कुकुभ छंद, "मेरा मन"
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।
खुशियाँ लेकर आये जो क्षण, फिर उनको जी जाती हूँ।।
यादों की खुश्बू भीनी सी, बचपन उड़ती परियों सा।
यौवन चंचल भँवरे जैसा, गुड़ियों की ओढ़नियों सा।।
पलकें मंद-मंद मुस्काकर, पल-पल में झपकाती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।।
कहने को तो प्रौढ़ हुई पर, मन भोला सा बच्चा है।
चाहे दुनिया झूठी ही हो, खुश होना तो सच्चा है।।
आशाओं के दीप लिये फिर, मैं नवजीवन पाती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।।
माना अब मिलना मुश्किल है, कुछ साथी जो मेरे थे।
वो ही दिन के बने उजाले, वो सपनों को घेरे थे।।
गाँवों से शहरों की दूरी, पल में तय कर आती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती
हूँ।।
प्रेम डोर में सब रिश्तों की, माला एक पिरोती हूँ।
नेहल सपनों की बाहों में, हर्षित मन से सोती हूँ।।
मैं अपनी खुशियों का परचम, प्रतिदिन ही फहराती हूँ।
जब-जब आह्लादित होता मन, गीत प्रणय के गाती हूँ।।
शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम
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