुनर को सामने लाकर ही कामयाब बन पाता है।

चला गया है जो वक़्त उसकी फिक्र मत कीजिये
आने वाला कल अपने हाथों से न निकलने दीजिये।

शुरू करदो काम अंजाम की परवाह छोड़ दो
आपको सिर्फ कर दिखाना है आगे वक़्त पर छोड़ दो।

 डॉ.सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
      तिनसुकिया,असम
"प्रथम काव्य संग्रह 'दर्पण' में प्रकाशित"
7.7.1992

गीत,'जिस घर मात-पिता खुश रहते'

(विधा-लावणी छन्द, गीत)

पूजा करने प्रतिमाओं की,हम मन्दिर में जाते हैं।
जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते हैं।

असर दुआ में इतना इनकी,बाधाएँ टल जाती है।
कदमों में खुशियाँ दुनिया की सारी चलकर आती है।
पालन करने स्वयं विधाता घर में ही बस जाते हैं।
जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते हैं।।

इस जीवन में कर्ज कभी भी चुका नहीं जिनका सकते।
बच्चों के सारे ही सपने जिनकी आँखों में पलते।
दुख से लड़कर बच्चों के हिस्से में खुशियाँ लाते हैं।
जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते
हैं।।

मुट्ठी में दुनिया की सारी दौलत आ ही जाती है।
जब तक ठंडी छाँव पिता की माँ ममता बरसाती है।
खुशकिस्मत होते जो इनका साथ अधिकतम पाते हैं।
जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते
हैं।।

#स्वरचित
डॉ.सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

Thursday, October 17, 2019

चौपाई छन्द,'करवा चौथ'

 

