Thursday, October 24, 2019

गीत, 'भँवर'

*ताटंक छन्द*

बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पाई है,
राहों में अपनी दलदल की,खोदी मैंने खाई है।

कच्ची माटी के ढेले सा,मन कोमल सा मेरा था,
जिधर मिले बल उधर लुढ़कता,अपविकसित सा घेरा था।
पकते-पकते माटी भीतर,दूषित हवा ले आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।

ईर्ष्या,निंदा,क्रोध,लालसा,विकसित हर पल होते हैं,
बोझ तले जो इनके दबते,मानवता को खोते हैं।
त्यागो इनको आज अभी से,एक यही भरपायी है।
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।

सोचो मानव जीवन पाकर,क्या खोया क्या पाया है?
कैसे-कैसे गुण आने थे,देखो क्या-क्या आया है।
बंद आँख थी आज खुली है,खुलते ही भर आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।

हे प्रभु इतना ही बस चाहूँ, अवगुण अपने धो डालूँ,
एक दोष के बदले दो गुण,अब जीवन में मैं पालूं।
'शुचि' जीवन नैया को दर पर,लेकर तेरे आयी है,
बीच भँवर में अटकी नैया,मंजिल छू ना पायी है।।

डॉ.(मानद) सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम

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