Sunday, December 12, 2021

कमंद छंद "परिवार"

 कमंद छंद 

"परिवार"


सबसे प्यारा है परिवार, जहाँ है खुशियाँ जग की सारी।

रहते मिलजुल हम सब साथ, यही है जीवन की फुलवारी।।

है जीवन का यह आधार, इसी ने रीति-नीति सिखलाई।

जीने की सब राहें नेक, इसी ने हमको है दिखलाई।।


आशाओं का उज्वल व्योम, उड़ानें लक्ष्यों की हम लेते।

अगर किसी में कम सामर्थ्य, सहारा मिलकर परिजन देते।।

विपदाओं की आये बाढ, हमारे काम स्वजन ही आते।

बीच भँवर  में अटकी नाव, सहायक बनते रिश्ते नाते।।


माँ की ममता ठंडी छाँव, बिछौना आँचल का कर डाले।

संतानों पर सब कुछ वार, पिता दुख सहकर भी घर पाले।।

दादा दादी ने संस्कार, सिखाये अनुभव कर के सारे।

भाई हो जब अपने साथ, अनेकों दुश्मन हमसे हारे।।


ये रिश्ते हैं प्रभु की देन, सँजोकर रखना धर्म हमारा।

इन्हें निभाना पहला कर्म, लुटादें तन, मन, धन हम सारा।।

आपस में मृदु हो व्यवहार, यही धन जीवन भर का होता।

आदर, ममता, करुणा, त्याग, न हो तो घर भी गरिमा खोता।।

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कमंद छंद विधान-


कमंद छंद 32 मात्राओं का समपद मात्रिक छंद है। चार पदों के इस छंद में दो दो या चारों पद समतुकांत होते हैं।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

अठकल + छक्कल + लघु, यगण(122) +अठकल + गुरु गुरु (SS)

2222 2221, 122 2222 22 (SS)


छक्कल (3+3 या 4+2 या 2+4) हो सकते हैं।

अठकल में (4+4 या  3+3+2 दोनों हो सकते हैं।)

अंत में दो गुरु का होना अनिवार्य है।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Tuesday, December 7, 2021

तंत्री छंद 'दुल्हन

 तंत्री छंद

 'दुल्हन'


नई नवेली, हूँ अलबेली, खिली-खिली, मैं दुल्हन प्यारी।

छैल-छबीली, आँखें नीली, मतवाली, नव दिखती न्यारी।।

नित्य सँवरता, रूप उभरता, देख जिसे, हूँ रहती खोई।

अल्हड़ यौवन, अंग सुघड़पन, उपासना, कवि की हूँ कोई।।


मन सतरंगा, निर्मल गंगा, पुनि-पुनि नव, रस धार बहाये।

पायल की ध्वनि, पिक सी चितवनि, मधुर गीत, सुर में ज्यूँ गाये।।

बदन सुवासित, मन उल्लासित, हृदय मेघ, झर झर कर बरसे।

आतुर नैना, खोवे चैना, पिय की छवि, अब देखन तरसे।।


मन अति व्याकुल, होवे आकुल, परिणय की, शुभ सुखद घड़ी है।

खुशियाँ वारे, परिजन सारे, गीतों की, मृदु प्रेम झड़ी है।।

छेड़े सखियाँ, पिय की बतियाँ, कर कर के, वे हूक जगाएँ।

मधुर मिलन की, प्रीत सजन की, मनवा में, वे खूब बढाएँ।।


माँ की ममता, बचपन रमता, छोड़ चली, कुल नया बसाने।

इक पर घर पर, अपने वर पर, दुनिया की, हर खुशी लुटाने।।

है अभिलाषा, मन में आशा, अपना घर, मैं महका  लूँगी।

हाथ हाथ में, पिया साथ में, घर आँगन, मैं चहका दूँगी।।

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तंत्री छंद विधान-


तंत्री छंद 32 मात्राओं का समपद मात्रिक छंद है। चार पदों के इस छंद में दो-दो या चारों पद समतुकांत होते हैं।


प्रत्येक पद क्रमशः 8, 8, 6, 10 मात्राओं के चार यति खंडों में विभाजित रहता है।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है- 

अठकल + अठकल + छक्कल + द्विकल + अठकल


2222, 2222, 222, 2 2222

8+8+6+10 = 32 मात्रायें।


द्विकल में (2 या 11 )दोनों रूप मान्य है।

छक्कल में  (3+3 या 4+2 या 2+4) तीनों रूप मान्य है।

अठकल में (4+4 या 3+3+2 )दोनों मान्य है।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Sunday, December 5, 2021

लीलावती छंद 'मारवाड़ की नार'

 लीलावती छंद 

 'मारवाड़ की नार'


हूँ मारवाड़ की एक नार, मैं अति बलशाली धीर वीर।

पी सकती अपना अहम घूँट, दुख पीड़ा मन की सकल पीर।।

पर सेवा मेरा परम धर्म, मन मानवता की गंग धार।

जब तक जीवन की साँस साथ, मैं नहीं मानती कभी हार।।


मैं सहज शांति प्रिय रूपवान, है सीधी मेरी चाल-ढाल।

निज कर्तव्यों की करूँ बात, सब अधिकारों को भूल-भाल।।

हूँ स्नेह सिंधु की एक बूँद, चित चंचलता की तेज धार।

अति भावुक मेरा हृदय जान, जो समझे केवल प्रेम सार।।


मैं लज्जा जेवर रखूँ धार, हूँ सहनशक्ति का मूर्त रूप।

रिश्तों पर जीवन सकल वार, तम हरकर हरदम रखूँ धूप।।

मैं छैल छबीली लता एक, घर मेरा जैसे कृष्ण कुंज।

हर संकट में मैं बनूँ ढाल, हूँ छोटा सा बस शक्ति पुंज।।


लेकर परिजन का पूर्ण भार, घर साम रखूँ यह लक्ष्य एक।

है धर्म-कर्म का प्रबल जोश, मन को निष्ठा से प्रीत नेक।।

यम से भी पति के प्राण छीन, ला सकती पतिव्रत नियम मान।

'शुचि' मारवाड़ की सुता वीर, अरि का मुझको बस प्रलय जान।।

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लीलावती छंद विधान-


लीलावती छंद 32 मात्राओं का समपद मात्रिक छंद है। चार पदों के इस छंद में दो दो या चारों पद समतुकांत होते हैं।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है- 

द्विकल+ अठकल+ त्रिकल+ ताल (21), द्विकल+ अठकल+ त्रिकल+ ताल (21)


द्विकल में 2 और 11 दोनों मान्य है।

अठकल में 4+4, 3+3+2 दोनों मान्य है।

त्रिकल में 2+1, 1+2, 111 तीनों रूप मान्य है।


2 2222 3 21, 2 2222 3 21

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Monday, November 15, 2021

खरारी छंद "जलियाँवाला बाग"

  खरारी छंद 

"जलियाँवाला बाग"


उस माटी का, तिलक लगा, जिसमें खुश्बू, आजादी की है।

जलियाँवाला, बाग जहाँ, हुंकारें अरि, बर्बादी की है।।

देखी जग ने, कायरता, हत्या की थी, निर्मम गोरों ने।

उत्पीड़न भय, हिंसा की, तस्वीरें तब, देखी ओरों ने।।


था कायर वो, हत्यारा, डायर जिसने, यह कांड किया था।

आकस्मक आ, खूनी ने, मासूमों को, झट मार दिया था।।

घन-घन चलती, गोली में, कंपित चीखें, चित्कार भरी थी।

बच्चे, बूढ़े, नर-नारी, भोली जनता, तब खूब मरी थी।।


मत पूछो तब, भारत के, लोगों का यह, जीवन कैसा था।

अंग्रेजों का, शासन ज्यूँ, अंगारों पर, चलने जैसा था।

उखड़ेगी कब, अंग्रेजी, शासन की जड़, सबके मन में था।

आक्रोश जोश, बदले का, भाव समाहित, हर जन जन में था।।


अंग्रेजों की, सत्ता को, हिलवाने में, जो बना सहायक।

जलियाँवाला, अति जघन्य, कांड बना था, तब उत्तर दायक।।

ज्वाला फूटी, वीरों में, अंगारे से, आँखों में आये।

आजादी के, बादल तब, भारत भू पर, लहरा कर छाये।।

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खरारी छंद विधान -


खरारी छंद 32 मात्राओं का समपद मात्रिक छंद है जिसमें क्रमशः 8, 6, 8, 10 मात्राओं पर यति आवश्यक है। चार चरणों के इस छंद में दो दो या चारों चरण समतुकांत होते हैं।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

2 222, 222, 2222, 2 2222

पहली यति द्विकल (2,11) + छक्कल (3+3 या 4+2 या 2+4)

दूसरी यति छक्कल।

तीसरी यति अठकल।

चौथी यति द्विकल (2,11) + अठकल में (4+4 या  3+3+2 दोनों हो सकते हैं।)

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Sunday, November 14, 2021

पद्मावती छंद "दीपोत्सव"

 पद्मावती छंद 

 "दीपोत्सव" 

 

दीपोत्सव बीता, पर्व पुनीता, जो खुशियाँ लेकर आया।

आनंदित मन का, अपनेपन का, उजियारा जग में छाया।।

शुभ मंगलदायक, अति सुखदायक, त्योंहारों के रस न्यारे।

उत्सव ये सारे, बने हमारे, जीवन के गहने प्यारे।।


मन का तम हरती, रोशन करती, रौनक जीवन में लाती।

जगमग दीवाली, दे खुशहाली, धरती को अति सरसाती।।

लक्ष्मी घर आती, चाव चढ़ाती, नव जीवन फिर मिलता है।

आनंद कोष का, नवल जोश का, शुचि प्रसून सा खिलता है।।


मानव चित चंचल, प्रेम दृगंचल, उत्सवधर्मी होता है।

सुख नव नित चाहे, मन लहराये, बीज खुशी के बोता है।।

पल आते रहते, जाते रहते, अद्भुत जग की माया है।

जब दुख जाता है, सुख आता है, धूप बाद ही छाया है।।


दीपक से सीखा, त्याग सरीखा, जीवन पर सुखदायी हो।

सब अंधकार की, दुराचार की, मन से सदा विदायी हो।।

रख हरदम आशा, छोड़ निराशा, पर्वों से हमने जाना।

सुखमय दीवाली, फिर खुशहाली, आएगी हमने माना।।

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पद्मावती छंद विधान-


पद्मावती छंद 32 मात्राओं का समपद मात्रिक छंद है जिसमें क्रमशः 10, 8, 14 मात्रा पर यति आवश्यक है। 

प्रथम दो अंतर्यतियों में समतुकांतता आवश्यक है।

चार चरणों के इस छंद में दो दो या चारों चरण समतुकांत होते हैं।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

द्विकल + अठकल, अठकल, अठकल + चौकल + दीर्घ वर्ण (S)

2 2222, 2222, 2222 22 S = 10+ 8+ 14 = 32 मात्रा।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Wednesday, November 10, 2021

'चुलियाला छंद' "मृदु वाणी"

  'चुलियाला छंद'

   "मृदु वाणी"


शब्दों के व्यवहार का, जिसने सीखा ज्ञान सुखी वह।

वाणी कटुता से भरी, जो बोले है घोर दुखी 

वह।।


होता यदि अन्याय हो, कायर बनकर कष्ट सहो मत।

हँसकर कहना सीखिये, कटु वाणी के शब्द कहो मत।।


औषध करती है भला, होते कड़वे घूँट सहायक।

अंतर्मन निर्मल करे, निंदक होते ज्ञान प्रदायक।।


मृदुवाणी अनमोल है, संचित जो यह कोष करे नर।

सुख ओरों को भी मिले, अनुपम धन से खूब भरे घर।।


कर्कश भाषा क्रोध की, सर्व विनाशक बाण चला मत।

हृदय बेन्ध पर मन करे, पल भर में ही पूर्ण हताहत।।

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चुलियाला छंद विधान -


चुलियाला छंद एक अर्द्धसम मात्रिक छंद है जिसके प्रति पद में 29 मात्रा होती है। प्रत्येक पद 13, 16 मात्रा के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है। चुलियाला छंद के दो भेद मिलते हैं। चुलियाला छंद दोहा छंद से विनर्मित होता है। 


प्रथम भेद दोहे के जैसा ही एक द्वि पदी छंद होता है। यह दोहे के अंत में 1211 ये पाँच मात्राएँ जुड़ने से बनता है। इसका मात्रा विन्यास निम्न है -

2222 212, 2222 21 1211 =  (चुलियाला) = 13, 8-21-1211 = 29 मात्रा।


दूसरा भेद चतुष पदी छंद होता है। यह दोहे के अंत में 1SS (यगण) ये पाँच मात्राएं जुड़ने से बनता है। इसके पदांत में सदैव दो दीर्घ वर्ण आते हैं। इसका मात्रा विन्यास निम्न है -

2222 212, 2222 21 1SS =  (चुलियाला) = 13, 8-21 1+गुरु+गुरु = 29 मात्रा।


उदाहरण-


"मूक पुकारे कोख में, कहती माँ से मोहि बचाओ।

हत्या मेरी रोकलो, लीला माँ तुम आज रचाओ।।

तुम मेरी भगवान हो, जीवन का हो एक सहारा।

हत्यारों के हाथ पर, करो वार तुम एक करारा।।"

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Tuesday, November 9, 2021

सुमंत छंद "बरसो मेघा"

 सुमंत छंद 

"बरसो मेघा"

      

धरती सारी बाट, देखती हारी।

गर्मी से बेहाल, हुई है भारी।।

उमड़े घन को देख, सभी हरषाये।

ऐसा बरसो चैन, धरा पा जाये।।


वन उपवन भी शुष्क, हुये हैं आओ।

उमड़-घुमड़ कर मेघ, व्योम पर छाओ।।

नदियों का जल वाष्प, बना है सारा।

तुम सूरज का आज, उतारो पारा।।


खलिहानों का सूख, गया है पानी।

खेतों में फिर रंग, चढ़ा दो धानी।।

हरित दुशाला ओढ़, धरा सज जाये।

फूटे अंकुर मेघ, अगर तू आये।।


हे श्यामल घन नीर, धार बरसाओ।

जीवन में उल्लास, नवल भर जाओ।।

व्याकुल वसुधा तृप्त, होय इठलाये।

मधुर सलोने प्रेम, गीत फिर गाये।।

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सुमंत छंद विधान-


सुमंत छंद बीस मात्रा प्रति पद का मात्रिक छंद  है। 

छंद के 11 मात्रिक प्रथम चरण की मात्रा बाँट ठीक दोहे के सम चरण वाली यानी अठकल + ताल (21) है। 