कार्तिक चौथ घड़ी शुभ आयी। सकल सुहागन मन हर्षयी।।

पर्व पिया हित सभी मनाती। चंद्रोदय उपवास निभाती।।

करवे की  महिमा है भारी। सज-धज कर पूजे हर नारी।।

सदा सुहागन का वर हिय में। ईश्वर दिखते अपने पिय में।।

जीवनधन पिय को ही माना। जनम-जनम तक साथ निभाना।।

कर सौलह श्रृंगार लुभाती। बाधाओं को दूर भगाती।।

माँग भरी सिंदूर बताती। पिया हमारा ताज जताती।।

बुरी नजर को दूर भगाती। काजल-टीका नार लगाती।।

गजरे की खुशबू से महके। घर-आँगन खुशियों से चहके।।

सुख-दुख के साथी बन जीना। कहता मुँदरी जड़ा नगीना।।

साड़ी की शोभा है न्यारी। लगती सबसे उसमें प्यारी।।

बिछिया पायल जोड़े ऐसे। सात जनम के साथी जैसे।।

प्रथा पुरानी सदियों से है। रहती लक्ष्मी नारी में है।।

नारी शोभा घर की होती। मिटकर भी सम्मान न खोती।।

चाहे स्नेह सदा अपनों से। जाना नारी के सपनों से।।

प्रेम भरा संदेशा देता। पर्व दुखों को है हर लेता।।

उर अति प्रेम पिरोये गहने। सारी बहनें मिलकर पहने।।

होगा चाँद गगन पर जब तक। करवा चौथ मनेगी तब तक।।


डॉ.(मानद)सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

चौपाई छंद - विधान

चौपाई 16 मात्रा का बहुत ही व्यापक छंद है। यह चार चरणों का सममात्रिक छंद है। इसके एक चरण में आठ से सोलह वर्ण तक हो सकते हैं। दो दो चरण समतुकांत होते हैं। चरणान्त गुरु या दो लघु से होना आवश्यक है।
चौपाई छंद चौकल और अठकल के मेल से बनती  है। चार चौकल, दो अठकल या एक अठकल और  दो चौकल किसी भी क्रम में हो सकते हैं। समस्त संभावनाएं निम्न हैं।
4-4-4-4, 8-8, 4-4-8, 4-8-4, 8-4-4
कल निर्वहन केवल समकल शब्द द्विकल, चतुष्कल, षटकल से संभव है। अतः एकल या त्रिकल का प्रयोग करें तो उसके तुरन्त बाद विषम कल शब्द रख समकल बना लें। जैसे 3+3 या 3+1 इत्यादि। चौकल और अठकल के नियम निम्न प्रकार हैं जिनका पालन अत्यंत आवश्यक है।
चौकल:- (1) प्रथम मात्रा पर शब्द का समाप्त होना वर्जित है। 'करो न' सही है जबकि 'न करो' गलत है।
(2) चौकल में पूरित जगण जैसे सरोज, महीप, विचार जैसे शब्द वर्जित हैं।

अठकल:- (1) प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द समाप्त होना वर्जित है। 'राम कृपा हो' सही है जबकि 'हो राम कृपा' गलत है क्योंकि राम शब्द पंचम मात्रा पर समाप्त हो रहा है। यह ज्ञातव्य है कि 'हो राम कृपा' में विषम के बाद विषम शब्द पड़ रहा है फिर भी लय बाधित है।
(2) 1-4 और 5-8 मात्रा पर पूरित जगण शब्द नहीं आ सकता।
(3) अठकल का अंत गुरु या दो लघु से होना आवश्यक है।

जगण प्रयोग:-
(1) चौकल की प्रथम और अठकल की प्रथम और पंचम मात्रा से पूरित जगण शब्द प्रारम्भ नहीं हो सकता।
(2) चौकल की द्वितीय मात्रा से जगण शब्द के प्रारम्भ होने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि प्रथम मात्रा पर शब्द का समाप्त होना वर्जित है।
(3) चौकल की तृतीय और चतुर्थ मात्रा से जगण शब्द प्रारम्भ हो सकता है।

किसी भी गंभीर सृजक का चौपाई पर अधिकार होना अत्यंत आवश्यक है। आल्हा, ताटंक, लावणी, सार, सरसी इत्यादि प्रमुख छन्दों का आधार चौपाई ही है क्योंकि प्रथम यति की 16 मात्रा चौपाई ही है।

Friday, September 27, 2019

दोहे,आसाम प्रदेश पर आधारित


ब्रह्मपुत्र की गोद में,बसा हुआ आसाम।
प्रथम किरण रवि की पड़े,वो कामाख्या धाम।।

हरे-हरे बागान से,उन्नति करे प्रदेश।
खिला प्रकृति सौंदर्य से,आसामी परिवेश।।

धरती शंकरदेव की,लाचित का ये देश।
कनकलता की वीरता,ऐसा असम प्रदेश।।

ऐरी मूंगा पाट का,होता है उद्योग।
सबसे उत्तम चाय का,बना हुआ संयोग।।

हरित घने बागान में,कोमल-कोमल हाथ।
तोड़ रहीं नवयौवना,मिलकर पत्ते साथ।।

हिमा दास ने रच दिया,एक नया इतिहास।
विश्व विजयिता धाविका,बनी हिन्द की आस।।

#स्वरचित#मौलिक
सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, आसाम
Suchisandeep2010@gmail.com

Thursday, September 12, 2019

हास्य रचनाएँ,"कविसम्मेलन"

