सरसी छंद
'हे नाथ'
स्वार्थहीन अनुराग सदा ही, देते हो भगवान।
निज सुख-सुविधा के सब साधन, दिया सदा ही मान।।
करुण कृपा बरसा कर मुझपर, पूरी करते चाह।
इस कठोर जीवन की तुमने, सरल बनायी राह।।
कभी कहाँ संतुष्ट हुई मैं, सदा देखती दोष।
सहज प्राप्त सब होता रहता, फिर भी उठता रोष।।
किया नहीं आभार व्यक्त भी, मैं निर्लज्ज कठोर।
मर्यादा की सीमा लाँघी, पाप किये अति घोर।।
अनदेखा दोषों को करके, देते हो उपहार।
काँटें पाकर भी ले आते, फूलों का नित हार।।
एक पुकार उठे जो मन से, दौड़ पड़े प्रभु आप।
पल में ही फिर सब हर लेते, जीवन के संताप।।
करो कृपा हे नाथ विनय मैं, करती बारम्बार।
श्रद्धा तुझमें बढ़ती जाये, तुम जीवन सुखसार।।
तेरा तुझको सबकुछ अर्पण, नाथ करो कल्याण।, हाथ पकड़ मुझको ले जाना, जब निकलेंगे प्राण।।
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सरसी छंद विधान-
सरसी छंद चार चरणों का सम पद मात्रिक छंद है। जिस में प्रति चरण 27 मात्रायें होती है। 16 और 11 मात्रा पर यति होती है अर्थात प्रथम यति खण्ड 16 मात्रा का तथा द्वितीय यति खण्ड 11 मात्रा का होता है। दो दो चरण समतुकान्त होते हैं।
मात्रा बाँट इस तरह है-
16 मात्रिक पद ठीक चौपाई वाला चरण और 11 मात्रा वाला ठीक दोहा का सम-पद होगा।
छंद के 11 मात्रिक खण्ड की मात्रा बाँट 8+3 (ताल यानी 21) होती है।
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शुचिता अग्रवाल'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम
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