जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं ,
गौरवशाली अग्रवाल नर,
नारी खुद को पाते हैं।
माता लक्ष्मी ने खुश होकर
वचन उन्हें यह दे डाला
तेरे कुल में वास करुँगी
धन की देती हूँ माला।
कृत्य अनेकों हित समाज के,
वंशज भी करवाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
नागराज की सुता माधवी,
पूर्वांचल बाजे बाजा,
गोत्र अठारह पुत्र नाम पर,
कुल विस्तार किये राजा।
व्यापारी भारत के हर
कोने में शाख जमाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
कर विरोध पशु बलि का नृप ने,
वैश्य वर्ण स्वीकारा था,
शाकाहारी भोजन हरदम,
अग्रवाल का नारा था,
जिनकी रग-रग में है पूजा,
वैश्य धर्म वो पाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
दया, प्रेम, व्यवहार, अहिंसा,
इन गहनों को धारे थे
एक ईंट और एक रुपया,
वासी दानी सारे थे।
बाग-बगीचे कुआ बावड़ी,
आश्रम ये बनवाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
पुण्य किया तब ऐसे कुल में,
जन्म हमारा हो पाया
अग्रवाल यश की गाथा से,
जग में उजियारा छाया
कितने युग के बाद धरा पर,
बन अवतारी आते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
हम सबका दायित्व ये बनता,
धूमिल छवि इसकी ना हो,
राह मोड़ लें अपनी उस पल,
उज्ज्वल छवि जिसकी ना हो।
आने वाली हर पीढी को,
सीख यही सिखलाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
स्वार्थ नीति के झाँसे में पड़,
कुछ भटके अपने भाई,
सट्टेबाजी की बयार जब,
ओझल करने को आई।
प्रबल भुजाएं बनकर दुश्मन
से अवगत करवाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
माँस-मदीरे की लत ऐसी,
नाश ये कुल हो जायेगा
माता लक्ष्मी को भी कैसे,
ये निवास फिर भायेगा
अपने कुल की मर्यादा को,
सबको हम समझाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
नेक कर्म की राह पकड़कर,
इस संस्कृति को जीना है,
भटकाते जो, साथ छोड़ दो,
'शुचि' गौरव रस पीना है।
इस समाज की गौरव गाथा
भारतवासी गाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
#स्वरचित #मौलिक
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
ताटंक छन्द अर्द्धमात्रिक छन्द है. इस छन्द में चार पद होते हैं, जिनमें प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं.
विधान-प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी यति 16-14 निर्धारित होती है. अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है. दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है.
प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है.
किन्तु, पदान्त तीन गुरुओं से होना अनिवार्य है. इसका अर्थ यह हुआ कि सम चरण का अन्त तीन गुरु से ही होना चाहिये।
अग्रसेन कहलाते हैं ,
गौरवशाली अग्रवाल नर,
नारी खुद को पाते हैं।
माता लक्ष्मी ने खुश होकर
वचन उन्हें यह दे डाला
तेरे कुल में वास करुँगी
धन की देती हूँ माला।
कृत्य अनेकों हित समाज के,
वंशज भी करवाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
नागराज की सुता माधवी,
पूर्वांचल बाजे बाजा,
गोत्र अठारह पुत्र नाम पर,
कुल विस्तार किये राजा।
व्यापारी भारत के हर
कोने में शाख जमाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
कर विरोध पशु बलि का नृप ने,
वैश्य वर्ण स्वीकारा था,
शाकाहारी भोजन हरदम,
अग्रवाल का नारा था,
जिनकी रग-रग में है पूजा,
वैश्य धर्म वो पाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
दया, प्रेम, व्यवहार, अहिंसा,
इन गहनों को धारे थे
एक ईंट और एक रुपया,
वासी दानी सारे थे।
बाग-बगीचे कुआ बावड़ी,
आश्रम ये बनवाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
पुण्य किया तब ऐसे कुल में,
जन्म हमारा हो पाया
अग्रवाल यश की गाथा से,
जग में उजियारा छाया
कितने युग के बाद धरा पर,
बन अवतारी आते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
हम सबका दायित्व ये बनता,
धूमिल छवि इसकी ना हो,
राह मोड़ लें अपनी उस पल,
उज्ज्वल छवि जिसकी ना हो।
आने वाली हर पीढी को,
सीख यही सिखलाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
स्वार्थ नीति के झाँसे में पड़,
कुछ भटके अपने भाई,
सट्टेबाजी की बयार जब,
ओझल करने को आई।
प्रबल भुजाएं बनकर दुश्मन
से अवगत करवाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
माँस-मदीरे की लत ऐसी,
नाश ये कुल हो जायेगा
माता लक्ष्मी को भी कैसे,
ये निवास फिर भायेगा
अपने कुल की मर्यादा को,
सबको हम समझाते हैं
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
नेक कर्म की राह पकड़कर,
इस संस्कृति को जीना है,
भटकाते जो, साथ छोड़ दो,
'शुचि' गौरव रस पीना है।
इस समाज की गौरव गाथा
भारतवासी गाते हैं।
जिस समाज के वंश प्रवर्तक,
अग्रसेन कहलाते हैं।
गौरवशाली अग्रवाल नर
नारी खुद को पाते हैं।
#स्वरचित #मौलिक
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम
ताटंक छन्द अर्द्धमात्रिक छन्द है. इस छन्द में चार पद होते हैं, जिनमें प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं.
विधान-प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी यति 16-14 निर्धारित होती है. अर्थात विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है. दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है.
प्रथम चरण यानि विषम चरण के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है.
किन्तु, पदान्त तीन गुरुओं से होना अनिवार्य है. इसका अर्थ यह हुआ कि सम चरण का अन्त तीन गुरु से ही होना चाहिये।
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