Wednesday, October 30, 2019

मुक्तक, रिश्तों पर आधारित

सागर में अनमोल खजाना,जैसे होते मोती हैं,
जीवन संचालित जिससे है,वो तो प्रीत की ज्योति है।
जग के निर्माता ने जिसके,जी भर प्रीत भरी लहु में,
वो हर घर की बिटिया प्यारी,डोर जगत की होती है।

डॉ.सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप

Friday, October 25, 2019

कुकुभ छन्द, 'माँ लक्ष्मी वंदना'


चाँदी जैसी चमके काया, रूप निराला सोने सा।
धन की देवी माँ लक्ष्मी का, ताज चमकता हीरे सा।

जिस प्राणी पर कृपा बरसती, वैभव जीवन में पाये।
तर जाते जो भजते माँ को, सुख समृद्धि घर पर आये।

पावन यह उत्सव दीपों का,करते ध्यान सदा तेरा।
धनतेरस से पूजा करके, सब चाहे तेरा डेरा।

जगमग जब दीवाली आये,जीवन को चहकाती है।
माँ लक्ष्मी के शुभ कदमों से, आँगन को महकाती है

तेरे साये में सुख सारे, बिन तेरे अँधियारा है।
सुख-सुविधा की ठंडी छाया, लगता जीवन प्यारा है।

गोद सदा तेरी चाहें हम, वन्दन तुमको करते हैं।
कृपादायिनी सुखप्रदायिनी,शुचिता रूप निरखते हैं।

डॉ.सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

Thursday, October 24, 2019

मुक्त कविता, "मेरे उपवन की दो कलियाँ"


मेरे उपवन की दो कलियाँ,
खिल रही फूल सी सुन्दर वो ।
महका है जीवन उनसे ही,
है मुझे जान से प्यारी वो।

बहार जीवन में उनसे ही है,
गम सारे भुला देती है वो।
मधुर व्यवहार और मीठी वाणी,
बेटियाँ न्यारी प्यारी है वो।

घर की रौनक उनसे बढती,
खुशियों के गीत गाती है वो।
है दुःख की दवा दोनों के पास,
पल भर में हँसा देती है वो।

हो रहा समय व्यतीत ऐसे,
मानो पंख लगा उड़ रहा है वो।
मन सोच मेरा घबराता है अब,
किसी और की अमानत है वो।

हर संस्कार दे रही प्रेम से उनको,
अवगत हर सीख से हो रही वो।
जीवन की हर राह में रहे खुश,
हुनर सारे सीख रही है वो।

आत्मविश्वास और स्वावलंब की,
प्रतिमूर्ती नजर आती है वो।
आडम्बर ,दिखावा, दहेज की बू से,
मुरझा भी सकती है वो।

है जिसे भावनाओं की कदर,
उसे अपना सकती है वो।
है प्रेम पर यह दुनिया कायम,
यही विश्वास रखती है वो।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'

मुक्त कविता, 'नयी सोच नया सवेरा"

खुली पलक में ख्वाब बुनो,
और खुली आँख से ही देखो।
सपने चाँदनी रात में नहीं,
तप्त तपन  की किरणों में बुनो।

तपना पड़ता है सूरज की तरह,
ख्वाब पूरे यूँ ही नहीं होते।
निशा के आगोश में,
सपनों के घरौंदे नहीं होते।

आगे बढ़ो बढ़ते चलो,
कोशिश करने वाले घायल नहीं होते।
कामयाबी के शिखर  पर पहुंचने वाले,
दिल से कभी कायर नहीं होते।

जागते रहो कर्म करते रहो,
देखो न सपने बस सोते सोते।
प्रेरणा किसी को बना स्वयं तुम,
उदाहरण बन जाओ जाते जाते।

कर लो हौसलों को बुलन्द,
आएगी कामयाबी परचम लहराते।
समय को स्वर्ण सा कीमती समझो,
खर्च करो उसे डरते डरते।

जहाँ चाह नहीं वहाँ राह नहीं,
करो कामना सोते जागते।
मर न जाओ यूँ ही कहीं,
गठरी निराशा की ढोते ढोते।

अमर हुए हैं नाम जिनके,
वे भी थे इंसान हमारे जैसे।
जो लक्ष्य से कभी भटके नहीं,
किये मुकाम हासिल कैसे कैसे।