अठकल में 4+4 या  3+3+2 दोनों हो सकते हैं।

9 मात्रिक द्वितीय चरण की मात्रा बाँट 3 + 2 + गुरु गुरु (S S)है। 

त्रिकल में 21, 12, 111 तीनों रूप, द्विकल के 2, 11 दोनों रूप मान्य हैं। 

पदांत में दो गुरु का होना अनिवार्य है।

दो दो पद समतुकांत होने चाहिए।

मात्रा विन्यास-

2222 21, 3 2SS   = (सुमंत) = 11+9 = 20 मात्रा।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Tuesday, October 19, 2021

मालिक छंद "राधा रानी"

 मालिक छंद

 "राधा रानी"


चंद्र चाँदनी, मुदित मोहिनी राधा।

बिना तुम्हारे श्याम सदा ही आधा।।

युगल रूप में तुम मोहन की छाया।

एकाकार हुई लगती दो काया।।


वेणु रूप में तुम जब शोभित होती।

श्याम अधर रसपान अमिय में खोती।।

दृश्य अलौकिक रसिक भक्त ये पीते।

भाव भक्ति में सुध बुध खो वे जीते।।


वृंदावन की हो तुम वृंदा रानी।

जहाँ श्याम ने रहने की नित ठानी।। 

सुमन सेज सुखदायक नित बिछ जाती।

निधिवन में जब श्याम सलोनी आती।।


रमा, राधिका, रुकमिण तुम ही सीता।

प्रेम भाव से हरि को हरदम जीता।।

है वृषभानु सुता का वैभव न्यारा।

राधा नाम तुम्हारा शुचि अति प्यारा।।

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मालिक छंद विधान-


मालिक छंद एक सम मात्रिक छंद है, जिसमें प्रति चरण 20 मात्रा रहती हैं। इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

अठकल + अठकल + गुरु गुरु = 8, 8, 2, 2 = 20 मात्रा।

(अठकल में 4+4 या  3+3+2 दोनों हो सकते हैं।)

चरणान्त गुरु-गुरु(SS) अनिवार्य है।


दो-दो  या चारों चरण समतुकांत होते हैं।


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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Saturday, October 16, 2021

योग छंद "विजयादशमी"

 योग छंद 

"विजयादशमी"


अच्छाई जब जीती, हरा बुराई।

जग ने विजया दशमी, तभी मनाई।।

जयकारा गूँजा था, राम लला का।

हुआ अंत धरती से, दुष्ट बला का।।


शक्ति उपासक रावण, महाबली था।

ग्रसित दम्भ से लेकिन, बहुत छली था।

कूटनीति अपनाकर, सिया चुराई।

हर कृत्यों में उसके, छिपी बुराई।।


नहीं धराशायी हो, कभी सुपंथी।

सर्व नाश को पाये, सदा कुपंथी।

चरम फूट पापों का, सदा रहेगा।

कब तक जग रावण के, कलुष सहेगा।।


मानवता की खातिर, शक्ति दिखाएँ।

जग को सत्कर्मों की, भक्ति सिखाएँ।।

राम चरित से जीवन, सफल बनाएँ।

धूम धाम से हम सब, पर्व मनाएँ।।

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योग छंद विधान-


योग छंद एक सम पद मात्रिक छंद है, जिसमें प्रति पद 20 मात्रा रहती हैं। पद 12 और 8 मात्रा के दो  यति खंडों में विभाजित रहता है। 12 मात्रिक प्रथम चरण में चौकल अठकल का कोई भी संभावित क्रम लिया जा सकता है। 

इसकी तीन संभावनाएँ हैं जो तीन चौकल, चौकल + अठकल और अठकल + चौकल 

के रूप में है।


8 मात्रिक दूसरे चरण का विन्यास निम्न 

है -

त्रिकल, लघु, तथा दो दीर्घ वर्ण (SS) = 3+1+4 = 8 

त्रिकल के तीनों (12, 21, 111) रूप मान्य है। 


दो-दो  या चारों पद समतुकांत होते हैं।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Friday, October 15, 2021

नरहरि छंद "जय माँ दुर्गा"

 नरहरि छंद  

"जय माँ दुर्गा"


जय जग जननी जगदंबा, जय जया।

नव दिन दरबार सजेगा, नित नया।।

शुभ बेला नवरातों की, महकती।

आ पहुँची मैया दर पर, चहकती।।


झन-झन झालर झिलमिल झन, झनकती।

चूड़ी माता की लगती, खनकती।।

माँ सौलह श्रृंगारों से, सज गयी।

घर-घर में शहनाई सी, बज गयी।।


शुचि सकल सरस सुख सागर, सरसते।

घृत, धूप, दीप, फल, मेवा, बरसते।।

चहुँ ओर कृपा दुर्गा की, बढ़ रही।

है शक्ति, भक्ति, श्रद्धा से, तर मही।।


माता मन का तम सारा, तुम हरो।

दुख से उबार जीवन में, सुख भरो।।

मैं मूढ़ न समझी पूजा, विधि कभी।

स्वीकार करो भावों को, तुम सभी।।

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नरहरि छंद विधान-


नरहरि छंद एक सम पद मात्रिक छंद है, जिसमें प्रति पद १९ मात्रा रहती हैं।  १४, ५ मात्रा पर यति का विधान है। दो-दो  या चारों पद समतुकांत होते हैं। इसका मात्रा विन्यास निम्न है-  


१४ मात्रिक चरण की प्रथम दो मात्राएँ सदैव द्विकल के रूप में रहती हैं जिसमें ११ या २ दोनों रूप मान्य हैं। बची हुई १२ मात्रा में चौकल अठकल की निम्न तीन संभावनाओं में से कोई भी प्रयोग में लायी जा सकती है। 

तीन चौकल,

चौकल + अठकल,

अठकल + चौकल

दूसरे चरण की ५ मात्राएँ लघु लघु लघु गुरु(S) रूप में रहती हैं।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Sunday, October 10, 2021

दिंडी छंद 'सुख सार'

 दिंडी छंद 

'सुख सार'


प्रश्न सदियों से, मन में है आता।

कहाँ असली सुख, मानव है पाता।।

लक्ष्य सबका ही, सुख को है पाना।

जतन जीवन भर, करते सब नाना।।


नियति लेने की, सबकी ही होती।

यहीं खुशियाँ सब, सत्ता हैं खोती।।

स्वयं कारण हम, सुख-दुख का होते।

वही पाते हैं, जो हम हैं बोते।।


लोभ, छल, ममता, मन में है भारी।

सदा मानवता, इनसे ही हारी।।

सहज, दृढ होकर, सद्विचार धारें।

प्रेम भावों से, कटुता को मारें।।


सर्वदा सुखमय, जीवन वो पाते।

खुशी देकर जो, खुशियाँ ले आते।।

प्रेरणा पाकर, हम सब निखरेंगे।

नहीं जीवन में, फिर हम बिखरेंगे।

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दिंडी छंद  विधान-


दिंडी छंद एक सम पद मात्रिक छंद है, जिसमें प्रति पद १९ मात्रा रहती हैं जो ९ और १० मात्रा के दो यति खंडों में विभाजित रहती हैं। दो-दो  या चारों पद समतुकांत होते हैं।


दोनों चरणों की मात्रा बाँट निम्न प्रकार से है।

त्रिकल, द्विकल, चतुष्कल = ३ २ ४ = ९ मात्रा।

छक्कल, दो गुरु वर्ण (SS) = १० मात्रा।

छक्कल में ३ ३, या ४ २ हो सकते हैं।

३ के १११, १२, २१ तीनों रूप मान्य।


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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम



Saturday, October 2, 2021

तमाल छंद 'जागो हिन्दू'

 तमाल छंद

 'जागो हिन्दू'


कब तक सोयेगा हिन्दू तू जाग।

खतरे में अस्तित्व लगी है आग।।

हत्यारों पर गिर तू बन कर गाज।

शौर्य भाव फिर से जगने दे आज।।


रो इतिहास बताता भारत देश।

देखो कितना बदल चुका परिवेश।।

गाती जनता स्वार्थ, दम्भ का गान।

वीरों की भू का है यह अपमान।।


फूट डालना दुष्टों की है चाल।

क्यूँ भारत में गलती सबकी दाल?

हर हिन्दू के मन में हों अभिमान।

रखकर भाषा, धर्म, रीति का मान।।


राजनीति का काटो सब मिल जाल।

रखो देश का ऊँचा जग में भाल।।

हों भारत पर हिन्दू का अधिकार।

धर्म सनातन की हों जय जयकार।।

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तमाल छंद विधान-


तमाल छंद एक सम पद मात्रिक छंद है, जिसमें प्रति पद १९ मात्रा रहती हैं। दो-दो  या चारों पद समतुकांत होते हैं। इसका मात्रा विन्यास निम्न है-  

चौपाई +गुरु लघु (16+3=19) 

चरण के अंत में गुरु लघु अर्थात (21)  होना अनिवार्य है।


अन्य शब्दों में अगर चौपाई छंद में एक गुरु और एक लघु क्रम से जोड़ दिया जाय तो तमाल छंद बन जाता है।

चौपाई छंद का विधान अनुपालनिय होगा,जो कि निम्न है-

चौपाई छंद चौकल और अठकल के मेल से बनती  है। चार चौकल, दो अठकल या एक अठकल और  दो चौकल किसी भी क्रम में हो सकते हैं। समस्त संभावनाएँ निम्न हैं।

4-4-4-4, 8-8, 4-4-8, 4-8-4, 8-4-4


चौपाई में कल निर्वहन केवल चतुष्कल और अठकल से होता है। अतः एकल या त्रिकल का प्रयोग करें तो उसके तुरन्त बाद विषम कल शब्द रख समकल बना लें। जैसे 3+3 या 3+1 इत्यादि। चौकल और अठकल के नियम निम्न प्रकार हैं जिनका पालन अत्यंत आवश्यक है।


चौकल = 4 – चौकल में चारों रूप (11 11, 11 2, 2 11, 22) मान्य रहते हैं।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Wednesday, September 29, 2021

सुमेरु छंद "माँ"

 सुमेरु छंद "माँ"


परम जिस धाम में, हो तुम गयी माँ।

सुमन अर्पण तुम्हें, ममतामयी माँ।।

पुकारा यूँ लगा, तुमने कहीं से।

लगी फिर रोशनी, आती वहीं से।।


नहीं दिखती मगर, सूरत तुम्हारी।

सजल आँखें तुम्हें, ढूँढ़े हमारी।।

हृदय की चोट वो, अब तक हरी है।

व्यथित मन हो रहा, आँखें भरी है।।


उजाले हैं बहुत, लेकिन डरा हूँ।

उदासी है घनी, तम से भरा हूँ।।

तुम्हें हर बात की, चिंता सताती।

कहाँ कब क्या करूँ, कहकर बताती।।


वृहद जंजाल सा, जग एक मेला।

कहाँ तुम बिन रहा, मैं हूँ अकेला।।

पकड़ आँचल सदा, तेरा चला हूँ।

सदा सानिध्य में, तेरी पला हूँ।।

 

सहारा था मुझे, बस एक तेरा।

कहो तुम बिन यहाँ, अब कौन मेरा?

सभी कुछ है मगर, तेरी कमी है।

छिपी मुस्कान में, मेरी नमी है।।


सभी खुशियाँ मिले, तुमको जहाँ हो।

न व्याकुलता तुम्हें, पलभर वहाँ हो।।

अगर खुश तुम रहो, खुश मैं रहूँगा।

विरह की वेदना, हँसकर सहूँगा।।

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सुमेरु छंद विधान-


सुमेरु छंद एक सम पद मात्रिक छंद है, जिसमें प्रति पद १९ मात्रा रहती हैं। दो-दो  या चारों पद समतुकांत होते हैं।

सुमेरु छंद में  12,7 अथवा 10,9 पर  दो तरह से यति निर्वाह  किया जा सकता है।

इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

1222 1222 122

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Tuesday, September 14, 2021

लीला छंद "शराब लत"

लीला छंद  

"शराब लत" 


मच जाता नित बवाल।

पत्नी पूछे सवाल।।

क्यूँ पीते तुम शराब?

लत पाली क्यों खराब?


रिश्ते सब तारतार।

चौपट है कारबार।।

रख डाला सब उजाड़।

जीवन मेरा बिगाड़।।


समझो तुम क्यों न बात?

