Friday, September 27, 2019

दोहे,आसाम प्रदेश पर आधारित


ब्रह्मपुत्र की गोद में,बसा हुआ आसाम।
प्रथम किरण रवि की पड़े,वो कामाख्या धाम।।

हरे-हरे बागान से,उन्नति करे प्रदेश।
खिला प्रकृति सौंदर्य से,आसामी परिवेश।।

धरती शंकरदेव की,लाचित का ये देश।
कनकलता की वीरता,ऐसा असम प्रदेश।।

ऐरी मूंगा पाट का,होता है उद्योग।
सबसे उत्तम चाय का,बना हुआ संयोग।।

हरित घने बागान में,कोमल-कोमल हाथ।
तोड़ रहीं नवयौवना,मिलकर पत्ते साथ।।

हिमा दास ने रच दिया,एक नया इतिहास।
विश्व विजयिता धाविका,बनी हिन्द की आस।।

#स्वरचित#मौलिक
सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, आसाम
Suchisandeep2010@gmail.com

Thursday, September 12, 2019

हास्य रचनाएँ,"कविसम्मेलन"

इक दिन मैं बोली पतिवर से,
थोड़े भय और थोड़े डर से।
सुनो हमारी बात सुनोगे,
कविसम्मेलन में जाने दोगे?
लोगों की वहाँ भीड़ जमेगी,
वाह वाही मुझको भी मिलेगी।
एक बार आँखें मोटी कर,
पति ने देखा तान भृकुटि कर।
काम करो मन से तुम अपने,
बच्चों के पूरे करने सपने।
काम काज जिनको नहीं होते,
वो आखिर कवि ही बन जाते।
कवि बेतुकी बातों को सजाते,
समय हमारा वो है गँवाते।
नारी सुलभ हथियार चले थे,
झर झर आँसू गालों पर थे।
रोकर तुम क्या दिखलाती हो,
जाओ, क्यूँ पूछा करती हो?
साड़ी पहन एक बैग लगाकर,
चली स्वरचित कुछ पुस्तक लेकर।
सोचा नाम मेरा भी होगा,
ओटोग्राफ देना भी होगा।
कलम साथ लेना ना भूली,
देखा शीशा और मैं झूमी।
बड़े बड़े दिग्गज कविवर थे,
श्री कमल किशोरजी संचालक थे।
राजवीर चोले में जँचते,
तरुण सामने ही बैठे थे।
उमी, माया सौम्य सरल सी,
छाया, सौम्या कवियित्री सी।
किशन लालजी निरीक्षण करते,
मनोज जी लगे थोड़े डरते।
ऋतुजी के हाथ में पुस्तक,
इंदु शर्मा ने दी दस्तक।
सरोज,प्रतिभा तैयार लगी थी,
रामप्रसाद की
जाँ अटकी थी।
बिजेंद्र सरल मुस्काये थोड़े,
शैलेन्द्र जी ने दौड़ाए घोड़े।
एक एक पर नजर घुमाई,
कहाँ बैठे हैं जिद्दी भाई?
देखा वर्दी में आ पहुँचा,
अनुशासन का हाथ में पर्चा।
डरते डरते मैं मुस्काई,
बासुदेव संग कुर्सी पाई।
कोई कड़ककर कोई दबकर,
प्रस्तुति कविवर की मंच पर।
गला सूख मेरा पिंजर हो गया,
पीकर पानी पेट फूल गया।
शौचालय पर नजरें गढ़ी थी,
कविता की अब किसको पड़ी थी।
नाम मेरा कई बार बुलाया,
अनुपस्थित कह संजीत आया।
दूर छुपी सब देख रही थी,
चलो जान बची सोच रही थी।
अब तो नाम कभी ना लूँगी,
पति की बात सदा मानूँगी।
चुपके से घर आने निकली,
भानु जी की आँखें गुगली।
मंच पे मुझको खड़ा कर दिया,
शान में मेरी भाषण रच दिया।
बोली मैं खुद से' सुचि कैसा डरना'
पकड़ो माइक नहीं है मरना।
गीत, गजल और छन्द, कविता,
सब पर भारी कवियित्री सुचिता
ताली की गड़गड़ इतनी जोर थी,
सपना टूटा एक नई भोर थी।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

मुक्त कविता,"मूक चीख"


शिशु का विकास नहीं हो रहा है
या जननी की सेहत पर
बुरा प्रभाव पड़ रहा है,
कानूनन जुर्म होने के बावजूद
इन बहानों की आड़ में,
मासूम शिशुओं का कोख में ही
कत्ल खुले आम हो रहा है।
"बच्ची डरी सहमी सी है
अहसास उसे भी हो गया
उसके सुरक्षित क्षेत्र पर
हमला हो रहा है।
दिल की धड़कन उसकी
जोरों से बढ़ने लगी,
कोख में ही
इस छोर से उस छोर तक
छटपटाती हुई सिकुड़ने लगी।
औजार बच्ची को ढूंढ ढूँढ कर
टुकड़े टुकड़े कर रहा है
पहले कमर फिर पैर
फिर सिर को
बड़ी निर्ममता से काट रहा है।"
चंद लम्हों में एक
निरपराध, निहत्थे जीव की
हत्या हो गयी।
फिर कभी न चहकने वाली
नन्ही सी जान
धरती पर पांव रखने से पहले ही
धरती में समा गई।
"क्या न्याय के अंधे देवता को
यह मूक चीख सुनाई नहीं देती?
क्यूँ हत्यारे माँ- बाप को
हत्या के जुर्म में
सजा नहीं होती?
अहिंसा का संदेश देने वाले,
बुद्ध , महावीर और गांधी की भूमि पर
यह जघन्य हिंसा
क्यों हो रही है?
स्वयं बच्ची की हत्या करके
क्यूँ हत्यारी माँ
मातृत्व का गला घोंट रही है?
जो आगोश में आने से पहले ही
कुचल दी जाती है।
यह प्रश्न मानव जाति से
हर वह मासूम कर रही है
"मूक चीख"
न्याय मांग रही है।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
("दर्पण")

मुक्त कविता,"हुई फिर देश में हिंसा"

"हुई फिर देश में हिंसा"


धधकती आग बरसी है सभी डरते नजर आये
हुई फिर देश में हिंसा लहू बहते नजर आये।

अहिंसा के पुजारी जो वही बेमौत मरते हैं
लगी ज्वाला दिलों में अब सभी कहते नजर आये।

इशारों पर भभक उठता शहर सारा वतन देखो
विषैले नाग सत्ता के हमें डसते नजर आये

खिलौने बन गए हैं हम चला व्यापार जोरों से
निलामी बढ़ रही शासक सभी बिकते नजर आये।

बुझी को फिर जलाते औरशोले भी है भड़काते
यही आतँक की शैली सभी रचते नजर आये।।

करे चित्कार मांगे न्याय जो निर्दोष थे बन्दे
बहे आँसू करे फरियाद वो डरते नजर आये।


लगा दो जोर सब अपना बुझादो आग के गोले
गिरो बन गाज दुश्मन पे सभी मरते नजर आये।


सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप",
तिनसुकिया,असम
("मन की बात")


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