चाहें तो हम और आप,
दुनिया में क्या है जो नहीं कर सकते।
ला विचारों में बदलाव कर्म करो,
लक्ष्य करो तैयार समय रहते रहते।

यूँ ही नहीं ये अमोल जिन्दगी,
व्यर्थ गँवानी बस रोते रोते।
नयी सोच और नयी सुबह का,
करलो संकल्प अब हँसते हँसते।

डॉ.(मानद)  सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,आसाम

गीत, '"गीत प्रणय के गाती हूँ"

कुकुभ छंद, "मेरा मन"

जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।
खुशियाँ लेकर आये जो क्षण, फिर उनको जी जाती हूँ।।

यादों की खुश्बू भीनी सी, बचपन उड़ती परियों सा।
यौवन चंचल भँवरे जैसा, गुड़ियों की ओढ़नियों सा।।
पलकें मंद-मंद मुस्काकर, पल-पल में झपकाती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।।

कहने को तो प्रौढ़ हुई पर, मन भोला सा बच्चा है।
चाहे दुनिया झूठी ही हो, खुश होना तो सच्चा है।।
आशाओं के दीप लिये फिर, मैं नवजीवन पाती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।।

माना अब मिलना मुश्किल है, कुछ साथी जो मेरे थे।
वो ही दिन के बने उजाले, वो सपनों को घेरे थे।।
गाँवों से शहरों की दूरी, पल में तय कर आती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती
हूँ।।

प्रेम डोर में सब रिश्तों की, माला एक पिरोती हूँ।
नेहल सपनों की बाहों में, हर्षित मन से सोती हूँ।।
मैं अपनी खुशियों का परचम, प्रतिदिन ही फहराती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।।

शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम

गीत, 'भँवर'

*ताटंक छन्द*

बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पाई है,
राहों में अपनी दलदल की,खोदी मैंने खाई है।

कच्ची माटी के ढेले सा,मन कोमल सा मेरा था,
जिधर मिले बल उधर लुढ़कता,अपविकसित सा घेरा था।
पकते-पकते माटी भीतर,दूषित हवा ले आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।

ईर्ष्या,निंदा,क्रोध,लालसा,विकसित हर पल होते हैं,
बोझ तले जो इनके दबते,मानवता को खोते हैं।
त्यागो इनको आज अभी से,एक यही भरपायी है।
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।

सोचो मानव जीवन पाकर,क्या खोया क्या पाया है?
कैसे-कैसे गुण आने थे,देखो क्या-क्या आया है।
बंद आँख थी आज खुली है,खुलते ही भर आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।

हे प्रभु इतना ही बस चाहूँ, अवगुण अपने धो डालूँ,
एक दोष के बदले दो गुण,अब जीवन में मैं पालूं।
'शुचि' जीवन नैया को दर पर,लेकर तेरे आयी है,
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।।

डॉ.(मानद) सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम

Monday, October 21, 2019

कुंडलियाँ छन्द

हास्य कुंडलिया


(1)

सारे घर के लोग हम, निकले घर से आज

टाटा गाड़ी साथ ले, निपटा कर सब काज।

निपटा कर सब काज, मौज मस्ती थी छाई

तभी हुआ व्यवधान, एक ट्रक थी टकराई।

ट्रक पे लिखा पढ़ हाय, दिखे दिन में ही तारे

'मिलेंगे कल फिर बाय', हो गए घायल सारे।।



(2)

खोया खोया चाँद था, सुखद मिलन की रात

शीतल मन्द बयार थी, रिमझिम सी बरसात।

रिमझिम सी बरसात, प्रेम की अगन लगाये

जोड़ा बैठा साथ, बात की आस लगाये।

गूंगा वर सकुचाय, गोद में उसकी सोया

बहरी दुल्हन पाय, चैन जीवन का खोया।



(3)

गौरी बैठी आड़ में, ओढ़ दुप्पटा  लाल

दूरबीन से देखकर, होवे मालामाल

होवे मालामाल, दौड़ जंगल में भागा

पीछे कुत्ते चार, हांपने मजनू लागा

हांडी गोल मटोल, नहीं कोई भी छोरी

हरित खेत लहराय, खेत की थी वो गौरी।।



(4)

रोटी बोली साग से, सुनो व्यथा भरतार

गूंथ गूंथ बेलन रखे, मारे नित नर- नार।

मारे नित नर -नार, पीड़ सब सह लेती हूं

खाकर भी बिसराय, तभी मैं रो पड़ती हूँ।

पिज़्ज़ा बर्गर खाय, करेंगे बुद्धि मोटी

पड़ेंगे जब बिमार, याद तब आये रोटी।



(5)