इक दिन मैं बोली पतिवर से,
थोड़े भय और थोड़े डर से।
सुनो हमारी बात सुनोगे,
कविसम्मेलन में जाने दोगे?
लोगों की वहाँ भीड़ जमेगी,
वाह वाही मुझको भी मिलेगी।
एक बार आँखें मोटी कर,
पति ने देखा तान भृकुटि कर।
काम करो मन से तुम अपने,
बच्चों के पूरे करने सपने।
काम काज जिनको नहीं होते,
वो आखिर कवि ही बन जाते।
कवि बेतुकी बातों को सजाते,
समय हमारा वो है गँवाते।
नारी सुलभ हथियार चले थे,
झर झर आँसू गालों पर थे।
रोकर तुम क्या दिखलाती हो,
जाओ, क्यूँ पूछा करती हो?
साड़ी पहन एक बैग लगाकर,
चली स्वरचित कुछ पुस्तक लेकर।
सोचा नाम मेरा भी होगा,
ओटोग्राफ देना भी होगा।
कलम साथ लेना ना भूली,
देखा शीशा और मैं झूमी।
बड़े बड़े दिग्गज कविवर थे,
श्री कमल किशोरजी संचालक थे।
राजवीर चोले में जँचते,
तरुण सामने ही बैठे थे।
उमी, माया सौम्य सरल सी,
छाया, सौम्या कवियित्री सी।
किशन लालजी निरीक्षण करते,
मनोज जी लगे थोड़े डरते।
ऋतुजी के हाथ में पुस्तक,
इंदु शर्मा ने दी दस्तक।
सरोज,प्रतिभा तैयार लगी थी,
रामप्रसाद की
जाँ अटकी थी।
बिजेंद्र सरल मुस्काये थोड़े,
शैलेन्द्र जी ने दौड़ाए घोड़े।
एक एक पर नजर घुमाई,
कहाँ बैठे हैं जिद्दी भाई?
देखा वर्दी में आ पहुँचा,
अनुशासन का हाथ में पर्चा।
डरते डरते मैं मुस्काई,
बासुदेव संग कुर्सी पाई।
कोई कड़ककर कोई दबकर,
प्रस्तुति कविवर की मंच पर।
गला सूख मेरा पिंजर हो गया,
पीकर पानी पेट फूल गया।
शौचालय पर नजरें गढ़ी थी,
कविता की अब किसको पड़ी थी।
नाम मेरा कई बार बुलाया,
अनुपस्थित कह संजीत आया।
दूर छुपी सब देख रही थी,
चलो जान बची सोच रही थी।
अब तो नाम कभी ना लूँगी,
पति की बात सदा मानूँगी।
चुपके से घर आने निकली,
भानु जी की आँखें गुगली।
मंच पे मुझको खड़ा कर दिया,
शान में मेरी भाषण रच दिया।
बोली मैं खुद से' सुचि कैसा डरना'
पकड़ो माइक नहीं है मरना।
गीत, गजल और छन्द, कविता,
सब पर भारी कवियित्री सुचिता
ताली की गड़गड़ इतनी जोर थी,
सपना टूटा एक नई भोर थी।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

मुक्त कविता,"मूक चीख"


शिशु का विकास नहीं हो रहा है
या जननी की सेहत पर
बुरा प्रभाव पड़ रहा है,
कानूनन जुर्म होने के बावजूद
इन बहानों की आड़ में,
मासूम शिशुओं का कोख में ही
कत्ल खुले आम हो रहा है।
"बच्ची डरी सहमी सी है
अहसास उसे भी हो गया
उसके सुरक्षित क्षेत्र पर
हमला हो रहा है।
दिल की धड़कन उसकी
जोरों से बढ़ने लगी,
कोख में ही
इस छोर से उस छोर तक
छटपटाती हुई सिकुड़ने लगी।
औजार बच्ची को ढूंढ ढूँढ कर
टुकड़े टुकड़े कर रहा है
पहले कमर फिर पैर
फिर सिर को
बड़ी निर्ममता से काट रहा है।"
चंद लम्हों में एक
निरपराध, निहत्थे जीव की
हत्या हो गयी।
फिर कभी न चहकने वाली
नन्ही सी जान
धरती पर पांव रखने से पहले ही
धरती में समा गई।
"क्या न्याय के अंधे देवता को
यह मूक चीख सुनाई नहीं देती?
क्यूँ हत्यारे माँ- बाप को
हत्या के जुर्म में
सजा नहीं होती?
अहिंसा का संदेश देने वाले,
बुद्ध , महावीर और गांधी की भूमि पर
यह जघन्य हिंसा
क्यों हो रही है?
स्वयं बच्ची की हत्या करके
क्यूँ हत्यारी माँ
मातृत्व का गला घोंट रही है?
जो आगोश में आने से पहले ही
कुचल दी जाती है।
यह प्रश्न मानव जाति से
हर वह मासूम कर रही है
"मूक चीख"
न्याय मांग रही है।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
("दर्पण")