लत ये है आत्मघात।।

लगता है डर अपार।

आदत लो तुम सुधार।।


मद की यह घोर प्यास।

रोके आत्मिक विकास।।

बात न मेरी नकार।

कुछ तो करलो विचार।।

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लीला छंद विधान -

लीला छंद बारह मात्रा प्रति पद का मात्रिक छंद  है जिसका चरणान्त जगण (121) से होना अनिवार्य होता है। 

इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

अठकल + जगण(121) =12 मात्राएँ

अठकल में 4+4 या  3+3+2 दोनों हो सकते हैं।

दो दो चरण समतुकांत होने चाहिए।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Thursday, September 9, 2021

हंसगति छंद "भारत"

 हंसगति छंद 

"भारत"


भारत मेरा देश, बड़ा मनभावन।

कण-कण लगे सजीव, और अति पावन।।

माँ गंगा का रूप, यहाँ जल धारा।

दिव्य गुणों की खान, देश यह सारा।।


गीता,वेद, पुराण, ग्रन्थ ये सारे।

जीवन के हर तत्व, हमें दे न्यारे।।

सन्तों का सानिध्य, यहाँ सब पाएँ।

भाव भक्ति के गीत, सभी जन गाएँ।।


दया, प्रेम, सद्भाव, धर्म का वैभव।

पर्वों का आनंद, देश में नित नव।।

विविध प्रान्त समुदाय, एक है नारा।

भारत मेरा देश, जान से प्यारा।।


सूरज,चंदा और, चमकते तारे।

घन, गिरि, नद, वन, व्योम, पूज्य हैं सारे।।

हिंदी भाषा शान, देवलिपि प्यारी।

भारत की शुचि भूमि, जगत से न्यारी।।

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हंसगति छंद विधान -


हंसगति छंद बीस मात्रा प्रति पद का मात्रिक छंद  है जिसमें ग्यारहवीं और नवीं मात्रा पर विराम होता है। छंद के 11 मात्रिक प्रथम चरण की मात्रा बाँट ठीक दोहे के सम चरण वाली यानी अठकल + ताल (21) है। 9 मात्रिक द्वितीय चरण की मात्रा बाँट 3 + 2 + 4 है। 

त्रिकल में 21, 12, 111 तीनों रूप, द्विकल के 2, 11 दोनों रूप मान्य हैं। चतुष्कल के 22, 211, 112, 1111 चारों रूप मान्य हैं तथा अठकल में 4+4 या  3+3+2 दोनों हो सकते हैं।

दो दो चरण समतुकांत होने चाहिए।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Wednesday, September 8, 2021

शास्त्र छंद "सदाचार"

 शास्त्र छंद 

"सदाचार"


सदा मन में यही रख लें सभी धार।

न जीवन में कभी त्यज दें सदाचार।।

रहे आधार जीवन का सदा नेक।

रखें बस भावना हरदम यही एक।।


चलें अध्यात्म के पथ पर यही चाह।

अहिंसा की सदा चुननी हमें राह।।

भलाई के लिये हरदम बढ़े हाथ।

जरूरतमंद का देना हमें साथ।।


बुरी आदत न मदिरा पान की डाल

जहाँ दिखती बुराई हों उसे टाल।।

जड़ें छल क्रोध की काटें यही ठान।

करें सत्कर्म के हरदम अनुष्ठान।।


बड़ों का मान रख उनकी सुनें बात।

सदा आशीष लें उनसे न कर घात।।

बहाएं प्रेम की शुचिता सभी ओर।

रखें सद् आचरण पर हम सदा जोर।।

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शास्त्र छंद विधान -


शास्त्र छंद 1222 1222 1221 मापनी पर आधारित 20 मात्रा प्रति चरण का मात्रिक छंद है। चूंकि यह एक मात्रिक छंद है अतः गुरु (2) वर्ण को दो लघु (11) में तोड़ने की छूट है। इस छंद में 1,8,15,20 वीं मात्राएँ सदैव लघु होती हैं lदो दो चरण समतुकांत होने चाहिए।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Tuesday, September 7, 2021

बिहारी छंद "प्रेम भाव"

 बिहारी छंद

 "प्रेम भाव"


मैं प्रेम भरे गीत सजन, आज सुनाऊँ।

उद्गार सभी झूम रहे, शब्द सजाऊँ।।

मैं चाह रही प्रीत भरा, कोश लुटाना।

संसार लगे आज मुझे, सौम्य सुहाना।।


रमणीक लगे बाग हरे, खेत लहकते।

घन घूम रहे मस्त हुए, फूल महकते।।

हर ओर प्रकृति झूम करे, नृत्य निराला।

सब अंध हुआ दूर गया, फैल उजाला।


जब आस भरे नैन विकल, रुदन करेंगे।

सिंदूर लिये हाथ सजन, माँग भरेंगे।।

मैं प्रेम भरे रंग भरूँ, विरह अगन में।

इठलाय रही नाच रही, आज लगन में।।


उम्मीद भरे भाव सुमन, खूब खिले हैं।

संकल्प तथा लक्ष्य भरे, पंख मिले हैं।।

उल्लास भरी राग मधुर, खास बजाऊँ।

अरमान भरी सेज सजन, नित्य सजाऊँ।।

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बिहारी छंद विधान – 


यह (2211 2211 2, 21 122) मापनी पर आधारित 22  मात्रा का मात्रिक छंद है। चूंकि यह एक मात्रिक छंद है अतः गुरु (2) वर्ण को दो लघु (11) में तोड़ने की छूट है। दो दो चरण समतुकांत होने चाहिए।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Wednesday, August 25, 2021

कलहंस छंद "तुलसी चरित"

 कलहंस छंद "तुलसी चरित"


तिथि सावन शुक्ल सप्तमी पावन।

जन्मे तुलसी धरती सरसावन।।

रचने को राम चरित मनभावन।

भू के जन जन का मन हर्षावन।। 


थे आत्माराम पिता तुलसी के।

वे दीप्तिमान सुत माँ हुलसी के।।

कवि गण में वे थे परम श्रेष्ठ कवि।

अंकित मन में प्रभु सगुण रूप छवि।।


थे दास्य भक्ति के परम उपासक।

श्री रामचन्द्र प्रभु मन के शासक।।

बस राम एक भवसागर खेवक।

तुलसी अति दीन हीन लघु सेवक।।


वे वेद,शास्त्र,ज्योतिष के ज्ञाता।

बहु धर्म सनातन ग्रंथ प्रदाता।।

रच राम चरित मानस अनमोला।

रस राम नाम जन मन में घोला।।

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कलहंस छंद विधान -

यह 18 मात्राओं का मात्रिक छंद है। दो-दो चरण या चारों चरण समतुकांत होते हैं।

इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

द्विकल+चौपाई (16 मात्रा)= 18मात्राएँ।

(द्विकल 2 या 11 हो सकता है।

चौपाई छंद चौकल और अठकल के मेल से बनती  है। चार चौकल, दो अठकल या एक अठकल और  दो चौकल किसी भी क्रम में हो सकते हैं। समस्त संभावनाएँ निम्न हैं।

4-4-4-4, 8-8, 4-4-8, 4-8-4, 8-4-4

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Monday, August 16, 2021

दीप छन्द "राम-भजन"

 दीप छन्द

"राम-भजन"


कर मन भजन राम,

रख हिय सुगम नाम,

प्रभु को जप तु खोय,

पुलकित हृदय होय।


जगती लगन खास,

लगती मधुर प्यास,

दृग में करुण धार,

पुनि पुनि प्रिय पुकार।


कर के दृढ विचार,

त्यज दें सब विकार,

पायें नवल रूप,

प्रभु की छवि अनूप।


जो हरि भजन भाय,

जीवन सुधर जाय,

मिलता सरस नेह,

होती सबल देह।

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दीप छंद विधान-


यह 10 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है। दो-दो चरण या चारों चरण समतुकांत होते हैं। इसका मात्रा विन्यास निम्न है-


चौकल, नगण(111) गुरु लघु (S1) = 10 मात्रायें।


(चौकल 2-2, 211 ,1111 या 112 हो सकता है। 

चरणान्त: नगण गुरु लघु (11121) अनिवार्य है।)


"चौकल नगण व्याप्त,

गुरु-लघु कर समाप्त,

रच लो मधुर 'दीप',

लगती चपल सीप।"

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Saturday, August 7, 2021

प्रदोष छंद "कविता ऐसे जन्मी है"

      प्रदोष छंद

"कविता ऐसे जन्मी है"


मन एकाग्रित कर लिया,

चयन विषय का फिर किया।

समिधा भावों की जली,

तब ऐसे कविता पली।


नौ रस की धारा बहे,

अनुभव अपना सब कहे।

लेकिन जो हिय छू रहा,

कविमन उस रस में बहा।


सुमधुर सरगम ताल पर,

समुचित लय मन ठान कर।

शब्द सजाये परख के,

गा-गा देखा हरख के।


अलंकार श्रृंगार से,

काव्य तत्व की धार से।

पा नव जीवन खिल गयी,

पूर्ण हुई कविता नयी।

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प्रदोष छंद विधान-


यह 13 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है। दो-दो चरण या चारों चरण समतुकांत होते हैं।

इसका मात्रा विन्यास निम्न है-


अठकल+त्रिकल+द्विकल =13 मात्रायें


अठकल यानी 8 में दो चौकल (4+4) या 3-3-2 हो सकते हैं। (चौकल और अठकल के नियम अनुपालनीय हैं।)

त्रिकल 21, 12, 111 हो सकता है तथा द्विकल 2 या 11 हो सकता है।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Tuesday, August 3, 2021

पुनीत छंद 'भाई मेरा मान'

 पुनीत छंद "भाई मेरा मान"


भाई बहना का त्योंहार,

राखी दोनों का है प्यार।

जीये भाई सौ-सौ साल,

धागा मेरा तेरी ढाल।


कुमकुम टीका माथे सोय,

यश भाई का जग में होय।

रखना मुँह में मीठे बोल,

इसी मिठाई का है मोल।


पूनम के चंदा सा रूप,

शीत सुहानी तुम हो धूप।

सावन की मृदु हो बौछार,

बरसो फिर भी आता प्यार।


जनम-जनम का अपना साथ,

बाँधूं राखी तेरे हाथ।

भाई मेरा,मेरा मान,

करती तेरा हूँ सम्मान।

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पुनीत छंद विधान-


यह 15 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है। दो दो चरण या चारों चरण समतुकांत होते हैं।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

चौक्कल+छक्कल +SS1(गुरु गुरु लघु) = 15 मात्रायें।


(चौकल 2-2,211,1111 या 112 हो सकता है, छक्कल  2 2 2, 2 4, 4 2, 3 3 हो सकता है।)

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Thursday, July 29, 2021

कज्जल छंद “समय का हेर-फेर”

 कज्जल छंद “समय का हेर-फेर”


समय-समय का हेर-फेर,

आज सेर कल सवा सेर।

जग में चलती एक रीत,

जाय अँधेरी रात बीत।


रहना छोड़ो अस्त-व्यस्त,

जीवन करलो खूब मस्त।

प्यारे सब में देख प्रीत,

गाओ मन से प्रेम गीत।


दुख का आता एक मोड़,

सुख जब जाता हाथ छोड़।

हँसना-रोना साथ-साथ,

डोर जगत की राम हाथ।


रखना मन में खूब जोश,

किंतु न खोना कभी होश।

छोड़ समय पर जीत-हार,

सब बातों का यही सार।

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कज्जल छंद विधान-

यह 14 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है। दो दो चरण या चारों चरण समतुकांत होते हैं।

इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

अठकल+त्रिकल+गुरु और लघु=14 मात्राएँ।

(अठकल दो चौकल या 3-3-2 हो सकता है, त्रिकल 21, 12, 111 हो सकता है तथा द्विकल 2 या 11 हो सकता है।)

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शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’

तिनसुकिया, असम


Tuesday, July 27, 2021

त्रिलोकी छंद 'शिव आराधना'

 त्रिलोकी छंद 'शिव आराधना'


बोल-बोल बम बोल,सदा शिव को भजो,

कपट,क्रोध,मद,लोभ,चाल टेढ़ी तजो।

भाव भरो मन मांहि,सोम के नाम के,

मृत्य जगत के कृत्य,कहो किस काम के।


नील कंठ विषधार,सर्प शिव धारते,

नेत्र तीसरा खोल,दुष्ट संहारते।

अजर-अमर शिव नाम,जपत संकट कटे,

हो पुनीत सब काज,दोष विपदा हटे।


हवन कुंड यह देह,भाव समिधा जले,

नयन अश्रु की धार,बहाते ही चले।

सजल नयन के दीप,भक्ति से हों भरे,

भाव भरी यह प्रीत,सफल जीवन करे।


महादेव नटराज,दिव्य प्रभु रूप है,

सृष्टि सृजन के नाथ,जगत के भूप है।

वार मनुज सर्वस्व,परम शिव धाम पे,

तीन लोक के नाथ,एक शिव नाम पे।

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त्रिलोकी छंद विधान-


यह प्रति पद 21 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है जो 11,10 मात्राओं के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है।

दो दो पद या चारों पद समतुकांत होते हैं।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

अठकल + गुरु और लघु, त्रिकल + द्विकल + द्विकल + लघु और गुरु = 11, 10 = 21 मात्राएँ।

(अठकल दो चौकल या 3-3-2 हो सकता है, त्रिकल 21, 12, 111 हो सकता है तथा द्विकल 2 या 11 हो सकता है।)

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Monday, July 26, 2021

दोही छंद 'माँ का आशीष'

 दोही छंद 'माँ का आशीष'


तम दूर रहे घर से सदा, उजियारा हो तेज।

जिस घर में बेटी जा रही, हों फूलों की सेज।।


घर मात-पिता का छोड़कर, अपनाओ ससुराल।

कुल मान सदा रखना बड़ा, जीवन हों खुशहाल।।


सुख सहज सकल तुमको मिले, लक्ष्मी रहे विराज।

हों सास-श्वसुर माँ-बाप सम, पिय हिय करना राज।।


मन भाव स्वच्छ पावन रहे, मृदु वाणी अनमोल।

जब क्रोध निकट आवें तभी, निज मन माँय टटोल।।


घृत दधि पय की नदियाँ बहे, दान धर्म हों रीत।

शुचि राम नाम धुन में रमे, जीवनमय संगीत।।

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दोही छंद विधान-


दोही, दोहे की ही प्रजाति का एक द्विपदी छन्द है। दोही अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। यह द्विपदी छन्द है जिसके प्रति पद में 26 मात्रा होती है।प्रत्येक पद 15, 11 मात्रा के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में १५-१५ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में ११-११ मात्राएँ होती हैं।सम चरणों का अंत गुरु लघु मात्रा से होना आवश्यक होता है।दूसरे और चौथे चरण यानी सम चरणों का समतुकान्त होना आवश्यक है।


विषम चरण -- कुल 15 मात्रा (मात्रा बाँट =द्विकल + अठकल + द्विकल + लघु + द्विकल = 2 + 8 +2 +1 +2 = 15 मात्रा)


सम चरण -- कुल 11 मात्रा (मात्रा बाँट = अठकल + ताल यानी गुरु+लघु)


अठकल यानी 8 में दो चौकल (4+4) या 3-3-2 हो सकते हैं। चौकल और अठकल के नियम अनुपालनीय हैं।)

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Friday, July 23, 2021

प्रदीप छन्द,'यादों के झोंके'

 प्रदीप छन्द,'यादों के झोंके'