फूफा-जीजा साथ में, दूर खड़े मुख मोड़

नया जवाई आ गया, कौन करे अब कोड़।

कौन करे अब कोड़, आग मन में लगती है,

राजा साडू आज, उसे आंखें तकती है।

रगड़ रहा ससुराल, समझ हमको अब लूफा

हुए पुरातन वस्त्र, रो रहे जीजा-फूफा।।


 (6)         

बहना तुमसे ही कहूँ, अपने हिय की बात

जीजा तेरा कवि बना, बोले सारी रात

बोले सारी रात, नींद में कविता गाये

भृकुटी अपनी तान, वीर रस गान सुनाये

प्रकट करे आभार, गजब ढाता यह कहना

धरकर मेरा हाथ, कहे आभारी बहना।।
   

विविध कुंडलिया

   (1)

गीता पुस्तक ज्ञान की, भवसागर तर जाय

जनम जनम के फेर से, पढ़कर पार लगाय।

पढ़कर पार लगाय, सफल जीवन हो जाये,

मानव सद्गति होय, धाम प्रभु का ही पाये।

जो समझे यह गूढ़, जगत को उसने जीता,

'शुचि' मन सुन्दर धाम, राह जिसकी है गीता।।


(2)

गंगा मैया आपकी,शरण पड़े नर नार

पावन मन निर्मल करो, काटो द्वेष विकार।

काटो द्वेष विकार, प्रेम की अलख जगादो

करो पाप संहार, हमें भवपार लगा दो।

मैल दिलों के धोय, सदा मन रखना चंगा

विनती बारम्बार,जगत जननी माँ गंगा।

 (3)

पाया इस संसार में, छल, माया का जाल

नये नये पकवान से, सजा हुआ सा थाल।

सजा हुआ सा थाल, प्रलोभन कई लुभाते

कुछ नहिं सकें पचाय, रात दिन फिर भी खाते।

जाना सब कुछ छोड़, सत्य को क्यूँ बिसराया?

सत् चित् अरु आनन्द इसी जग भीतर पाया।

(4)

आये जीवन में खुशी,  द्विगुणित  अबकी साल

सुख समृद्धि धन लाभ से, होवें मालामाल।।

होवें मालामाल, सभी सत पथ पर चलकर।

मिट जाए हर कष्ट,रहें हम प्रेम से मिलकर।।

खुशियों का भण्डार, यहाँ जन-जन हर्षाये।

मंगल होवे काज,सौम्यता घर-घर आये।


 (5)

श्यामा तेरे रूप का, मनन करूँ दिन रात

सगुण रूप चितचोर से, मन की करती बात।

मन की करती बात, श्याम ही राह दिखाते

जीवन का हर गूढ़, बैठ कर पास सिखाते।

मन में है विश्वास, नाथ जग के हैं रामा

'शुचिता'जीवन सार, प्रेम सागर हैं श्यामा।

 (6)

कृष्णा कृष्णा बोलिये, चाहे दिन  हो रात

खोल हृदय की पोटली, उनसे करिये बात

उनसे करिये बात सफल जीवन हो जाये

छोड़ेंगे नहि हाथ वही भवपार लगाये

सुख सारे मिल जाय मिटेगी सारी तृष्णा

सब देवों के देव जगत के पालक कृष्णा।

(7)

नेता निकले माँगने, लोगों से अब वोट।

सड़क मरम्मत हो रही, वरना लगते सोट।

वरना लगते सोट,चुनावी आफत आई।

पाँच साल के बाद, निकलती सभी मलाई।

जीत अगर मिल जाय, छुपेंगे बनकर  प्रेता।

फिर सत्ता मिल जाय, योजना करते नेता।


 (8)

मानव जीवन है मिला, सत्कर्मों के बाद

पावन पाकर ये बने, मानवता की खाद

मानवता की खाद, खिलेगा उपवन प्यारा

इंसानों में श्रेष्ठ, बनेगा जीवन न्यारा

मानवता का गूढ़, समझ नहि पाते दानव

अपनाते कर जोड़, वही कहलाते मानव।

(9)

