Thursday, July 11, 2019

बुलबुल की मुस्कुराहट

 (लघुकथा)

प्रभा हमेशा की तरह आज भी अपनी छः साल की बिटिया बुलबुल को अपने साथ लिए मेरे घर पर काम करने आई। घर के कामों में हाथ बंटाने के लिए उससे ज्यादा नेक और ईमानदार बाई मिलना आसान नहीं। आज वह थोड़ी देर से आयी तो मैंने पूछा" क्या हुआ आज इतनी देर करदी ? "
" क्या बताऊँ भाभीजी, आज बुलबुल स्कूल जाने के लिए जिद्द करने लग गयी कि सब बच्चे स्कूल जाते है मुझे भी भेजो, तो वहीं पास के स्कूल में खबर करने चली गयी।"
मैंने भी उत्साहवर्धक भाव से पुछा अच्छा तो करा दिया तुमने दाखिला?
" नहीं भाभीजी , महीने का 300 रूपया खर्च है। और आप तो जानती ही है मैं 2000 रुपये कमाती हूँ और कोई कमाने वाला है नहीं। मैं कैसे करूँ कुछ समझ नहीं आता है।"
मैं बड़ी असमंजस की स्थिति में खड़ी उसकी बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी और सोच रही थी कि मेरी बिटिया तो अभी तीन साल की ही है फिर भी हम उसको शहर की सबसे बढ़िया स्कूल में देने के लिए कितने प्रयत्नशील है , और प्रभा दीदी बिचारी अपने और अपनी बिटिया के सपनों से कितने समझौते करती है। दुनिया में गरीब होना कितना दुखदायी है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मेरे समक्ष था। अक्सर ऐसी स्थिति का सामना दुर्भाग्यवश हम सबको करना पड़ ही जाता है, हमारा दिल बहुतों की ऐसी दयनीय अवस्था देखकर पसीज भी जाता है, एक बार तो कुछ रुपयों से मदद करदें लेकिन प्रतिमाह सहायता करना  मुमकिन भी नहीं हो पाता है आखिर हम भी जिम्मेदारियों से बंधे हुए है।
लेकिन आज मैं कोई ऐसा रास्ता निकालने की सोचने लगी कि ऐसा मैं क्या करूँ कि इसकी सहायता भी हो जाए और हमारे मासिक वेतन में कोई असर भी न आये।
दिल से यदि हम कुछ करने की ठानलें तो रास्ता तो मिलना ही है। मुझे याद आया कि मैं और मेरे पति प्रतिदिन 10 रुपये भगवान् के चरणों में चढ़ाते हैं, और एक गुल्लक में जमा करते रहते है और फिर किसी मंदिर में चढ़ा आते हैं।
अक्सर मैं यह सुनती रहती हूँ कि जरूरतमंद की सेवा से बढ़कर भगवान् की पूजा नहीं हो सकती है। "कर भला तो हो भला" इस कहावत पर मुझे पूरा विश्वास है।बस फिर क्या था मैंने मन बना लिया कि हमारी यह बचत आज से एक बिटिया की पढ़ाई के काम आएगी। भगवान् इस नेक काम से कभी नाराज नहीं हो सकते इसी विश्वास के साथ मैंने प्रभा दीदी से कहा " हम कल ही जाकर बुलबुल का दाखिला कराएंगे और इसका खर्च हमारे" ठाकुरजी गोपाल" देंगे। "
मेरी बात सुनकर प्रभा की आँखों से जो अश्रु धार निकली, उसके दिल से जो दुवाएं निकली उनका मोल पूजा से भी बढ़कर महसूस हो रहा था मुझे। पास खड़ी बुलबुल की आँखों में नए सपनों की उड़ान भरती वो मुस्कराहट मुझे मिले किसी प्रसाद से कम न लगी थी।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

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