मीठी यादों के झोंकों ने,सींचा उपवन प्रेम का,

पत्थर सम हिय भाव विरह ने,रूप दिखाया हेम का।

लम्बी दूरी पल में तय कर,सुखद स्नेह आगोश में,

झूला प्रियतम की बाहों में,झूली तन्मय जोश में।


पत्ता-पत्ता हरा हुआ है,कोमल कलियाँ झूमती,

फूलों का मृदु आलिंगन पा,ज्यूँ तितली हों चूमती।

साँसों को है भान स्नेह का,भाव नेह विस्तार से,

चित्र प्रीत से सने हुये सब,चलते चित्राहार से।


आकर मन को हल्का करती,यादें आँसूधार है,

नम आँखों से निरखूँ प्रिय को,संवादों का सार है।

रिमझिम बूँदों ने झकझोरा,अधरों के रसपान से,

निखरा सावन मन का मेरा,कोयल के मृदु गान से।


सींचे क्यारी को जीवन की,यादें पहले प्यार की,

जीने को फिर प्रेरित करती,यह बेला अभिसार की।

पुलकित हिय का कोना-कोना,मन वीणा की तान से

निखरी आभा मुखमण्डल की,हल्की सी मुस्कान से।

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प्रदीप छन्द विधान-


यह प्रति पद 29 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है जो 16,13 मात्राओं के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है।

दो दो पद या चारों पद समतुकांत होते हैं।


बेहतर समझने के लिये- पहला चरण चौपाई(16 मात्रा)+दूसरा चरण दोहे का विषम चरण(13 मात्रिक) होता है।


इसका मात्रा विन्यास निम्न है-

अठकल*2, अठकल 212 =16+13 = 29 मात्राएँ।

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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम











Thursday, July 22, 2021

मधुर ध्वनि छन्द,'वर्षा'

 मधुर ध्वनि छन्द,'वर्षा'


बजत मधुर ध्वनि,चंचल चितवनि,अति सुखकारी,

मानो खिलखिल,सहज अकुंठिल,शिशु किलकारी।

दामिनि दमकी,बूँदें चमकी,बरसा पानी,

जन-जन गाये,अति हरषाये,रुत मस्तानी।


कल-कल नदियाँ,मृदु पंखुड़ियाँ,खग भी चहके,

जग यह सारा,गा मल्हारा,धुन पर बहके।

नन्ही बूँदें,आँखें मूँदे, खूब इतरती,

कभी इधर तो,कभी उधर वो,नाच बरसती।


उमड़-घुमड़ घन,बाजे झन-झन,खुशियाँ छाई,

मुदित मोहिनी,है सुगंधिनी, सी पुरवाई।

सौंधी-सौंधी, शुद्ध सुगन्धी,मिट्टी भायी,

जगत सहेली,छैल छबीली,वर्षा आयी।


हरित चूनरी,देह केशरी,धवल घाघरा,

छटा चहकती,नाच बहकती,बाँध घूघरा।

महके उपवन,लहके सब वन,निखरा आँगन,

निरखे घन मन,धरती दुल्हन,रूप सुहागन।

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मधुर ध्वनि छन्द विधान-


यह 24 मात्राओं का मात्रिक छन्द है।

क्रमशः 8,8,8 पर यति आवश्यक है।

चार चरणों के इस छन्द में दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिए। अन्तर्यति तुकांतता से छंद का माधुर्य बढ़ जाता है,वैसे यह आवश्यक नहीं है।


इसी छंद के चार पदों के प्रारंभ में एक दोहा जोड़ देने से प्रसिद्ध कुण्डलिया छंद की तर्ज का एक नया छंद बन जाता है जो "अमृत ध्वनि" के नाम से प्रसिद्ध है। "अमृत ध्वनि" में भी दोहा जिन शब्दों से शुरू होता है उन्हीं पर छंद समाप्त होता है। 

जैसे-

"रूप सुहागन सा सजा, रिमझिम बरसै मेह।

थिरकै धरणी मग्न हो, हरित चूनरी देह।।

हरित चूनरी,देह केशरी,धवल घाघरा,

छटा चहकती,नाच बहकती,बाँध घूघरा।

महके उपवन,लहके सब वन,निखरा आँगन,

निरखे घन मन,धरती दुल्हन,रूप सुहागन।"

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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम



Wednesday, July 21, 2021

सिंह विलोकित छन्द,'नारी जिसने सदा दिया'

सिंह विलोकित छन्द,'नारी जिसने सदा दिया'


छवि साँझ दीप सी सदा रही,

मैं तिल-तिल जलकर कष्ट सही।

तम हरकर रोशन सदन किया,

हूँ नारी जिसने सदा दिया।


सरि बनकर पर हित सदा बही,

जग करे प्रदूषित,मौन रही।

गति को बाँधों में जकड़ दिया,

तब रूप वृहत को सिमित किया।


नर के शासन के नियम कड़े,

बन क्रोधित घन से गरज पड़े।

मैं नीर बहाती मेह दुखी,

फिर भी सुख देकर हुई सुखी।


मैं विस्मित भू बन मनन करूँ,

नित अपमानों के घूँट भरूँ।

माँ ने मेरी भी सहन किया,

चुप रहकर सहना सिखा दिया।

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सिंह विलोकित छंद  विधान–

 सिंह विलोकित सोलह मात्राओं की सममात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण,क्रमशः दो-दो समतुकांत रहते हैं। चरणान्त लघु-गुरु(१२) अनिवार्य है।

द्विकल + अठकल + त्रिकल तथा लघु-गुरु या

2 2222 3 1S= 16 मात्रायें।


"मात्रा सोलह ही रखें,चरण चार तुकबंद।

दुक्कल अठकल अरु त्रिकल,लघु-गुरु रखलो अंत।।

सम मात्रिक यह छन्द है,बस इतना लो जान।

सिंह विलोकित छन्द का,रट लो आप विधान।।"

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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम



Tuesday, July 20, 2021

सेठजी जयदयालजी गोयन्दका,'लावणी छन्द'

  "जयदयालजी गोयन्दका"


देवपुरुष जीवन गाथा से,प्रेरित जग को करना है,

संतों की अमृत वाणी को,अंतर्मन में भरना है।

है सौभाग्य मेरा कुछ लिखकर,कार्य करूँ जन हितकारी,

शत-शत नमन आपको मेरा,राह दिखायी सुखकारी।१।


संत सनातन पूज्य सेठजी,जयदयालजी गोयन्दका,

मानव जीवन के हितकारी,एक अलौकिक सा मनका।

रूप चतुर्भुज प्रभु विष्णु का,राम आचरण अपनाये,

उपदेशों को श्री माधव के,जन-जन तक वो पहुँचाये।२।


संवत शत उन्नीस बयालिस, ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी पावन,

चूरू राजस्थान प्रान्त में,जन्मे ये भू सरसावन।।

माता जिनकी श्यो बाई थी,पिता खूबचँद गोयन्दका,

संत अवतरण सुख की बेला,धरती पर दिन खुशियों का।३।


दिव्य रूप बालक का सुंदर,मुखमण्डल तेजस्वी था,

पाँव दिखे पलना में सुत के,लगता वो ओजस्वी था।।

आध्यात्मिक भावों का बालक,दया,प्रेम,सद्भाव लिये,

जयदयालजी ने आजीवन,जन मानस कल्याण किये।४।


पहले करनी फिर कथनी ही,मूलमंत्र जीवन का था,

सत्य,अहिंसा,दूरदर्शिता,समता भाव समाहित था।

गीता,रामायण,पुराण सब,बचपन में पढ़ डाले थे,

राह पकड़कर गीता की तब,गूढ़ सभी खंगाले थे।५।


कार्यक्षेत्र बाँकुड़ कलकत्ता,वैश्य वर्ण निष्कामी थे,

तन,मन,धन पर सेवा खातिर,श्री माधव अनुगामी थे।

धोती,चादर और चौबन्दी, केशरिया पगड़ी पहने,

परम प्रचारक प्रभु वाणी के,गीतामय धारे गहने।६।


दिव्य प्रेम का अनुभव करके,तत्व आपने जो जाना,

जनम-मरण के दुख हरने का,साधन उसको ही माना।

सहज मार्ग भगवत्प्राप्ति का,ढूँढन की मन में धारी,

चाहे कोई भी हो अवस्था,है हर मानव अधिकारी।७।


*गीता प्रचार का मार्ग*


दृष्टि टिकी गीता के इन दो,प्रेरित करते श्लोकों पर,

भगवत आज्ञा पालन हेतु, हुये अग्रसर वो तत्पर,

"निसन्देह मेरा वो होगा,गीता गूढ़ प्रचार करे,

अतिशय प्रिय वो भक्त मुझे जो,गीता का संज्ञान धरे।"

।८।


जन मानस उद्धार हेतु जब,मार्ग मिला उनको शाश्वत,

स्वयं चले फिर सबको चलाया,हुये पूर्ण तब ही आश्वश्त।

युगदृष्टा ने अटल सत्य की,राह सुलभ बनवायी थी,

घर-घर गीता,जन-जन गीता,यही सोच अपनायी थी।९।


*गीताप्रेस स्थापना*


तत्व ज्ञान गीता का पाकर,हुआ सुवासित जीवन था,

जन-मन में कण विकसित करना,भाव प्रबल उनका धन था,

गहन सीप में बसती मानो,गीता पुस्तक मोती थी,

उत्कंठा भक्तों को गीता,पढ़ने की नित होती थी।१०।


थी दूभर गीता की प्रतियाँ, प्रसरण में भी रोड़ा था,

निष्ठावान भक्त ने लेकिन, बाधाओं को तोड़ा था।

सुलभ मुल्य अरु स्वच्छ कलेवर,टंकण त्रुटियों रहित रहे,

सहज प्राप्त हो पाठक गण को,सही अर्थ के सहित रहे।११।


भक्तों के स्वाध्याय हेतु ही,निश्चित साधन ढूँढ़ लिया,

था उन्नीस सौ तेईस सन् जब,दुविधा का उपचार किया।

गोरखपुर में हुई स्थापना,गीता प्रेस नाम ठाना,

जीवन उद्धारक वचनामृत,घर-घर में था पहुँचाना।१२।


दिव्य दृश्टि हम कार्यप्रणाली,बुरी चला नहि पायेंगे,

अगर कार्य अच्छे हैं अपने,तो भगवान चलायेंगे।

कार्यक्षेत्र में हाथ बँटाने, स्वयं प्रभु ने रूप धरे,

विविध कार्य कर कमलों से कर,धर्म ग्रँथ भंडार भरे।१३।


सत् साहित्य तथा सद्भावों,धर्म हेतु विस्तार किया,

उनके करकमलों ने जग को,पुस्तक का भंडार दिया।

भाईजी मौसेरे भाई,सहज समर्पित थे आगे,

प्रभु सेवक निःस्वार्थ भाव से,योगदान करने लागे।१४।


धर्म सनातन गौरव संस्कृति,तत्व गूढ़ प्रेरित करते,

मुख्य द्वार है हस्तकला की,विविध शैलियों को भरते।

दीवारों पर संगमरमर की,पूरी गीता खुदवायी,

दोहे,चौपाई, प्रभु लीला,भक्तों के हिय को भायी।१५।


षोडसमन्त्र नाम जप करने,कल्याण पत्र प्रारम्भ हुआ।

दैवी गुण को ग्रहण कराने,साधक संघ आरम्भ हुआ।

कल्याणी "कल्याण" मासिका,विविध पुस्तकें छपती हैं,

सर्वाधिक ही धर्म पुस्तकें,अब तक वहीं पनपती हैं।१६।


*गीता भवन ऋषिकेश स्थापना*


माँ गंगा की निर्मल धारा,कल-कल नित जहँ बहती हों,

शुचितामय पावन मिट्टी भी,हरि गाथा बस कहती हों।।

कोलाहल से दूर कहीं बस,राम नाम को सुनना था,

ऐसी पावन पुण्य भूमि को,सत्संग हेतु चुनना था।१७।


उत्तराखण्ड पवित्र धरा पर,अद्भुत यह संयोग मिला,

ऋषिकेश स्वर्गाश्रम में तब,भाव भक्ति का पुष्प खिला।

सघन वनों से घिरा हुआ पथ,साधन जीवन के थोड़े,

प्रबल इरादों से भक्तों ने,बाधाओं से मन जोड़े।१८।


गंगा तट वटवृक्ष अलौकिक,परम् शांतिप्रिय स्थान लगा,

पूज्य सेठजी के मन में तब,प्रभु का ही संदेश जगा।।

गीता भवन नींव रख डाली,पुण्य काज उनके न्यारे।

भगवत्चिंतन हिय में धारे,भक्त लगे आने सारे।१९।


भक्तों की सुख सुविधा के हित,साधन जुटते गये सभी,

उसी नींव पर खड़े हुए हैं,सातों गीता भवन अभी।

दुर्लभ मानव जीवन सद्गति,सत्संगत से होती है,

अंधकार को दूर भगाये, सत्संग ऐसी ज्योति है।२०।


"प्रेरक प्रसंग"

(१)

एक बार हरिजन बस्ती में,आग लगी थी जोरों से,

हृदय फटा सुन बच्चों की तब,क्रंदन हाहाकारों से,

बस्ती नव-निर्माण कराया,खुशियाँ दामन में भर दी,

लेकिन हरिजन किस्मत ने भी,बार-बार हद ही कर दी।२१।

समझाया लोगों ने प्रभु भी,नहीं चाहते घर बनना,

था जवाब कर्तव्य निभायें,अहम कर्म पर दुख हरना।

तीन बार आवास जले थे,फिर निर्माण कराया था,

दुखियों को सहयोग दिया था,घर हर बार बसाया था।२२।

(२)

