आगोश में लिपटी सी
बिखरी बिखरी जुल्फों सी
तुम्हारी गोद में सर छुपाये हुए
थोड़ी खुश तो थोड़ी गमगिन सी
एक अस्पष्ट सी झलक
अक्सर सामने आती है
शायद कोई भ्रम
या झूठा सा अहसास।
ख्यालों में मिलता है
एक झूठ मूठ का चेहरा
जो कभी मेरा था ही नहीं।
जब जब याद करती हूँ
तुम्हारा चेहरा
एक थकान सी
महसूस होती है।
सीने में छुपा रखी है
एक ऐसी तस्वीर
इतनी धुंधली अस्पष्ट
कि शायद दूसरा उसे
पहचान न सके।
लगता है दिल का कोई
मजबूत रिश्ता है इन ख्यालों से
तभी तो शनै शनै ख्यालों का
आना जाना लगा रहता है।
जानती हूँ ख्याल सिर्फ ख्याल होते हैं
फिर भी उनसे दूर जाना
या दिल से निकाल देना
हाथों में होता भी है और
शायद होता भी नहीं।
जब जब तुम्हारे पास होती हूँ
सारी स्मृतियाँ
स्प्ष्ट हो जाती है।
लब खामोश और मानो कोई
हवा का झोंका बदन में
सरसराहट कर जाता है।
तुम मेरी बेचैनी से
अंजान प्रतीत होते भी हो
और नहीं भी
कभी कभी यूँ लगता है
तुम कुछ कहना चाहते भी हो
और नहीं भी
जानती हूँ चाहकर भी
मैं या तुम
कुछ कह नहीं पायेंगे
यह सिर्फ और सिर्फ अहसास है
इसको शब्द हम दे नहीं पाएंगे।
दिल के हाथों यह
दुनिया मजबूर है
मैं और तुम ही क्या?
हर स्मृति हर सपना
स्वरूप नहीं पाता है।
सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,असम
(प्रथम काव्य संग्रह 'दर्पण' में प्रकाशित)
बिखरी बिखरी जुल्फों सी
तुम्हारी गोद में सर छुपाये हुए
थोड़ी खुश तो थोड़ी गमगिन सी
एक अस्पष्ट सी झलक
अक्सर सामने आती है
शायद कोई भ्रम
या झूठा सा अहसास।
ख्यालों में मिलता है
एक झूठ मूठ का चेहरा
जो कभी मेरा था ही नहीं।
जब जब याद करती हूँ
तुम्हारा चेहरा
एक थकान सी
महसूस होती है।
सीने में छुपा रखी है
एक ऐसी तस्वीर
इतनी धुंधली अस्पष्ट
कि शायद दूसरा उसे
पहचान न सके।
लगता है दिल का कोई
मजबूत रिश्ता है इन ख्यालों से
तभी तो शनै शनै ख्यालों का
आना जाना लगा रहता है।
जानती हूँ ख्याल सिर्फ ख्याल होते हैं
फिर भी उनसे दूर जाना
या दिल से निकाल देना
हाथों में होता भी है और
शायद होता भी नहीं।
जब जब तुम्हारे पास होती हूँ
सारी स्मृतियाँ
स्प्ष्ट हो जाती है।
लब खामोश और मानो कोई
हवा का झोंका बदन में
सरसराहट कर जाता है।
तुम मेरी बेचैनी से
अंजान प्रतीत होते भी हो
और नहीं भी
कभी कभी यूँ लगता है
तुम कुछ कहना चाहते भी हो
और नहीं भी
जानती हूँ चाहकर भी
मैं या तुम
कुछ कह नहीं पायेंगे
यह सिर्फ और सिर्फ अहसास है
इसको शब्द हम दे नहीं पाएंगे।
दिल के हाथों यह
दुनिया मजबूर है
मैं और तुम ही क्या?
हर स्मृति हर सपना
स्वरूप नहीं पाता है।
सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,असम
(प्रथम काव्य संग्रह 'दर्पण' में प्रकाशित)
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