माटी शुचि इंसानियत,करो लेप नर नार

आत्मचेतना का करे, अद्भुत यह श्रृंगार

अद्भुत यह श्रृंगार, श्रेष्ठ मानव बन जाता

देवों का प्रिय रूप, अलौकिक जीवन पाता

जो जाती है साथ, कमाई वो यह खाटी

है खुशियों की खान, लगा मानवता माटी


(10)

आया सूरज साथ ले, खुशियों की सौगात।

शरद छुपा फिर आड़ में, दिनकर ने दी मात।

दिनकर ने दी मात, लगे धरती यह प्यारी।

हरित खेत लहराय, धरा की आभा न्यारी।

शरद सुहानी भोर, गगन है मन को भाया ।

कोयल छेड़े तान,  झूम के पपिहा आया।

  (11)

बाला के अस्तित्व की, रक्षा करना नार।

गर्भपात औजार से, मत देना तुम मार।

मत देना तुम मार, जगाना ममता अपनी।

करके निष्ठुर पाप, झूठ है माला जपनी।

नारी कोख महान,पाप यह टीका काला।

मूँक रहे निरुपाय, न्याय माँगे हर बाला।।


 (12)

माया इस संसार की, समझ सके नहि कोय

लोभ मोह ममता भरी, लाख प्रलोभन होय

लाख प्रलोभन होय, होड़ मचती है भारी

अँधों की है भीड़, भागती दुनिया सारी

बेच दिया ईमान, बेचती नारी काया

डूब रहा इंसान, डुबाती देखो माया।।

(13)

योगा के अभ्यास से, रोग मुक्त हो जाय।

मन सुंदर तन भी खिले, पहला सुख वह पाय।

पहला सुख वह पाय, निरोगी काया ऐसी।

सावन की बौछार, सुखद होती है जैसी।

अब तो मानव जाग ,अभी तक दुख क्यों भोगा?

शुरू करो मिल साथ, आज से करना योगा।।

(14)

अपनी भूलों का करे,जो जन पश्चाताप।

कटते उनके ही सदा,जीवन के संताप।।

जीवन के संताप,डगर में रोड़े होते।

सुख का हम अभिप्राय,भूलवश क्यूँ है खोते?

निंदा की लत छोड़,प्रेम की माला जपनी।

औरों में गुण देख,भूल बस देखो अपनी।।

(15)

ऐसी धार बहाइये , पापी मन बह जाय,

सुंदरतम संसार की, मूरत मन को भाय।

मूरत मन को भाय ,सफल जीवन ये करलें,

मानवता से प्रेम, प्रीत से झोली भरलें।

'शुचि' तय साँस वियोग, आस इस जग से कैसी?

छोड़ सकें जंजाल,भीख माँ दे दो ऐसी।

(16)

तरसे कोई मेघ तो, तरसे कोई धूप।
बाढ़ डाकनी आ गयी, इंद्र हुए है कूप।
इंद्र हुए हैं कूप,असम की जनता रोये।
पानी चारों ओर, बड़ी चिंता में खोये।
सूखा राजस्थान नहीं क्यूँ जाकर बरसे?
पड़ा हुआ आकाल,वहाँ की जनता तरसे।

(17)


मानव ने फैला दिया,सकल संतुलन दोष।
हुआ भूमि,जल,वायु का,ध्वस्त धरा उद्घोष।
ध्वस्त धरा उद्घोष, प्रदूषण मत फैलाओ।
समतोलन सिद्धांत,प्रगति पथ पर अपनाओ।
हुआ अंत शुरुआत,क्रूरता छोड़ो दानव
बचा एक उपचार,बढ़ाओ पौधे मानव।

(18)
सबकी हो यह भावना,स्वस्थ हमारा देश।
ऊर्जा से भरपूर है,भारत का परिवेश।
भारत का परिवेश,सुखद जीवन है देता,
रोगों को क्षण में,चमत्कृत हो हर लेता।
रिपु-रण की लघु चाल,'करोना' झूठी भभकी।
प्रबल हमारी सोच,करेगी रक्षा सबकी।

(19)

राधा पूछे श्याम से,मानव का क्या हाल?
पूज रहे सब क्यूँ हमें,होकर के बेहाल?
होकर के बेहाल,मौत से डरते देखा,
बीच भँवर कट जाय,जीव की जीवन रेखा।
कोरोना है नाम,राक्षसी आयी बाधा,
कृष्ण करे संहार,चलो धरती पर राधा।