एक पड़ौसी रक्त पिपासु,अनबन उनसे रखता था,

लेकिन देवपुरुष निश्छल मन,सदा शान्त ही रहता था,

मंडा ब्याह कन्या का उसकी,बाराती आ पहुँचे थे,

घर वृद्धा परलोकगमन से,संकट बादल छाये थे।२३।


भूल गये सब बाराती को,दाह-क्रिया में लगे सभी,

सुनी सेठजी ने जब घटना,भागे स्टेशन तुरन्त तभी,

समुचित,सुंदर,सौम्य व्यवस्था,बाराती की करवाई,

उत्तर "क्या उपकार किया है,मेरी इज्जत थी भाई"।२४।


एक बार फल विक्रेता ने,छल से फल तौले थोड़े,

थी फटकार लगाई उसको,बातों के मारे कोड़े,

"बात नहीं कम फल हैं तौले,नरक सुनिश्चित लगता है,

देख अहित सकती नहि आँखें,अतिशय हृदय सुलगता है"।२५।

*उपंसहार*

बिन माँगे प्रभु सब देते हैं,माँग तुच्छता होती है,

भक्त सजग निष्काम भाव के,दिव्य प्रेम की ज्योति है।

प्रेरक जीवन के प्रसंग को,पढ़कर लाभ उठाना है,

मानव सद्गति एकमात्र बस,धारण करके पाना है।२६।


विज्ञ,तपस्वी,व्याख्याता वे,वक्ता थे सद्भावों के,

दृढ़ प्रतिज्ञ स्वयं रहते थे,अपने सभी सुझावों के।

गीता तत्व विवेचनी में सब,गीताजी के सार दिये,

रची गजल गीता भी उन ने,गीता अति लघु रूप लिये।२७।


खुद की मान बड़ाई से उठ,चले वही सच्चा साधक,

फोटो, स्मारक आदि बनाना,प्रभु पूजा में है बाधक।

गायत्री,गोविंदा,गंगा,गीता,गौ सेवा करना,

प्राण बसे थे इन पाँचों में,भाव,कर्म का यह झरना।२८।


कर्मक्षेत्र को धर्मक्षेत्र में,परिवर्तित जो करते हैं,

ऐसे दुर्लभ संत धरा पर,सदियों बाद विचरते हैं।

अमृत उपदेशों को उनके,जन-जन तक पहुँचाना है,

आत्मसात कर जीवन में भी,कर चरितार्थ दिखाना है।२९।


लगता है वो एक मिशन पर,प्रभु सेवक बन आये थे,

मानव जीवन उद्देश्यों को,कर धारण बतलाये थे।

"हंस अकेला उड़ जाएगा",रे मानव उद्धार करो,

सहज सुगम सद्गति पथ बढ़ना,लक्ष्य एक चित मांय धरो।३०।


अब भी विद्यमान कण-कण में,रहते थे वो कब तन में,

हृदय बसी गीता का मधुरस,बाँट रहे वो जन-जन में।

भौतिक तन से ऊपर उठकर,जिसने जग को तारा है,

हे संतों के संत आपको,शत-शत नमन हमारा है।३१।


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम





























Tuesday, June 29, 2021

मनहरण घनाक्षरी 'होली'


'मनहरण घनाक्षरी'


मंगल हो काज सारे, 

खुशियों के रंग डारे,

प्रीत का संदेशा देने,

आयी होली आयी है।


अपनों से प्रेम बढ़े,

मुख मुस्कान चढ़े,

राग,द्वेष,क्रोध,लोभ,

अगन लगायी है।


हर घर बृज धाम,

कृष्ण कहीं बलराम,

श्याम संग खेलने को,

राधा रंग लायी है।


फगुआ की छटा न्यारी,

लगे धरा बड़ी प्यारी,

प्रीत का त्योंहार होली,

सबको ही भायी है ।


होली के हैं रंग ऐसे,

प्रेम में हिलौर जैसे,

अंग-अंग नाच रहा,

प्रीत चहुँ ओर है।


चंग से तरंग आयी,

गीतों की बहार छायी,

जुड़ गये मन सारे,

प्रेम की ये डोर है।


सखियों के संग-संग,

गौरिया उछाले रंग,

होली की नवल छटा,

केशरी ये भोर है।


उल्लसित रग-रग,

थिरक रहें हैं पग,

जोश की अगन यहाँ,

लगी पुरजोर है।


लहंगा है लाल रंग,

नीली चुनड़ी के संग,

गाल गुलाबी गौरी के,

लगते कमाल है।


तीखे कजरारे नैन,

छीनते सभी का चैन,

लगा रहे चार चाँद,

सुनहरी बाल है।


रंग मेहंदी पे चढ़ा,

प्रेम पियाजी का बढ़ा,

फगुआ में बबुआ का,

सतरंगी हाल है।


रंगा-रंग है ये होली, 

सबकी ही हमजोली,

जलते कपट सारे,

प्रेम की ये ढाल है।


शुचिताअग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Monday, June 28, 2021

पंचिक, "फूफा"

 'पंचिक'

परिभाषा फुफे की क्या हँस पूछा जीजा ने।

हँसी में कही ये बात गाँठ बाँधी फूफा ने,

भूत रूप जीजे का फूफा,

भूली बिसरी यादों सा,

जैसे चिल्ले को सब भूले ले ली जगह पिज्जा ने।

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पंचिक विधान-

पंचिक की पंक्तियाँ किसी भी मात्रिक या वर्णिक विन्यास में बँधी हुई नहीं होती है। फिर भी लयकारी की प्रमुखता है। पंक्तियों के वाचन में एक प्रवाह होना चाहिए। यह लय, गति ही इसे कविता का स्वरूप देती है।

 पंक्ति संख्या 1, 2, 5 में प्रति पंक्ति 14 से 18 तक वर्ण रख सकते हैं। यह ध्यान रहे कि लय रहे। 14 वर्ण हो तो गुरु वर्ण के शब्द अधिक रखें, 18 वर्ण हो तो लघु वर्ण के शब्द अधिक प्रयोग करें। इससे मात्राएँ समान होकर लय सधी रहेगी। पंक्ति संख्या 3 और 4 में प्रति पंक्ति 7 से 13 वर्ण तक रख सकते हैं।

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शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


चौपई (जयकरी) छन्द,'खेलो कूदो

   (बाल कविता)

होती सबकी माता गाय,

दूध पीओ मत पीना चाय।

लम्बी इसकी होती पूँछ, 

जितनी मुन्ने की है मूँछ।


खेलो कूदो गाओ गीत,

गरमी जाती आती शीत।

मोटे कपड़ों में है धाक,

वरना बहती जाती नाक।


गुड़िया रानी खेले खेल,

छुक छुक करती आई रेल।

ताजा लौकी,भिंडी साग,

लेकर आई पूरा बाग।


दादी माधव लेती नाम,

तोता बोले सीता राम।

मुन्ने जितने प्यारे मान,

सुंदर होते हैं भगवान।

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चौपई छन्द विधान-

चौपई एक मात्रिक छन्द है। इस छन्द में चार चरण होते हैं। चौपई छन्द से मिलते-जुलते नाम वाले अत्यंत ही प्रसिद्ध सममात्रिक छन्द चौपाई से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये। चौपई के प्रत्येक चरण में 15 मात्राओं के साथ ही प्रत्येक चरण में समापन एक गुरु एवं एक लघु के संयोग से होता है।

चौपाई के चरणान्त से एक लघु निकाल दिया जाय तो चरण की कुल मात्रा 15 रह जाती है और चौपाई छन्द से मिलता जुलता नाम चौपई हो जाता है। इस तरह चौपई का चरणांत गुरु-लघु हो जाता है। यही इसकी मूल पहचान है। अर्थात् चौपई 15 मात्राओं के चार चरणों का सम मात्रिक छन्द है,जिसके दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिये।

 इस छंद का एक और नाम जयकरी या जयकारी छन्द भी है।

यह चौपई छन्द का विन्यास होगा-

तीन चौकल + गुरु-लघु

एक अठकल + एक चौकल + गुरु-लघु

22 22 22 21

चौपई छन्द के सम्बन्ध में एक तथ्य यह भी सर्वमान्य है कि चौपई छन्द बाल साहित्य के लिए बहुत उपयोगी है, क्योंकि इसमें गेयता अत्यंत सधी होती है। 

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शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम



Saturday, June 26, 2021

'गोपी छंद' ' गोपियों की शर्तें

   "गोपी छंद"

गोपियों ने मिलकर ठाना,

श्याम से शर्तें मनवाना,

पकड़ में आज तनिक आया,

दूध,दधि जमकर जब खाया।


कहा सखियों ने सुन कान्हा,

भूल अब हमको मत जाना,

नाच नित हमें दिखाओगे,

वेणु की तान सुनाओगे।


चराने गाय चले जाते,

साँझ ढलने पर ही आते,

बाट कब तक देखें तेरी,

हमें भी होती है देरी।


बाँधकर रख लेंगे तुमको,

सताया अब से जो हमको,

आज से वचन हमें देना,

पहर आठों सुधि तुम लेना।


शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

गोपी छंद 'बनाकर लक्ष्य बढ़ो आगे'

  गोपी छंद 'बनाकर लक्ष्य बढ़ो आगे'  

तप्त सूरज की किरणें हों,

अँधेरे चाहे जितने हों,

सवेरा है तब जब जागे,

बनाकर लक्ष्य बढ़ो आगे।


प्रेरणा का दामन पकड़े,

हौंसलों की हिम्मत जकड़े,

राह में रोड़े जो आये,

हटाते चल बिन घबराये।


निखरने को पड़ता तपना।

आँख में पकड़ रखो सपना। 

धीर धर कष्ट सभी सहना। 

चोट खा स्वर्ण बने गहना।।


सुगम जो मार्ग दिखाते हैं,

वही नायक कहलाते हैं,

कार्य में उत्सुकता होती,

श्रेष्ठ जिसमें दृढ़ता होती।

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गोपी छन्द विधान-

यह मापनी आधारित प्रत्येक चरण पंद्रह मात्राओं का मात्रिक छन्द है। 

आदि में त्रिकल (21 या 12),अंत में गुरु/वाचिक(२२ श्रेष्ठ)अनिवार्य है।

आरम्भ में त्रिकल के बाद समकल, बीच में त्रिकल हो तो समकल बनाने के लिए एक और त्रिकल आवश्यक होता है।

इसका वाचिक भार निम्न है-

3(21,12)2 2222 2(s) -15 मात्राएँ।

चूंकि यह मात्रिक छन्द है अतः गुरु को दो लघु में तोड़ा जा सकता है। 

दो-दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिये।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम



Saturday, June 5, 2021

चित्रपदा छन्द,गुरु वंदना

हे गुरुदेव विधाता,

ज्ञान सुधा रस दाता।

मात,पिता तुम भ्राता,

जीवन ज्योत प्रदाता।


नित्य करे पर सेवा,

युग संचालक देवा।

सत्य सदा वरदाता,

हे गुरुदेव विधाता।


सार्थक पाठ पढ़ाते,

सत्पथ वो दिखलाते।

बुद्धि विवेक अगाथा,

हे गुरुदेव विधाता।


है भगवान पधारे,

रूप गुरु खुद धारे।

शीश झुका जग ध्याता,

हे गुरुदेव विधाता।


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम


चित्रपदा छन्द विधान-

8 वर्ण,चार चरण

दो-दो समतुकांत

211 211 2 2


Friday, June 4, 2021

चित्रपदा छन्द,गुरु वंदना

 हे गुरुदेव विधाता,

ज्ञान सुधा रस दाता।

मात,पिता तुम भ्राता,

जीवन ज्योत प्रदाता।


नित्य करे पर सेवा,

युग संचालक देवा।

सत्य सदा वरदाता,

हे गुरुदेव विधाता।


सार्थक पाठ पढ़ाते,

सत्पथ वो दिखलाते।

बुद्धि विवेक अगाथा,

हे गुरुदेव विधाता।


है भगवान पधारे,

रूप गुरु खुद धारे।

शीश झुका जग ध्याता,

हे गुरुदेव विधाता।


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम


(चित्रपदा छन्द विधान-

8 वर्ण,चार चरण

दो-दो समतुकांत

211 211 2 2)


Monday, May 31, 2021

माधव मालती छन्द, 'नारी शौर्य गाथा'

 माधव मालती छन्द,'नारी शौर्य गाथा'


कष्ट सहकर नीर बनकर,आँख से वो बह रही थी।

क्षुब्ध मन से पीर मन की, मूक बन वो सह रही थी।

स्वावलम्बन आत्ममंथन,थे पुरुष कृत बेड़ियों में।

एक युग था नारियों की,बुद्धि समझी ऐड़ियों में।


आज नारी तोड़ सारे बन्धनों की हथकड़ी को,

बढ़ रही है,पढ़ रही है,लक्ष्य साधें हर घड़ी वो।

आज दृढ़ नैपुण्य से यह,कार्यक्षमता बढ़ रही है।

क्षेत्र सारे वो खँगारे, पर्वतों पर चढ़ रही है।


नभ उड़ानें विजय ठाने, देश हित में उड़ रही वो,

पूर्ण करती हर चुनौती हाथ ध्वज ले बढ़ रही वो।

संकटों में कंटकों से है उबरती आत्मबल से,

अब न अबला पूर्ण सबला विजय उसकी शौर्यबल से।


राष्ट्र सेवक मार्गदर्शक हौंसलों के पर लगाय,

अड़चनों से दुश्मनों के होश देती वो उड़ाय।

शान भी अभिमान भी वह देश का सम्मान नारी,

आज कहता विश्व सारा है गुणों की खान नारी।।

■■■■■■■■■

माधव मालती छन्द विधान-

यह मापनी आधारित मात्रिक छन्द है।

इसकी मापनी निम्न है-

2122 2122 2122 2122

चूंकि यह मात्रिक छन्द है अतः गुरु वर्ण (2) को दो लघु (11) में तोड़ा जा सकता है।

इसके चार चरण होते हैं, जिनमें दो-दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिए।

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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Thursday, May 27, 2021

