Friday, June 14, 2019

मुक्तक, आगोश

तेरी आगोश में घण्टों बिताना वक्त भाता था,
मुहब्बत की वो रुत ऐसी, निखर बस प्यार जाता था।
कभी क्या लौट आ सकते, वो मीठे दिन सुखद शामें,
मुझे लैला समझता तू, नजर मजनू सा आता था।

सुचिता अग्रवाल 'सुचिसंदीप'
तिनसुकिया, असम

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