Wednesday, August 21, 2019

मुक्त कविता,"प्रवाह"

सोचती हूँ मैँ कभी कभी
प्रवाह समय का बहाकर,
कहाँ से कहाँ ले आया।
न वो रास्ते है न मंजिल,
जीवन उन्हें बहुत दूर छोड़ आया।

कभी ऐसा भी था,
जब मेरा अस्तित्व,
तुम बिन संभव ही न था।
तुम भी जीवन बिन मेरे बिता दोगे,
तब यह सोचना असंभव ही था।

ख्यालों में तुम्हारे साथ दुनिया बसाना,
अपने सिमित दायरे में,
तुम्हे आसमान की तरह बसाना ।
यूँ न सोचा कभी भी,
अपने प्यार की कोई सीमा भी होगी,
समंदर से भी गहरे प्रेम की,
सूखे अकाल सी परिणिति भी होगी।

सोचती हूँ अब ये कभी कभी,
कैसे समय व्यतीत हुआ,
हर वो लम्हा,
हर वो दास्ताँ,
जो कभी जिंदगी थी मेरी,
अब धुंधली और अस्पष्ट छवि,
कुछ मधुर लम्हे,
बस एक यादगार बन कर रह गए।

तब जो एक अहम हिस्सा था मेरा,
आज उसके होने या न होने की अहमियत,
एक भूली बिसरी याद बनकर रह गयी।

ऐसा नहीं कि हमारी जिंदगी,
किसी एक पर ही शुरू,
और फिर उसी पर,
ख़त्म हो जाए।
यह हमारी सोच ही है जो,
किसी को अपना,
तो किसी को ,
पराया बना जाए।

एक प्यार ही सब कुछ नहीं,
और भी बहुत कुछ है,
सोचना पड़ता है जिनके वास्ते,
प्यार से भी बढ़कर,
बहुत कुछ है,
करने को हमारे वास्ते।

नाकामयाब होकर मौत ही नहीं,
और भी बहुत से है,
जीवन के रास्ते।
कभी मखमली तो कभी कंटीले,
कभी समतल तो कभी पथरीले,
कल को भुलाकर आज में,
डूब जाने के रास्ते।

जिंदगी हर पल परीक्षा है,
हुनर है बहुत से,
सीखें तो जीने के वास्ते,
हमारे वास्ते।

ऐसा नहीं कि आज हमें,
कोई ख़ुशी नहीं,
जिंदगी जैसे हम जी रहे,
वैसे जीना चाहते नहीं।

आज भी हम भरपूर जी रहें है,
अपने अतीत को भुलाकर,
वर्तमान को जी रहें हैं।

जो बीत गया सुहाना सफर था,
आने वाले कल को,
सुहाना बनाना ही कला है।
यही है जीवन,
जहाँ लोग मिलते हैं,
बिछड़ जाते हैं,
लेकिन....
कुछ पल भर साथ रहकर भी,
अपनी अमिट छाप,
जीवन भर के लिए,
छोड़ जाते हैं।

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
      तिनसुकिया

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