लावणी छन्द, ओळयूं

परणाई मां कुण कुणै में,

दीसै नाहीं  भायल्यां।

बालपणो हो जिण स्यूं म्हारो,

चेतै आवै बै गळयां।


बाबुल म्हानै लाड लडायो,

कोड याद काको सा रा,

सीख बसी मां हिव में थांरी,

खाट चिलम दादोसा रा।


आंगण री बा महक बुलावै,

हाथां रै माटी लिपटी।

खोखा सांगर ग्वांर बाजरो,

गाछां स्यूं रहती चिपटी।


पीळी रैतां रा बे धोरा,

मोर नाचता देखूं माँ।

तीजां रा झूला झूलण नै,

बाट जोवंता तरसूं माँ


घींदड़ घूमर कद रंमूला,

खिंपोली घुड़लो गास्या।

गणगौरां रा मेळा देखण,

मां आपां दोन्यूं जास्यां।


गाँव आपणो कद ना दीसै,

आंख्यां म्हांरी तरस रही।

रेत सुनैहरी उजळी किरण,

सोने बरगी सरस रही।


घाघरिया ओढणिया म्हांरा,

रंग पड़ग्या फीका  माई।

रोय रही थांरी चिड़कली,

बळै काळजो म्हारो माई।


बापूसा थे ठेठ सासरै,

लेवण म्हानै आवो सा।

ओळयूं मां थांरी आवै जी,

लाडल गळे लगावो सा।



डॉ. शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

लावणी छन्द,माता कौशल्या के उद्गार

राम लला बिन तेरे माँ को, लगता जग ये सूना है।

टीस हृदय में रह-रह उठती, तुम बिन स्वाद अनूना है।

सूख गया अँखियों का पानी,भूल गयी सुध ही अपनी।

एक काम अब राम नाम की, आठ पहर माला जपनी।।


कैसी होगी मेरी सीता, क्या उसने खाया होगा।राजकुमारी ने जंगल में, कितना ही दुख है भोगा।

लखन सलोना निर्मल मन का, याद बहुत ही आता है।

यादों का झोंका आ-आ कर, मुझे चिढ़ा कर जाता है।


मन्दिर की घण्टी भी धीमी, दीपक निर्बुझ लगता है।

आहट तेरी ही सुनने को, सारा आलम जगता है।।

फूल खिले ना बरसा पानी,हँसी ठिठोली चली गयी।

राम अयोध्या बाट जोहती,कब आयेगी भोर नयी।।


डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम


मोदीजी

 नये सोपान की सत्ता रखे आबाद भारत को,

नहीं है अब किसी में दम करे बर्बाद भारत को।


लगा ले जोर कितना ही दबा सकते नहीं सच को,

जलेगी होलिका फिर से मिला प्रह्लाद भारत को।


कभी गैरों के बंधन में,कभी अपनों के चंगुल में,

बड़ी शिद्दत से देखुँ अब,मेरे आज़ाद भारत को।


हमारे देश की मिट्टी,महकती जिनकी रग-रग में,

दिया धरती ने अपना लाडला औलाद भारत को।


किसी की बाजुओं में दम उठाकर आँख देखे तो,

धराशाही करे पल में मिला फौलाद भारत को।


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"


मुक्त कविता, दोस्त

 मन में खयाल आते ही जिनका,

होठों पर मुस्कान आ जाती है।

छोड़ गई जो उम्र हमें,

पल भर में फिर लौट आती है।

बचपन बिन सहारे उनके

दो कदम नहीं चल सकता ।

अटूट रिश्तों का सागर ये,

किसी मोड़ पर नहीं रुकता।

   दोस्त थे तो बचपन था......

   दोस्त है तो जवानी है......

   दोस्त रहेंगे तो.....बुढापा आ ही नहीं सकता।


डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"


ताटंक छन्द मुक्तक,पृथ्वी

जल फल नग पशु जीव कली खग,

पृथ्वी सबकी माता है।

बोझ अकेले सबका सहकर,

पालन करना भाता है।

मर्यादा की सीमा मानव,

प्रतिपल तुमने लाँघी है।

अपना क्या अस्तित्व धरा बिन,

समझ नहीं क्यूँ आता है।


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप

मुक्तक भक्ति, कब आओगे श्याम

 व्याकुल हों तरसे जिया,कब आओगे श्याम।

सुध-बुध खो मैं बावरी,ढूँढूँ आठों याम।

पलकें स्वागत में बिछी,पिया मिलन की आस,

आधा तुम बिन साँवरे, राधा का भी नाम।

डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

मुक्तक, कोरोना

 वक्त चला यह जायेगा, 

बस हिम्मत थोड़ी सी रखलो।

दौर है मुश्किल,साथ निभाना,

मन में प्रण इतना करलो।

कितने हमसे बिछड़ गये,

अब और बिछड़ नहीं पायें बस,

छोड़ो जाति,प्रान्त,भाषा को,

जन हित मुश्किल भी सहलो।

डॉ. शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"



दोहे,माँ जानकी

जनक सुता प्रिय जानकी,रामचन्द्र भरतार।

सब कष्टों से है भरा,इनका जीवनसार।।


कष्टों का पर्याय ही,नारी जीवन मान।

क्या निर्धन क्या धनवती,सब खोती अभिमान।।


दया,धैर्य,संयम,क्षमा,नारी गहने चार।

जो धारण करती वही,भवसागर हो पार।।


दिव्य रूप की थी धनी,पतिव्रत धर्म महान।

मात जानकी का करे,सकल जगत गुणगान।।


मात जानकी ने दिया,सबको यह संदेश।

विचलित होना है नहीं,चाहे जो परिवेश।।



डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


सुर घनाक्षरी, नेताजी

 (विधान -8-8-8-6 वर्ण)

नेताजी ये बड़े-बड़े,

चुनावों में होते खड़े,

रखते छुपाके राज,

मायावी जाल है।


चेहरे पे चेहरा है,

काम सारा दोहरा है,

पीठ पीछे चोरी वाला,

काला ही माल है।


नशे में है सराबोर,

हिंसा पे भी चले जोर,

बात को दबाने हेतु,

खाखी दलाल है।


आँखे खोलो जगो देश,

 बदलो ये परिवेश,

  पाँच साल जनता के,

  नौचते ये बाल हैं ।

डॉ. शुचिता अग्रवाल,"शुचिसंदीप"

मोदीजी,लावणी छन्द

राजनीति की ए बी सी डी नहीं जानती मैं लेकिन,

मोदीजी में रब दिखता है,वो है तो है सब मुमकिन।

जब-जब दुष्ट बढ़े धरती पर,राम जन्म ले आते हैं।
सारे दानव उन्हें भगाने,मिलकर जोर लगाते हैं।
अमित शाह लक्ष्मण से भाई,भरत समान खड़े योगी,
हम हिन्दू वाकिफ है इससे,विजय राम की ही होगी।


डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"

कुकुभ छंद "शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय"

     कुकुभ छंद

"शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय"


जब-जब दुष्ट बढ़े धरती पर, सुख कोने में रोता है।

युग उन्नायक कलम हाथ में, लेकर पैदा होता है।।

सन् अट्ठारह सौ छिय्यत्तर, जन्म शरद ने था पाया।

मोतीलाल पिता थे उनके, भुवनमोहिनी ने जाया।।


जब पीड़ा वंचित समाज की, अपने सिर को धुनती थी।

मूक चीख तब नारी मन की, शरद लेखनी सुनती थी।।

जाति-पाँति का भेदभाव भी, विचलित उनको करता था।

सबसे ऊँची मानवता है, मन में भाव उभरता था।।


घोर विरोध समाज  किया जब, ग्रंथ 'चरित्र हीन' आया।

बने शिकार ब्रिटिश सत्ता के, जब 'पथेर दावी' छाया।।

ख्याति मिली रच 'निष्कृति', 'शुभदा', 'देवदास' अरु 'परिणीता'।

'चन्द्र नाथ', 'पल्ली समाज' रच, 'दत्ता' से जन-मन जीता।।


पर उपकार किया लेखन से, लेखन पर जीवन वारा।

पुनर्जागरण आंदोलन से, जन-मानस जीवन तारा।।

ऐसे नायक युगों-युगों तक, प्रेरित सबको करते हैं।

धन्य-धन्य ऐसे युग मानव, पर हित में जो मरते हैं।।

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कुकुभ छंद विधान -

कुकुभ छंद सम-मात्रिक छंद है। इस चार पदों के छंद में प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक पद 16 और 14 मात्रा के दो चरणों में बंटा हुआ रहता है। विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है। दो-दो पद की तुकान्तता का नियम है।

16 मात्रिक वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक चरण की अंतिम 4  मात्रा सदैव 2 गुरु (SS) होती हैं तथा बची हुई 10 मात्राएँ   अठकल + द्विकल होती हैं। ।  अठकल में दो चौकल या त्रिकल + त्रिकल + द्विकल हो सकता है।

त्रिकल में 21, 12 या 111 तथा

द्विकल में 11 या 2 (दीर्घ) रखा जा सकता है।

चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे।

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डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

हाइकु,कर्म

 5-7-5 वर्ण

कंश संहार

पड़ी कर्म की मार

हुआ लाचार।

डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप

हाइकु, दस्तूर

5-7-5 वर्ण

दुनिया क्रूर

काम क्रोध में चूर

यही दस्तूर।


डॉ. शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"

हाइकु, भाव

 विधान- (5-7-5 वर्ण)

पत्थर एक

भाव से माथा टेक

है भगवान।


मन की माला

है जग उजियाला

रहता फेर।


डॉ. शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप

तिनसुकिया,असम

Wednesday, May 26, 2021

कुण्डलिया, गीता

गीता प्राणी मात्र को,देती है संदेश,

द्वार खुले मन के सभी,जो सुनते उपदेश।

जो सुनते उपदेश,जीव सन्मार्ग समझते,

सांसारिक सुख भोग,सकल पापों से बचते।

समझा जिसने गूढ़,प्रेममय जीवन बिता,

सत चित अरु आनंद,मार्ग दिखलाती गीता।


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

#दोहे,कर्म

कर्म कंश संहार है,कर्म कृष्ण भगवान।

जैसी जिसकी जीवनी,वैसा ही सम्मान।।


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

Tuesday, May 25, 2021

कामरूप छन्द, 'माँ की रसोई'

 कामरूप/वैताल छन्द


माँ की रसोई,श्रेष्ठ होई,है न इसका तोड़,

जो भी पकाया,खूब खाया,रोज लगती होड़।

हँसकर बनाती,वो खिलाती,प्रेम से खुश होय,

था स्वाद मीठा,जो पराँठा, माँ खिलाती पोय।


खुशबू निराली,साग वाली,फैलती चहुँ ओर,

मैं पास आती,बैठ जाती,भूख लगती जोर।

छोंकन चिरौंजी,आम लौंजी,माँ बनाती स्वाद,

चाहे दही हो,छाछ ही हो,कुछ न था बेस्वाद।


मैं रूठ जाती,वो मनाती,भोग छप्पन्न लाय,

सीरा कचौरी या पकौड़ी, सोंठ वाली चाय।

चावल पकाई,खीर लाई,तृप्त मन हो जाय,

मुझको खिलाकर,बाँह भरकर,माँ रहे मुस्काय।


चुल्हा जलाती,फूँक छाती,नीर झरते नैन,

लेकिन न थकती,काम करती,और पाती चैन।

स्वादिष्ट खाना,वो जमाना,याद आता आज,

उस सी रसोई,है न कोई,माँ तुम्ही सरताज।

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कामरूप/वैताल छन्द विधान-

यह 26 मात्राओं के चार पदों का सम पद मात्रिक छंद है, दो-दो या चारों पदों पर तुकान्तता रहती है।पदों की यति 9-7-10 पर होती है,यानि प्रत्येक पद में तीन चरण होंगे,पहला चरण 9 मात्राओं का, दूसरा चरण 7 मात्राओं का तथा तीसरा चरण 10 मात्राओं का होगा।

पदांत या तीसरे या आखिरी चरण का अंत गुरु-लघु (2 1) से होता है।

पदों की मात्राओं के आंतरिक विन्यास के अनुसार 

पहले चरण का प्रारम्भ गुरु या लघु-लघु से होना चाहिए।

 दूसरे चरण का प्रारम्भ गुरु-लघु से हो यानि, दूसरे चरण का पहला शब्द या शब्दांश ऐसा त्रिकल बनावे जिसका पहला अक्षर दो मात्राओं का हो।

तीसरे चरण का प्रारम्भिक शब्द भी त्रिकल ही बनाना चाहिए लेकिन इस त्रिकल को लेकर कोई मात्रिक विधान नहीं है. अर्थात, प्रारम्भिक शब्द 21 या 12 हो सकते हैं।

22122,2122,2122 21 (अतिउत्तम)

आंतरिक यति भी समतुकांत हो तो छन्द अधिक मनोहारी बन सकता है लेकिन यह आवश्यक नहीं है।

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शुचिता अग्रवाल,शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम




Sunday, May 23, 2021

#ताँका_जापानीविधा, मन

 दुखता मन

है दुखती आँख सा,

हवा से पीड़ा

व्यंग वाणी बेधती

हृदय क्रीड़ा।


डॉ. शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

#ताँका_जापानीविधा, मानवता

 5-7-5-7-7


विधान-5-7-5-7-7


ईश्वर सत्ता

प्रत्यक्ष विद्यमान

मन टटोलें

होगा इसका भान

मानवता है नाम


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम


Saturday, May 22, 2021

सायली,राजनैतिक

कमलनाथ

चिन्ह हाथ

देश को गाली

पड़ेगी भारी

सर्वनाश।

डॉ. शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

#सायली, कोरोना

विधान-1-2-3-2-1 शब्द

(1)

कोरोना

चीनी वायरस

युद्ध स्तरीय चाल

विश्व सम्पूर्ण

बेहाल।


डॉ. शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम






#रसाल_छन्द, प्रकृति से खिलवाड़

 सुस्त गगनचर घोर,पेड़ नित काट रहें नर,

विस्मित खग घनघोर,नीड़ बिन हैं सब बेघर।

भूतल गरम अपार,लोह सम लाल हुआ अब,

चिंतित सकल सुजान,प्राकृतिक दोष बढ़े सब।


दूषित जग परिवेश, सृष्टि विषपान करे नित।

दुर्गत वन,सरि, सिंधु,कौन समझे इनका हित,

है क्षति प्रतिदिन आज,भूल करता सब मानव,

वैभव निज सुख स्वार्थ,हेतु बनता वह दानव।


होय विकट खिलवाड़,क्रूर नित स्वांग रचाकर।

केवल क्षणिक प्रमोद,दाँव चलते बस भू पर,

मानव कहर मचाय,छोड़ सत धर्म विरासत

लोलुप मन विकराल,दुष्ट गढ़ता नित आफत।


संकट अति विकराल,होय अब मानव शोषण,

भोग जगत परिणाम,रोग अरु घोर कुपोषण।

क्रूर प्रलय जग माय,प्राण बचने अब मुश्किल,

आज जगत असहाय,जीव दिखते सब धूमिल।


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

रसाल छन्द विधान-(वार्णिक छन्द)

