है गर्मी तो मेहमान हमारी,
कभी कभी चली आती है।
ज्यादा मन नहीं लगता उसका,
दुम दबा चली जाती है।
बारिश की रिमझिम बूंदों ने,
अपना डेरा बना लिया है।
सर्दी है अंतरंग सहेली,
गर्मी नहीं सुहाती है।
यौवन रूप प्रकृति का,
सदाबहार ही रहता है।
पत्तों पर बारिश की बूंदें,
आकर्षित सबको करती है।
देख सुहाना रूप यहाँ का,
गर्मी का मन मचल उठता है।
सूरज दादा को साथ मे लेकर,
हम पर रोब जमाने आ जाती है।
बारिश की किचकिचाहट से,
जब हम विचलित हो उठते हैं।
घर की साफ सफाई खातिर,
गर्मी की याद हमें आती है।
गर्मी ने पूरे देश में जब,
हाहाकार मचा रखा है।
असम की धरती हमको तब,
स्वर्ग सी नजर आती है।
सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया(असम)
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