इक दिन मैं बोली पतिवर से,
थोड़े भय और थोड़े डर से।
सुनो हमारी बात सुनोगे,
कविसम्मेलन में जाने दोगे?
लोगों की वहाँ भीड़ जमेगी,
वाह वाही मुझको भी मिलेगी।
एक बार आँखें मोटी कर,
पति ने देखा तान भृकुटि कर।
काम करो मन से तुम अपने,
बच्चों के पूरे करने सपने।
काम काज जिनको नहीं होते,
वो आखिर कवि ही बन जाते।
कवि बेतुकी बातों को सजाते,
समय हमारा वो है गँवाते।
नारी सुलभ हथियार चले थे,
झर झर आँसू गालों पर थे।
रोकर तुम क्या दिखलाती हो,
जाओ, क्यूँ पूछा करती हो?
साड़ी पहन एक बैग लगाकर,
चली स्वरचित कुछ पुस्तक लेकर।
सोचा नाम मेरा भी होगा,
ओटोग्राफ देना भी होगा।
कलम साथ लेना ना भूली,
देखा शीशा और मैं झूमी।
बड़े बड़े दिग्गज कविवर थे,
श्री कमल किशोरजी संचालक थे।
राजवीर चोले में जँचते,
तरुण सामने ही बैठे थे।
उमी, माया सौम्य सरल सी,
छाया, सौम्या कवियित्री सी।
किशन लालजी निरीक्षण करते,
मनोज जी लगे थोड़े डरते।
ऋतुजी के हाथ में पुस्तक,
इंदु शर्मा ने दी दस्तक।
सरोज,प्रतिभा तैयार लगी थी,
रामप्रसाद की
जाँ अटकी थी।
बिजेंद्र सरल मुस्काये थोड़े,
शैलेन्द्र जी ने दौड़ाए घोड़े।
एक एक पर नजर घुमाई,
कहाँ बैठे हैं जिद्दी भाई?
देखा वर्दी में आ पहुँचा,
अनुशासन का हाथ में पर्चा।
डरते डरते मैं मुस्काई,
बासुदेव संग कुर्सी पाई।
कोई कड़ककर कोई दबकर,
प्रस्तुति कविवर की मंच पर।
गला सूख मेरा पिंजर हो गया,
पीकर पानी पेट फूल गया।
शौचालय पर नजरें गढ़ी थी,
कविता की अब किसको पड़ी थी।
नाम मेरा कई बार बुलाया,
अनुपस्थित कह संजीत आया।
दूर छुपी सब देख रही थी,
चलो जान बची सोच रही थी।
अब तो नाम कभी ना लूँगी,
पति की बात सदा मानूँगी।
चुपके से घर आने निकली,
भानु जी की आँखें गुगली।
मंच पे मुझको खड़ा कर दिया,
शान में मेरी भाषण रच दिया।
बोली मैं खुद से' सुचि कैसा डरना'
पकड़ो माइक नहीं है मरना।
गीत, गजल और छन्द, कविता,
सब पर भारी कवियित्री सुचिता
ताली की गड़गड़ इतनी जोर थी,
सपना टूटा एक नई भोर थी।
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
थोड़े भय और थोड़े डर से।
सुनो हमारी बात सुनोगे,
कविसम्मेलन में जाने दोगे?
लोगों की वहाँ भीड़ जमेगी,
वाह वाही मुझको भी मिलेगी।
एक बार आँखें मोटी कर,
पति ने देखा तान भृकुटि कर।
काम करो मन से तुम अपने,
बच्चों के पूरे करने सपने।
काम काज जिनको नहीं होते,
वो आखिर कवि ही बन जाते।
कवि बेतुकी बातों को सजाते,
समय हमारा वो है गँवाते।
नारी सुलभ हथियार चले थे,
झर झर आँसू गालों पर थे।
रोकर तुम क्या दिखलाती हो,
जाओ, क्यूँ पूछा करती हो?
साड़ी पहन एक बैग लगाकर,
चली स्वरचित कुछ पुस्तक लेकर।
सोचा नाम मेरा भी होगा,
ओटोग्राफ देना भी होगा।
कलम साथ लेना ना भूली,
देखा शीशा और मैं झूमी।
बड़े बड़े दिग्गज कविवर थे,
श्री कमल किशोरजी संचालक थे।
राजवीर चोले में जँचते,
तरुण सामने ही बैठे थे।
उमी, माया सौम्य सरल सी,
छाया, सौम्या कवियित्री सी।
किशन लालजी निरीक्षण करते,
मनोज जी लगे थोड़े डरते।
ऋतुजी के हाथ में पुस्तक,
इंदु शर्मा ने दी दस्तक।
सरोज,प्रतिभा तैयार लगी थी,
रामप्रसाद की
जाँ अटकी थी।
बिजेंद्र सरल मुस्काये थोड़े,
शैलेन्द्र जी ने दौड़ाए घोड़े।
एक एक पर नजर घुमाई,
कहाँ बैठे हैं जिद्दी भाई?
देखा वर्दी में आ पहुँचा,
अनुशासन का हाथ में पर्चा।
डरते डरते मैं मुस्काई,
बासुदेव संग कुर्सी पाई।
कोई कड़ककर कोई दबकर,
प्रस्तुति कविवर की मंच पर।
गला सूख मेरा पिंजर हो गया,
पीकर पानी पेट फूल गया।
शौचालय पर नजरें गढ़ी थी,
कविता की अब किसको पड़ी थी।
नाम मेरा कई बार बुलाया,
अनुपस्थित कह संजीत आया।
दूर छुपी सब देख रही थी,
चलो जान बची सोच रही थी।
अब तो नाम कभी ना लूँगी,
पति की बात सदा मानूँगी।
चुपके से घर आने निकली,
भानु जी की आँखें गुगली।
मंच पे मुझको खड़ा कर दिया,
शान में मेरी भाषण रच दिया।
बोली मैं खुद से' सुचि कैसा डरना'
पकड़ो माइक नहीं है मरना।
गीत, गजल और छन्द, कविता,
सब पर भारी कवियित्री सुचिता
ताली की गड़गड़ इतनी जोर थी,
सपना टूटा एक नई भोर थी।
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
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