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम

● कुण्डलिया छंद विधान ●

कुंडलिया एक मात्रिक छंद है। यह एक दोहा और एक रोला के मेल से बनता है। इसके प्रथम दो चरण दोहा के होते हैं और बाद के चार चरण रोला छंद के होते हैं। इस प्रकार कुंडलिया छह चरणों में लिखा जाता है और इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं, किन्तु इनका क्रम सभी चरणों में समान नहीं होता। दोहा के प्रथम एवं तृतीय चरण में जहाँ 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं, वहीं रोला में यह क्रम दोहे से उलट हो जाता है, अर्थात प्रथम व तृतीय चरण में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। दोहे में यति पदांत के अलावा 13वीं मात्रा पर होती है और रोला में 11वीं मात्रा पर।

कुंडलिया रचते समय दोहा और रोला के नियमों का यथावत पालन किया जाता है। कुंडलिया छंद के दूसरे चरण का उत्तरार्ध (दोहे का चौथा चरण) तीसरे चरण का पूर्वाध (प्रथम अर्धरोला का प्रथम चरण) होता है। इस छंद की विशेष बात यह है कि इसका प्रारम्भ जिस शब्द या शब्द समूह से किया जाता है, अंत भी उसी शब्द या शब्द समूह से होता है। कुंडलिया के रोला वाले चरणों का अंत दो गुरु(22) या एक गुरु दो लघु(211) या दो लघु एक गुरु(112) अथवा चार लघु(1111) मात्राओं से होना अनिवार्य है।

*रोला में यति पूर्व 21 (गुरु लघु) तथा यति पश्चात त्रिकल आना चाहिए*

Friday, October 18, 2019

मुक्त कविता,"पहचानिये अपनी प्रतिभा"

सामने है मंजिल फिर भी दिखाई नहीं पड़ती
रुके रुके से है कदम क्यूं राहें आगे नहीं बढ़ती।

प्रतिभा है अगर आपमें क्यूं उजागर नहीं करते
संकोची बनकर कब तक छुपते रहेंगे डरते डरते।

हर कला अपने आप में सर्वोत्तम होती है
न ही कोई ज्यादा तो कोई कम होती है।

अपने आप को संकोचवश जकड़ कर न रखिये
दो कदम हर वक़्त ज़माने के साथ बढाए रखिये।

यह न भूलिए की कोई भी बड़ा बनकर नहीं आता है
अपने हुनर को सामने लाकर ही कामयाब बन पाता है।

चला गया है जो वक़्त उसकी फिक्र मत कीजिये
आने वाला कल अपने हाथों से न निकलने दीजिये।

शुरू करदो काम अंजाम की परवाह छोड़ दो
आपको सिर्फ कर दिखाना है आगे वक़्त पर छोड़ दो।

 डॉ.सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
      तिनसुकिया,असम
"प्रथम काव्य संग्रह 'दर्पण' में प्रकाशित"
7.7.1992

गीत,'जिस घर मात-पिता खुश रहते'

(विधा-लावणी छन्द, गीत)

पूजा करने प्रतिमाओं की,हम मन्दिर में जाते हैं।
जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते हैं।

असर दुआ में इतना इनकी,बाधाएँ टल जाती है।
कदमों में खुशियाँ दुनिया की सारी चलकर आती है।
पालन करने स्वयं विधाता घर में ही बस जाते हैं।
जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते हैं।।

इस जीवन में कर्ज कभी भी चुका नहीं जिनका सकते।
बच्चों के सारे ही सपने जिनकी आँखों में पलते।
दुख से लड़कर बच्चों के हिस्से में खुशियाँ लाते हैं।
जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते
हैं।।

मुट्ठी में दुनिया की सारी दौलत आ ही जाती है।
जब तक ठंडी छाँव पिता की माँ ममता बरसाती है।
खुशकिस्मत होते जो इनका साथ अधिकतम पाते हैं।
जिस घर मात-पिता खुश रहते,उस घर ईश्वर आते
हैं।।

#स्वरचित
डॉ.सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

Thursday, October 17, 2019

चौपाई छन्द,'करवा चौथ'

 