मुक्त कविता,"हुई फिर देश में हिंसा"

"हुई फिर देश में हिंसा"


धधकती आग बरसी है सभी डरते नजर आये
हुई फिर देश में हिंसा लहू बहते नजर आये।

अहिंसा के पुजारी जो वही बेमौत मरते हैं
लगी ज्वाला दिलों में अब सभी कहते नजर आये।

इशारों पर भभक उठता शहर सारा वतन देखो
विषैले नाग सत्ता के हमें डसते नजर आये

खिलौने बन गए हैं हम चला व्यापार जोरों से
निलामी बढ़ रही शासक सभी बिकते नजर आये।

बुझी को फिर जलाते औरशोले भी है भड़काते
यही आतँक की शैली सभी रचते नजर आये।।

करे चित्कार मांगे न्याय जो निर्दोष थे बन्दे
बहे आँसू करे फरियाद वो डरते नजर आये।


लगा दो जोर सब अपना बुझादो आग के गोले
गिरो बन गाज दुश्मन पे सभी मरते नजर आये।


सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप",
तिनसुकिया,असम
("मन की बात")


Wednesday, August 21, 2019

मुक्त कविता,"प्रवाह"

सोचती हूँ मैँ कभी कभी
प्रवाह समय का बहाकर,
कहाँ से कहाँ ले आया।
न वो रास्ते है न मंजिल,
जीवन उन्हें बहुत दूर छोड़ आया।

कभी ऐसा भी था,
जब मेरा अस्तित्व,
तुम बिन संभव ही न था।
तुम भी जीवन बिन मेरे बिता दोगे,
तब यह सोचना असंभव ही था।

ख्यालों में तुम्हारे साथ दुनिया बसाना,
अपने सिमित दायरे में,
तुम्हे आसमान की तरह बसाना ।
यूँ न सोचा कभी भी,
अपने प्यार की कोई सीमा भी होगी,
समंदर से भी गहरे प्रेम की,
सूखे अकाल सी परिणिति भी होगी।

सोचती हूँ अब ये कभी कभी,
कैसे समय व्यतीत हुआ,
हर वो लम्हा,
हर वो दास्ताँ,
जो कभी जिंदगी थी मेरी,
अब धुंधली और अस्पष्ट छवि,
कुछ मधुर लम्हे,
बस एक यादगार बन कर रह गए।

तब जो एक अहम हिस्सा था मेरा,
आज उसके होने या न होने की अहमियत,
एक भूली बिसरी याद बनकर रह गयी।

ऐसा नहीं कि हमारी जिंदगी,
किसी एक पर ही शुरू,
और फिर उसी पर,
ख़त्म हो जाए।
यह हमारी सोच ही है जो,
किसी को अपना,
तो किसी को ,
पराया बना जाए।

एक प्यार ही सब कुछ नहीं,
और भी बहुत कुछ है,
सोचना पड़ता है जिनके वास्ते,
प्यार से भी बढ़कर,
बहुत कुछ है,
करने को हमारे वास्ते।

नाकामयाब होकर मौत ही नहीं,
और भी बहुत से है,
जीवन के रास्ते।
कभी मखमली तो कभी कंटीले,
कभी समतल तो कभी पथरीले,
कल को भुलाकर आज में,
डूब जाने के रास्ते।

जिंदगी हर पल परीक्षा है,
हुनर है बहुत से,
सीखें तो जीने के वास्ते,
हमारे वास्ते।

ऐसा नहीं कि आज हमें,
कोई ख़ुशी नहीं,
जिंदगी जैसे हम जी रहे,
वैसे जीना चाहते नहीं।

