Thursday, June 20, 2019

मुक्त कविता,'आजकल जरा आलसी होने लगी हूँ'

सब कहते हैं आजकल मैं जरा आलसी होने लगी हूँ,
सबसे पहले सोती हूँ, सबसे पहले उठने भी लगी हूँ।

धीरे धीरे दिनभर घर के काम नहीं होते हैं मुझसे,
सबके उठने से पहले अधिकतर काम करने लगी हूँ।

सजने सँवरने परिधानों और गहनों में नहीं उलझती,
बस दिखावे से दूर आराम की जिंदगी जीने लगी हूँ।

कहते हैं सब मैं जरा कम घुलती मिलती हूँ सबसे,
आजकल मन की बात अपने मन से करने लगी हूँ।

अत्यधिक संग्रह की रुचि अब मुझे विषकर लगती है, अपनी आवश्यकताओं को सीमित करने लगी हूँ।

बहरूपियों की बस्ती में आडंबरों की कोई कमी नहीं,
रिश्तों की गहराई जरा दिल से महसूस करने लगी हूँ।

बारिश की बूँदों को निहारना और ठंडी हवा का स्पर्श,
प्रकृति को आजकल घंटों बैठकर निहारने मैं लगी हूँ।

ख्वाबों की कश्ती इच्छाओं के जहाज अक्सर डूब जाते हैं,
इंतजार में नहीं, अब आज में मैं जिंदगी जीने लगी हूँ।

सुकूँ मिलता है अपनी भूलों को अकेले में स्वीकार कर,
कुछ कह देती हूँ और कुछ कागज पर लिखने लगी हूँ।


सुचिता अग्रवाल "सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम



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