Saturday, November 9, 2019

गज़ल,' लिखना नहीं है आता

    (बहर- 221 2122 221 2122)
       
बातें कई है दिल में लिखना नहीं है आता
शब्दों से जो परे है कहना नहीं है आता।

हर गैर की मुसीबत अपनी सी लगती तुमको
अपना खयाल कुछ भी रखना नहीं है आता।

हर काम को किया है तुमने बड़ी वफ़ा से
थककर जरा सा आलस करना नहीं है आता।

अपनों से ज्यादा हरदम औरों के हित की सोची
मन आसमाँ से ऊंचा झुकना नहीं है आता।

तुम सख्त देखने में भीतर तरल नरम हो
चलते हो रौब से जब डरना नहीं है आता।

फैशन की दौड़ में तुम पीछे जरा ही रहते
अंधी कतार में यूं लगना नहीं है आता।

भूखे को देखलो तो खुद का निवाला दे दो
तकलीफ दूसरों की सहना नहीं है आता।

मुझको गुमान इतना तुमसे बंधा है जीवन
तुमसे जुदा जरा सा रहना नहीं है आता।

कमियां सभी में रहती तुझमें भी इक कमी है
मेरी लिखी गजल को सुनना नहीं है आता।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

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