आज भी हम भरपूर जी रहें है,
अपने अतीत को भुलाकर,
वर्तमान को जी रहें हैं।

जो बीत गया सुहाना सफर था,
आने वाले कल को,
सुहाना बनाना ही कला है।
यही है जीवन,
जहाँ लोग मिलते हैं,
बिछड़ जाते हैं,
लेकिन....
कुछ पल भर साथ रहकर भी,
अपनी अमिट छाप,
जीवन भर के लिए,
छोड़ जाते हैं।

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
      तिनसुकिया

मुक्त कविता,"नारी सौंदर्य-वरदान या अभिशाप"

विधाता की कल्पनाशक्ति
शिल्पियों की कलाकृति
साहित्य और कवि की स्तुति
प्रेम का प्रेरणा स्त्रोत
नारी सौंदर्य
ईश्वर प्रदत्त वरदान है।

सृष्टि की जननी
ममता की देवी रमणी
सहनशीलता का प्रतीक
नारी सौंदर्य
स्वार्थी, लोलुप, विवेकहीन
पुरुष प्रदत्त अभिशाप है।

है मानव मन की विडंबना
सुप्रयास से सफलता न हो तो
दुष्प्रयासों की सेना साथ है
प्रेरित होकर अपराध कथाओं से
अपहरण , बलात्कार फिर हत्या
पुरुष के लिए मामूली सी बात है।

सौंदर्य बोध नारी को जिसने कराया
कभी गले से लगाया
तो कभी पैरों में गिराया
कभी रक्षक तो
कभी भक्षक बना
पुरुष ने ही
नारी सौंदर्य को
वरदान तो कभी
अभिशाप बनाया।।

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

Tuesday, August 20, 2019

मुक्त कविता"अहसास"

आगोश में लिपटी सी
बिखरी बिखरी जुल्फों सी
तुम्हारी गोद में सर छुपाये हुए
थोड़ी खुश तो थोड़ी गमगिन सी
एक अस्पष्ट सी झलक
अक्सर सामने आती है
शायद कोई भ्रम
या झूठा सा अहसास।
ख्यालों में मिलता है
एक झूठ मूठ का चेहरा
जो कभी मेरा था ही नहीं।
जब जब याद करती हूँ
तुम्हारा चेहरा
एक थकान सी
महसूस होती है।
सीने में छुपा रखी है
एक ऐसी तस्वीर
इतनी धुंधली अस्पष्ट
कि शायद दूसरा उसे
पहचान न सके।
लगता है दिल का कोई
मजबूत रिश्ता है इन ख्यालों से
तभी तो शनै शनै ख्यालों का
आना जाना लगा रहता है।
जानती हूँ ख्याल सिर्फ ख्याल होते हैं
फिर भी उनसे दूर जाना
या दिल से निकाल देना
हाथों में होता भी है और
शायद होता भी नहीं।
जब जब तुम्हारे पास होती हूँ
सारी स्मृतियाँ
स्प्ष्ट हो जाती है।
लब खामोश और मानो कोई
हवा का झोंका बदन में
सरसराहट कर जाता है।
तुम मेरी बेचैनी से
अंजान प्रतीत होते भी हो
और नहीं भी
कभी कभी यूँ लगता है
तुम कुछ कहना चाहते भी हो
और नहीं भी
जानती हूँ चाहकर भी
मैं या तुम
कुछ कह नहीं पायेंगे
यह सिर्फ और सिर्फ अहसास है
इसको शब्द हम दे नहीं पाएंगे।
दिल के हाथों यह
दुनिया मजबूर है
मैं और तुम ही क्या?
हर स्मृति हर सपना
स्वरूप नहीं पाता है।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,असम
(प्रथम काव्य संग्रह 'दर्पण' में प्रकाशित)

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