211 111 121,211 121 1211

चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत


#सरसी_छन्द, वक्त सुधरता जाय

कुछ पहले से सुधर गया है,वक्त सुधरता जाय,

अडिग न हो विश्वास ध्यान रख,मत इतना घबराय।


धीरज धर हिम्मत रख ज्यादा,मत कर हाहाकार,

पतझड़ सहकर ही पाते वन,मधुमासी उपचार।

काल-चक्र चलता रहता है,नित आती नव भोर,

अँधियारे को जाना पड़ता,हों चाहे घनघोर।

हमें जीतना ही अब होगा,मत समझो असहाय,

अडिग न हो विश्वास ध्यान रख,मत इतना घबराय।


फिर विकास की होंगी बातें,गायेंगे नवगीत,

हाथ मिलाकर गले लगेंगे,सारे ही मनमीत।

महामारी की उम्र क्षणिक है,जीवन यह अनमोल,

रखो हौंसलों के दरवाजे,प्रतिपल प्यारे खोल।

जंग जीत यह हम जायेंगे, मंगल थाल सजाय,

अडिग न हो विश्वास ध्यान रख,मत इतना घबराय।


डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

Friday, May 21, 2021

सरसी छंद, 'हे नाथ'

सरसी छंद

 'हे नाथ' 


स्वार्थहीन अनुराग सदा ही, देते हो भगवान।

निज सुख-सुविधा के सब साधन, दिया सदा ही मान।।

करुण कृपा बरसा कर मुझपर, पूरी करते चाह।

इस कठोर जीवन की तुमने, सरल बनायी राह।।


कभी कहाँ संतुष्ट हुई मैं, सदा देखती दोष।

सहज प्राप्त सब होता रहता, फिर भी उठता रोष।।

किया नहीं आभार व्यक्त भी, मैं निर्लज्ज कठोर।

मर्यादा की सीमा लाँघी, पाप किये अति घोर।।


अनदेखा दोषों को करके, देते हो उपहार।

काँटें पाकर भी ले आते, फूलों का नित हार।।

एक पुकार उठे जो मन से, दौड़ पड़े प्रभु आप।

पल में ही फिर सब हर लेते, जीवन के संताप।।


करो कृपा हे नाथ विनय मैं, करती बारम्बार।

श्रद्धा तुझमें बढ़ती जाये, तुम जीवन सुखसार।।

तेरा तुझको सबकुछ अर्पण, नाथ करो कल्याण।, हाथ पकड़ मुझको ले जाना, जब निकलेंगे प्राण।।

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सरसी छंद विधान-


सरसी छंद चार चरणों का सम पद मात्रिक छंद है। जिस में प्रति चरण 27 मात्रायें होती है। 16 और 11 मात्रा पर यति होती है अर्थात प्रथम यति खण्ड 16 मात्रा का तथा द्वितीय यति खण्ड 11 मात्रा का होता है। दो दो चरण समतुकान्त होते हैं। 

मात्रा बाँट इस तरह है-


16 मात्रिक पद ठीक चौपाई वाला चरण और 11 मात्रा वाला ठीक दोहा का सम-पद होगा। 

छंद के 11 मात्रिक खण्ड की मात्रा बाँट 8+3 (ताल यानी 21) होती है।

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शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Sunday, May 16, 2021

लावणी छंद " राधा-कृष्ण"

लावणी छंद 

"राधा-कृष्ण"


लता, फूल, रज के हर कण में, नभ से झाँक रहे घन में।

राधे-कृष्णा की छवि दिखती, वृन्दावन के निधिवन में।।

राधा-माधव युगल सलोने, निशदिन वहाँ विचरते हैं।

प्रेम सुधा बरसाने भू पर, लीलाएँ नित करते हैं।।


छन-छन पायल की ध्वनि गूँजे, मानो राधा चलती हों।

या बाँहों में प्रिय केशव के, युगल रूप में ढलती हों।।

बनी वल्लरी लिपटी राधा, कृष्ण वृक्ष का रूप धरे।

चाँद सितारे बनकर चादर, निज वल्लभ पर आड़ करे।।


इतराये तितली अलि गूँजे, फूलों का रसपान करे।

कुहक पपीहा बेसुध नाचे, कोयल सुर अति तीव्र भरे।।

कोमल पंखुड़ियाँ खिल उठती, महक उठा मधुवन सारा।

नभ से नव किसलय पर  गिरती, ओस बूँद की मृदु धारा।।


जग ज्वालाएं शांत सभी हों, दिव्य धाम वृन्दावन में।

परम प्रेम आनंद बरसता, कृष्ण प्रिया के आँगन में।।

दिव्य युगल के गीत जगत यह, अष्ट याम नित गाता है।

'शुचि' मन निर्मल है तो जग यह, कृष्णमयी बन जाता है।।


शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम


Wednesday, May 12, 2021

मुक्त कविता, पति से आग्रह

आप यूँ गुमसुम न बैठा करो,

घर पर उदासी छा जाती है।

चिंताओं को साथ न लाया करो,

वो क्या है न कि-

अपने घर की रौनक चली जाती है।


इस गमगीन से माहौल में,

अपनी बिटिया भी सहम सी जाती है।

खुशियों का पिटारा दिन भर जो भरा उसने,

वो क्या है न कि-

डरकर आपको दिखाना ही भूल जाती है।


आपके घर आने से पहले,

माँ-पिताजी भी अपना काम निपटा लेते हैं।

दिनचर्या आपको सुनाने को व्याकुल थे,

लेकिन वो क्या है न कि-

आपको उदास देख चुपचाप सो जाते है़ं।


आपके हँसते चेहरे को देख,

पूरे परिवार को खुशी मिल जाती है।

माना आपने हमारी सब जरूरतें पूरी की,

लेकिन वो क्या है न कि-

आपकी उदासी हमारी खुशियाँ छीन लेती है।


एक अज्ञानी, नासमझ गृहणी ही हूँ मैं,

माना आपके क्षेत्र का ज्ञान नहीं है मुझे।

यूँ तो जिंदगी कट ही रही है हरपल,

लेकिन वो क्या है न कि-

खुश होके जीओ तो बेहतर बन जाती है।

शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'



तिनसुकिया(असम)


हास्य,मोबाइल

क्या कहूँ मेरे हमसफ़र मोबाइल,

तुझमें हर रिश्ते सिमटने लगे।

बच्चे और पति भी अब तो,

तुझमें ही नजर आने लगे।


उठते ही सुबह सबसे पहले,

अपने हाथों में तुम्हें उठाती हूँ।

चार्जर रूपी कप से तुमको,

पहले चाय पिलाती हूँ।


बिगड़ जाये कभी सेहत तुम्हारी,

तो पागल मैं हो जाती हूँ।

सर्विस सेंटर नामक हॉस्पिटल में,

बड़े डॉक्टर को दिखलाती हूँ।


व्हाट्सऐप रूपी दिल की धड़कन,

कैमरा रूपी कोर्निया दिखाती हूँ।

अंग- अंग तेरा सहला -सहला कर,

डॉक्टर से पूरा चेकअप करवाती हूँ।


सोचो तुम्ही न होते तो क्या,

सबसे मैं यूँ जुड़ पाती?

चार दिवारी में रहकर भी क्या,

विश्व भ्रमण मैं कर पाती?


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम


हास्य,सेल्फी

आगे सेल्फी, पीछे सेल्फी, ऊपर -नीचे दाएँ-बाएँ सेल्फी।

क्या जवान क्या बच्चे भाई, दादी-दादा अब लेते सेल्फी।


स्टूडियो की छुट्टी हो गयी, मोबाइल कैमरा जबसे आया।

खींचने वाले की जरूरत नहीं, सेल्फ डिपेंड का जमाना आया।


बँदरिया सा मुह बनाकर कुछ पाउट पाउट कहती है।

जीभ निकाले फिर आँख चढ़ाकर सेल्फी वो ले लेती है।


बक बक बीवी की नहीं सुननी है, 

सेल्फी का मजा देखो।

पल में गुस्से को छोड़ है देती, बीवी की अब हँसी देखो।


दादाजी की अंतिम साँसे, पर सेल्फी तो एक बनती है।

सैड इमोजी साथ स्टेटस अपलोड फेसबुक पर होती है।


दुर्घटनास्थल पर भी अब तो, डाक्टर से पहले सेल्फी लो।

चँद मिनटों में कमैंट्स और लाइक कितने आये ये गिनलो।


खाना-पीना, मंजन -नहाना और क्या क्या बतलाऊँ।

ये सेल्फी का बुखार दिमाग से कैसे सबका उतरवाऊँ।


नदियों, छतों और ट्रेनों पर भी इतना क्यूँ हो झुक जाते।

सेल्फी लेते लेते अपनी तस्वीर को माला क्यूँ पहना जाते।।


शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया,असम


हास्य,सासु माँ

भरी जवानी मजे उड़ाये,

हर साल महीनों घूम के आये,

थककर यौवन जब सूख गया तो

बहू लाने के सपने सजाये।

रंगीन मिजाज की सासू माँ,  

बहू सीधी सी लाना  चाहे।


पति मेरा सासु के वश में,

श्रवण कुमार घोर कलयुग में,

बन्धन में कैसे रखते पत्नी को,

सीखे सोकर माँ की गोदी में,

भूल गयी सासू माँ मेरी सब,

स्वयं बहू कभी थी इस घर में।


सासु माँ ने कदर न जानी,

बहू को बेटी कभी न मानी,

हर काम में नुक्स निकाला करती,

अपने मन की करने की ठानी,

हर बात की होड़ बहू से करती,

बुढापे में वो करती नादानी।


कब तक घुट कर बहू भी रहती,

अपने दिल की कभी तो सुनती,

पंख फैलाकर उड़ने वो निकली,

सासू  की भौहें क्रोध में टनती,

तानाशाही सत्ता का अंत आ गया,

ये सोच सोच सासू माँ डरती।


पिस गया घुण सा पति बेचारा,

माँ, पत्नी की धौंस का मारा,

कैसे इनकी सुलह कराऊँ,

कुछ सोचके फिर बोला वो प्यारा।

'माँ 'तुम देवी हो इस घर की,

लक्ष्मी सा रूप 'प्रिये' तुम्हारा।


दोनों इक सिक्के के पहलू हो,

बिना एक तुम कुछ भी नहीं हो।

सास , सास तब ही बन पाती,

पराई बिटिया जब बहू बन आती।

इस रिश्ते का सम्मान करो सब,

फिर देखो बहू कैसे बेटी बन जाती।


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया,असम


हास्य,पागल प्रेमी नहीं पति होता है।

प्रेमी जब वो हुआ करता था

उसके लक्षण कुछ ऐसे थे।

ज्यूँ प्यासा पानी को तरसे

कुछ सुने हुए से किस्से थे।


घड़ी घड़ी में फोन मिलाता

हर शाम साथ में मुझे घुमाता।

आँखें रस्ता तकती रहती थी, 

बिन माँगे उपहार वो लाता।

प्रेमी सुखद हवा का झोंका था,

स्पर्श से मृदंग बज उठते थे,

अलग अलग हम रहकर भी तब

मानो एक शरीर के हिस्से थे।


एक हुये हम विवाह हुआ,

खुशियाँ भी करवट लेती है।

धीरे धीरे प्रेम की अंधी

पट्टी आँखों से उतरती है।

बात बात पर खींचा तानी

क्रोध के बादल उमड़े थे।

प्रेम सूखकर पिंजर हो गया,

दिल मे चुभते अब शीशे थे।


रात रात अब देर से आना,

कैसी होटल कैसा सिनेमा।

उपहारों की शक्ल को देखे

जैसे बीत गया हो जमाना।

शब्द, परी कली और जानेमन

"पागल औरत" में बदले थे

पागल प्रेमी नहीं पति होता है,

शादी करके ही हम समझे थे।


डॉ. शुचिता अग्रवाल,"शुचिसंदीप"

तिनसुकिया,असम


हास्य,दामादजी

दामादजी तोरण का प्रतिरूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।।


मेरी लाडो के वो सरताज,

करे उसके मन पर वो राज,

उठाये बिटिया के सब नाज,

दबाये पाँव करे सब काज,

दामादजी सपनों का स्वरूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


सासु माँ देख देख हर्षाये,

पुत्र रूप दामाद में पाये,

न्यौछावर दौलत सारी कर जाये,

निवाला उस घर कभी न खाये,

दामादजी खुशियों का प्रारूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


पहन के सूट- बूट ये आते,

खुशियाँ लाख साथ में लाते,

छोटी साली को पास बैठाते,

नाच नाच सब इन्हें रिझाते,

दामादजी राजा का है रूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


अतिथि ये मन को अति भाये,

ब्राह्मण देव भी इनमें समाये,

अकड़ कर पूजा ये करवाये,

टीका, गट, दक्षिणा पाये,

दामादजी न्यौच्छावर कभी कूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


थोड़ी देर ही बस ये सुहाये,

कहीं नाराज न ये हो जाये,

यही सोच के मन घबराये,

बिदा करके ही चैन सा आये,

दामादजी ठंडाई कभी सूप,

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।


दामादजी तोरण का प्रतिरूप

कभी हैं छाँव कभी हैं धूप।।


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया,असम


Wednesday, May 5, 2021

मदिरा सवैया 'विदाई सीख'

मदिरा सवैया "विदाई सीख"


दामन में खुशियाँ भर के,

पिय आँगन जाय रही बिटिया।


नीर भरी अँखियाँ फिर भी,

मन में हरषाय रही बिटिया।


मंगल चावल दो कुल में,

हँस के बरसाय रही बिटिया।


छोड़ चली घर बाबुल का,

पिय द्वार सजाय रही बिटिया।



मात-पिता सम हैं समधी,

ससुराल लगे घर ही अपना।


काज सभी सुखदायक हों,

महको गुल सी सच हो सपना।


भाव भरा मन स्वच्छ रहे,

प्रभु नाम सदा मन में जपना।


ज्योत सदा हिय प्रेम जले,

शुचि स्नेह भरे तप को तपना।

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मदिरा सवैया विधान -

यह 22 वर्ण प्रति चरण का एक सम वर्ण वृत्त है। अन्य सभी सवैया छंदों की तरह इसकी रचना भी चार चरण में होती है और सभी चारों चरण एक ही तुकांतता के होने आवश्यक हैं।