कार्तिक चौथ घड़ी शुभ आयी। सकल सुहागन मन हर्षयी।।

पर्व पिया हित सभी मनाती। चंद्रोदय उपवास निभाती।।

करवे की  महिमा है भारी। सज-धज कर पूजे हर नारी।।

सदा सुहागन का वर हिय में। ईश्वर दिखते अपने पिय में।।

जीवनधन पिय को ही माना। जनम-जनम तक साथ निभाना।।

कर सौलह श्रृंगार लुभाती। बाधाओं को दूर भगाती।।

माँग भरी सिंदूर बताती। पिया हमारा ताज जताती।।

बुरी नजर को दूर भगाती। काजल-टीका नार लगाती।।

गजरे की खुशबू से महके। घर-आँगन खुशियों से चहके।।

सुख-दुख के साथी बन जीना। कहता मुँदरी जड़ा नगीना।।

साड़ी की शोभा है न्यारी। लगती सबसे उसमें प्यारी।।

बिछिया पायल जोड़े ऐसे। सात जनम के साथी जैसे।।

प्रथा पुरानी सदियों से है। रहती लक्ष्मी नारी में है।।

नारी शोभा घर की होती। मिटकर भी सम्मान न खोती।।

चाहे स्नेह सदा अपनों से। जाना नारी के सपनों से।।

प्रेम भरा संदेशा देता। पर्व दुखों को है हर लेता।।

उर अति प्रेम पिरोये गहने। सारी बहनें मिलकर पहने।।

होगा चाँद गगन पर जब तक। करवा चौथ मनेगी तब तक।।


डॉ.(मानद)सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

चौपाई छंद - विधान

चौपाई 16 मात्रा का बहुत ही व्यापक छंद है। यह चार चरणों का सममात्रिक छंद है। इसके एक चरण में आठ से सोलह वर्ण तक हो सकते हैं। दो दो चरण समतुकांत होते हैं। चरणान्त गुरु या दो लघु से होना आवश्यक है।
चौपाई छंद चौकल और अठकल के मेल से बनती  है। चार चौकल, दो अठकल या एक अठकल और  दो चौकल किसी भी क्रम में हो सकते हैं। समस्त संभावनाएं निम्न हैं।
4-4-4-4, 8-8, 4-4-8, 4-8-4, 8-4-4
कल निर्वहन केवल समकल शब्द द्विकल, चतुष्कल, षटकल से संभव है। अतः एकल या त्रिकल का प्रयोग करें तो उसके तुरन्त बाद विषम कल शब्द रख समकल बना लें। जैसे 3+3 या 3+1 इत्यादि। चौकल और अठकल के नियम निम्न प्रकार हैं जिनका पालन अत्यंत आवश्यक है।
चौकल:- (1) प्रथम मात्रा पर शब्द का समाप्त होना वर्जित है। 'करो न' सही है जबकि 'न करो' गलत है।
(2) चौकल में पूरित जगण जैसे सरोज, महीप, विचार जैसे शब्द वर्जित हैं।

अठकल:- (1) प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द समाप्त होना वर्जित है। 'राम कृपा हो' सही है जबकि 'हो राम कृपा' गलत है क्योंकि राम शब्द पंचम मात्रा पर समाप्त हो रहा है। यह ज्ञातव्य है कि 'हो राम कृपा' में विषम के बाद विषम शब्द पड़ रहा है फिर भी लय बाधित है।
(2) 1-4 और 5-8 मात्रा पर पूरित जगण शब्द नहीं आ सकता।
(3) अठकल का अंत गुरु या दो लघु से होना आवश्यक है।

जगण प्रयोग:-
(1) चौकल की प्रथम और अठकल की प्रथम और पंचम मात्रा से पूरित जगण शब्द प्रारम्भ नहीं हो सकता।
(2) चौकल की द्वितीय मात्रा से जगण शब्द के प्रारम्भ होने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि प्रथम मात्रा पर शब्द का समाप्त होना वर्जित है।
(3) चौकल की तृतीय और चतुर्थ मात्रा से जगण शब्द प्रारम्भ हो सकता है।

किसी भी गंभीर सृजक का चौपाई पर अधिकार होना अत्यंत आवश्यक है। आल्हा, ताटंक, लावणी, सार, सरसी इत्यादि प्रमुख छन्दों का आधार चौपाई ही है क्योंकि प्रथम यति की 16 मात्रा चौपाई ही है।

Featured Post

शुद्ध गीता छंद, "गंगा घाट"

 शुद्ध गीता छंद-  "गंगा घाट" घाट गंगा का निहारूँ, देखकर मैं आर पार। पुण्य सलिला, श्वेतवर्णा, जगमगाती स्वच्छ धार।। चमचमाती रेणुका क...