Friday, June 21, 2019

लघुकथा, "तुमसा क्रोध क्यूँ नहीं"

पिता तुल्य ब्रह्मपुत्र की विशाल भुजाओं तले शांति से जीवन यापन करते जुगोमाया चालीस की उम्र पार कर चुकी थी।
कभी कभी पिता के क्रोध को झेलने की आदत सी पड़ गयी थी। कुछ दिन जीवन असामान्य रहता, शिविरों में शरण लेते और फिर क्रोध शांत होते ही लौट आना, और लहरों पर हिचकोले लेना स्वाभाविक सा लगने लगा था।
माजुली के किनारे बना खेड़ का कच्चा घर अब दो कमरे का छोटा सा मकान बन चुका था। किनारे लगे आम के पेड़ की टहनियां छत पर छावनी करने के लिए पर्याप्त थी।
पति भूपेन यदाकदा 18 वर्षीय बेटे रूपकुंवर के भविष्य को लेकर चिंतित हो जाते थे ।
जुगो, क्यूँ न हम रूप को कहीं बाहर पढ़ने भेज देते हैं, सुरक्षित जिंदगी भी तो जरूरी है उसकी ।
क्या जाने , कब......
भूपेन के मुंह पर हाथ रखते हुए जुगोमाया ने हामी भर दी।
एक अप्रिय आशंका ने अपने पाँव जमा लिए थे।
 बारहवीं की परीक्षा के बाद रूपकुंवर को मुंबई भेजने के निर्णय से आत्मिक संतुष्टि सी हुई।
गाँव ने शहर की चकाचोंध भरी जिंदगी में खुद को डूब जाते हुए देखा।
रात का उजाला रूप को डसने लगा।
डिस्को, क्लब, शराब में वह थिरकने लगा।
 बार की मोना में सुख ढूंढने लगा।
"बेटा, कल रात अचानक ब्रह्मपुत्र में उफान आ गया। तहस नहस हो गया। घर में पानी भर गया। माजुली में जल स्तर बढ़ गया है अतः अभी शिविर में है। जान बच गई। तुमको बाहर भेजने के निर्णय से तेरी माँ खुश है"-भूपेन ने फोन पर कहा।
"हां बाबा, आप लोग ध्यान रखना अपना"-रूप ने कहा।
रूप ने अपने पी.जी.की  तरफ जाने को रिक्सा लिया।
झोंपड पट्टी के पास से गुजर ही रहा था कि-
"भडाम  भडाम"
चिथड़े उड़ गए। कोई इधर कोई उधर।
"बम विस्फोट हुआ था, रूप के रिक्से में आतंकवादियों ने बम फिटिंग कर रखा था"-
रूप के किसी दोस्त ने भूपेन को सूचना दी।
 "जुगोमाया को कैसे कहूँ कि प्राकृतिक आपदा पर अब मानवीय आपदा  हावी हो चुकी है।"
"ओह मेरे ब्रह्मपुत्र ,तुमसा शीतल क्रोध मानव के पास क्यूँ नहीं?"
भूपेन स्तब्ध हुआ शून्य को निहार रहा था।


#मौलिक स्वरचित
सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया,असम

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