Tuesday, August 20, 2019

मुक्त कविता, "तब माँ हुआ करती थी"



किलकारी अपने लाल की पूँजी,
रुदन उसकी कमजोरी।
दौड़ दौड़ कर छुप छुप कर
निवाला अपने हाथों से
गोद में बिठाकर खिलाया करती थी,
तब माँ हुआ करती थी।

बेटा सर का ताज था,
अपने लाल पर बड़ा नाज था।
हठ किया तो मनाया उसको
जो रूठ गया,
आँचल तले सहलाकर
सुलाया करती थी,
तब माँ हुआ करती थी।

जीवन समर्पित कर डाला,
कतरा कतरा लहू का सींच
अपनी जवानी को,
बुढापे में बदल डाला।
तब कहीं लाल जवां दहलीज तक आया है।
रंगीन दुनिया रंगरलियों की
जहां बहुत पीछे
छुट गयी बूढ़ी अम्मा
अब टकटकी लगाए इंतजार में
रैन गुजर जाती है
बूढ़ी आंखें टपटप
नीर बहाती है।
मौजूदगी अम्मा की अब
राह का रौड़ा लगने लगी।
पुत्र को अपने
लाल की परवरिश में
बातें अम्मा की खलने लगी।
रो पड़ी माँ बिलखकर
बेटा मत भूल जाना,
जहां आज तुम खड़े हो
वहीं से मैं गुजर कर आई हूँ।
फर्क बस इतना है कि
आज मैं तेरी आँखों का कांटा हूँ
तब माँ हुआ करती थी।

जुदा न जिसे किया कभी
वह साथ छोड़ रहा है।
बड़ी निर्ममता से ममता का
गला घोंट रहा है।
पथरीली आंखें
अंजान डगर पर
आशियाना ढूंढ रही है
बेटा अपनी माँ को
वृद्धाश्रम छोड़ने जा रहा है।

सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया,असम
प्रथम काव्य संग्रह"दर्पण" से



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