यह सवैया भगण (211) पर आश्रित है, जिसकी 7 आवृत्ति और अंत में गुरु प्रति चरण में रहता है। इसकी संरचना 211× 7 + 2  है।

(211 211 211 211 211 211 211 2 )

सवैया छंद यति बंधनों में बंधे हुये नहीं होते हैं परंतु कोई चाहे तो लय की सुगमता के लिए इसके चरण में 10 -12 या 12 - 10 वर्ण के 2 यति खंड रख सकता है ।चूंकि यह एक वर्णिक छंद है अतः इसमें गुरु के स्थान पर दो लघु वर्ण का प्रयोग करना अमान्य है।

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शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया,असम


#गीतिका,सुहानी भोर

बह्र-122,21


सुहानी भोर,

छटा चितचोर।


खुला आकाश,

हवा पुरजोर।


विहग मदमस्त,

मचाये शोर।


बुझे पशु प्यास,

नदी का छोर।


कुहक कर दूर,

थिरकता मोर।


चले मनमीत,

भ्रमण की ओर।


प्रभो के हाथ,

जगत की डोर।


#शुचिताअग्रवाल #शुचिसंदीप

#तिनसुकिया

Sunday, May 2, 2021

विष्णुपद छन्द, 'फूल मोगरे के'

विष्णुपद छन्द,'फूल मोगरे के'


आँगन में झर-झर गिरते थे,फूल मोगरे के,

याद बहुत आते हैं वो दिन,पागल भँवरे के।


सुन्दर तितली आँखमिचौली,भँवरे से करती,

व्याकुल थी पर आँगन में वो,आने से डरती।


करदे जो मदहोश सभी को,खुश्बू न्यारी सी,

प्रेम हिलौर हृदय में उठती,अद्भुत प्यारी सी।


पुष्प ओस की बूँदें पाकर,झूम-झूम जाता,

अल्हड़ गौरी की बैणी पा,खुद पर इतराता।


खिले फूल सुरभित अति कोमल,धवल रूप धारे,

नई उमंगों में भर उठते,मुरझे मन सारे।


सुखद समीर सुगन्ध बिखेरे,खुशियाँ भर लाती,

'शुचि' मनमंदिर प्रेम तरंगें,प्रणय गीत गाती।

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विष्णु पद छन्द विधान-

विष्णु पद छन्द सम मात्रिक छन्द है। यह  26 मात्राओं का छन्द है जिसमें 16,10 मात्राओं पर यति आवश्यक है।, अंत में वाचिक भार 2 यानि गुरु का होना अनिवार्य है।कुल चार चरण होते हैं क्रमागत दो-दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिये।

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शुचिताअग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया,असम


Thursday, April 29, 2021

पञ्चचामर छन्द,हनुमान वंदना



उपासना करें सभी,महाबली कपीश की,

विराट दिव्य रूप की,दयानिधान ईश की।

कराल काल जाल से, प्रभो  उबार लीजिये,

अपार भक्ति दान की,कृपा सदैव कीजिये।


प्रदीप्त बाल सूर्य को,मुखारविंद में लिया,

पराक्रमी अबोध ने,डरा सुरेन्द्र को दिया।

किया प्रहार इंद्र ने,अचेत केशरी हुये,

प्रकोप वायु देव का,अधीर देवता हुये।


प्रसंग राम भक्त के,अतुल्य हैं,महान हैं,

विशुद्ध धर्म-कर्म के,अनेक ही बखान हैं।

अजेय शौर्य भक्ति का,प्रतीक आप ही बने,

प्रबुद्ध ज्ञान आपमें,समृद्ध धाम हैं घने।


मृदंग-शंखनाद ले,सुकंठ प्रार्थना करें,

विभोर भव्य आरती,अखण्ड दीप को धरें।

नमो नमामि वंदना,विराजमान आप हों,

सुबुद्धि,ज्ञान,शक्ति दें,अखंड नाम-जाप हों।

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पञ्चचामर छन्द विधान-

यह चार चरणों का वर्णिक छन्द है।इसका शिल्प विधान निम्न है-

लघु गुरु×8=16 वर्ण।

8+8 पर यति रखना आवश्यक है। चार या दो-दो चरण समतुकांत होते हैं।

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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया,असम


Wednesday, April 28, 2021

लावणी छंद, 'यादों की देवी'

मन मंदिर की चौखट पर ही,यादों की देवी रहती।

कभी हँसाती कभी रुलाती,जीवन के सुख-दुख कहती।।


रेतीले बचपन की लौरी, माँ बनकर वह गाती है।

दादी की लाठी की आहट,आँगन में सुनवाती है।।


गुड्डे-गुड़ियों के दिन प्यारे,छवि फिर से दिखने लगती।

मैं यादों की सोनपरी सँग, रात-रात भर हूँ जगती।।


बड़-पीपल की छाँव घनेरी,यादों की रानी लाई।

यौवन की मृदु चंचलता को,देख तनिक मैं शरमाई।।


मेरे गीतों के सुर साधक,प्रीतम मधुरिम यादों के।

मजबूरी थी मिलन कि या फिर,तुम झूठे थे वादों के।


भँवरे ने था फूल खिलाया,जिसे चुरा ले गया कोई।

यादों की देवी के प्यारे,जो होनी सो ही होई।


कंटक वन देवी बनकर वो,शूल चुभाया भी करती। 

मेरी आँखों में आँसू बन,झर-झर मुझ पर ही झरती।।


सुता शारदे की भी लगती,लगूँ बावली बूच कभी।

जीवन के लम्हे सतरंगी,बसे याद की गोद सभी।


हे यादों की रक्षक देवी,दुख क्यूँ याद कराती हो?

हार-हार कर मैं जीती हूँ, फिर क्यूँ मुझे हराती हो?


प्रौढ़ हुई पर बचपन यौवन,हँसकर ह्रदय लिपटता है।

हे फूलों की देवी तुझमें,जीवन सार सिमटता है।।


शुचि वंदन तेरे चरणों में,वास सदा अपना रखना।

जीवन के खट्टे-मीठे से,अनुभव सारे ही चखना।।


डॉ. शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम




लावणी छंद,हास्य मुक्तक"

बेग़म बोली शौहर से मत निकलो बेनकाब घर से,

दो गज की दूरी में रहना वधु बोली अपने वर से।

महिलाएं आदी सदियों से,पुरुषों को अब सिखा रही,

भेदभाव सारे ही टूटे, कोरोना के ही डर से।


डॉ.शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम

Tuesday, April 27, 2021

'होली बधाई'

1.

ज्यूँ होली सात रंगों की,रहे जीवन ये सतरंगी।

रहे उल्लास जीवन में,रहे रिश्ते सभी रंगी।

सभी खुशियों को लेकर के,ये होली आज आई है,

हमारी ओर से सबको,बधाई ही बधाई है।

2.

है बचपन की शरारत ये,कि यौवन की है अल्हड़ता,

भिगोदे सबको खुशियों से,है पिचकारी में ये क्षमता।

यूँ ही हँसते सदा रहना,निरोगी स्वस्थ काया हो,

मिले सातों ही सुख हरदम,रहे भरपूर माया हो।

रहे भगवान की किरपा,उन्हीं की छत्रछाया हो।

3.

है जितने रंग खुशियों के,लगादूँ आपको सारे,

मेरा मन ही ये जाने बस,कि कितने आप हो प्यारे,

है होली तो बहाना इक, दुआएं रोज देती हूं...

सभी खुशियाँ हों दामन में,प्रभु से माँग लेती हूँ।

4.

सजी धरती ये दुल्हन सी,

लगे अम्बर दिवाना सा।

लगे राधा सी तू बिटिया,

कि कान्हा संग सी जोड़ी।

मिले भरपूर सुख तुमको,

लगे हर दिन ही होली सा।

नई खुशियों का हर दिन ही,

मिले तुमको पिटारा सा।

5.

लाल रंग की चूनड़ी,गुलाबी हो श्रृंगार,

हरे घाघरे में जड़े, सोन रंग के तार,

चेहरा चाँदी जैसा तेरा,काले तेरे बाल,

तुझे सजाने सब रंग लाया,होली का त्योंहार।


डॉ. शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'

तिनसुकिया, असम



'दूल्हे -राजा'

दुल्हे राजा सजधज घोड़ी पर आये,
दुल्हन तिरछी नजरें कर क्यूँ शरमाये।

तोरण मार करे प्रवेश बड़े भागी,
गल वरमाला की आभा हिय में जागी।
नाच रहे बाराती घोड़ी के आगे,
भाई-बन्धु,चाचा-मामा जो लागे।
मंगलगान खुशी से बहनें सब गाये,
समधी-समधन देखो कितना हरषाये।
दुल्हे राजा सजधज घोड़ी पर आये,
दुल्हन तिरछी नजरें कर क्यूँ शरमाये।

फूलों की बरसात गगन से होती है,
भीगी आँखों के आँसू सब मोती है।
प्यारी साली नजर उतारण आयी है,
भाभी काजल नीमझड़ी झड़कायी है।
लाख दुआओं की सौगातें सब लाये,
मंगल सारे काज खुशी वर-वधु पाये
दुल्हे राजा सजधज घोड़ी पर आये,
दुल्हन तिरछी नजरें कर क्यूँ शरमाये।

#स्वरचित
डॉ.शुचिता अग्रवाल, 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम

(विधान-22 22 22 22 22 2)


विष्णुपद छंद 'मंजिल पाएंगे'

विष्णुपद छंद 'मंजिल पाएंगे'


आगे हरदम बढ़ने का हम, लक्ष्य बनायेंगे।
चाहे रोड़े हों राहों में, मंजिल पायेंगे।।

नवल सपन आँखों में लेकर, हम सोपान चढ़ें।
कायरता की तोड़ हथकड़ी, हम निर्भीक बढ़ें।।
जोश भरे कदमों की आहट, सकल विश्व सुनले।
मानवता की रक्षा के हित, नेक राह चुनले।।
विश्व शांति के लिए साथ हम, दौड़ लगायेंगे।
चाहे रोड़े हों राहों में, मंजिल पायेंगे।।

भारत का इतिहास सुनहरा, वीर सपूतों का।
राष्ट्रप्रेम जिन माताओं में, उनके पूतों का।।
वही रक्त नस-नस में सबके, अब भी भरा हुआ।
ले मशाल उठ बढ़ तू आगे, क्यूँ है डरा हुआ?
सबसे ऊँचा झंडा अपना, हम फहरायेंगे।
चाहे रोड़े हों राहों में,मंजिल पायेंगे।।

आजादी की कीमत हमने, पुरखों से जानी।
होता मेहनत का फल मीठा, बात सत्य मानी।।
कथनी करनी एक बनाकर, अडिग लक्ष्य चुनलें।
हम कर सकते,करना हमको, शुचि मन की सुनलें।।
नहीं किया जो काम किसी ने, हम कर जायेंगे।
चाहे रोड़े हों राहों में, मंजिल पायेंगे।।



शुचिता अग्रवाल,"शुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
Suchisandeep2010@gmail.com
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विष्णुपद छन्द विधान-

विष्णु पद छन्द सम मात्रिक छन्द है। यह  26 मात्राओं का छन्द है जिसमें 16,10 मात्राओं पर यति आवश्यक है।, अंत में वाचिक भार 2 यानि गुरु का होना अनिवार्य है।कुल चार चरण होते हैं क्रमागत दो-दो या चारों चरण समतुकांत होने चाहिये।
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शुचिता अग्रवाल,'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम






Wednesday, January 6, 2021

विष्णुपद छंद,मंजिल पायेंगे


 









आगे हरदम बढ़ने का हम,लक्ष्य बनायेंगे,

चाहे रोड़े हों राहों में,मंजिल पायेंगे।


नवोत्कर्ष का परचम लेकर,हम सोपान चढ़ें,

कायरता की तोड़ हथकड़ी,हों निर्भीक बढ़ें।

जोश भरे कदमों की आहट,सकल विश्व सुनले,

आज मनुज तू,नेक इरादे,विजयी पंथ चुनले।

विश्व शांति के लिए साथ हम,दौड़ लगायेंगे।

चाहे रोड़े हों राहों में,मंजिल पायेंगे।


भारत का इतिहास सुनहरा,वीर सपूतों का,

राष्ट्रवाद जिन माताओं में,उनके पूतों का।

वही रक्त नस-नस में सबके,अब भी भरा हुआ,

ले मशाल उठ बढ़ तू आगे,क्यूँ है डरा हुआ?

सबसे ऊँचा झंडा अपना,हम फहरायेंगे,

चाहे रोड़े हों राहों में,मंजिल पायेंगे।


स्वरचित एवम मौलिक

डॉ.शुचिता अग्रवाल,"शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम

Suchisandeep2010@gmail.com

विष्णुपद छंद विधान-16,10 मात्राओं पर यति।

दो-दो चरण सम तुकांत




Sunday, January 3, 2021

लावणी छंद,जिस घर मात-पिता खुश रहते

 "जिस घर मात-पिता खुश रहते"

   (विधा-  ताटंक छंद, गीत)


प्रतिमाओं की पूजा करने,हम मंदिर में जाते हैं।

जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते हैं।


असर दुआ में इतना इनकी,बाधाएँ टल जाती है।

कदमों में खुशियाँ दुनिया की सारी चलकर आती है।

पालन करने स्वयं विधाता ज्यूँ घर में  बस जाते हैं।

जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते हैं।।


इस जीवन में कर्ज कभी हम चुका नहीं जिनका पाये।

औलादों के सपने सारे जिनकी आँखों में छाये।

बच्चों के हिस्से में खुशियाँ, झोली भर भर  लाते हैं।

जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते

हैं।


मुट्ठी में दुनिया की सारी दौलत आ ही जाती है।

जब तक ठंडी छाँव पिता की माँ ममता बरसाती है।

खुशकिस्मत होते जो इनका साथ अधिकतम पाते हैं।

जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते

हैं।।


#स्वरचित

डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"

तिनसुकिया, असम


Suchisandeep2010@gmail.com


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