Thursday, July 11, 2019

शालिनी

(लघुकथा)

सामने रखी चौकी पर एक डंडे से जोर जोर से मारकर धाइ माँ ने उत्पल को बुलाने के लिए आवाजें की।
बाहर बरामदे में खटिया पर बैठे उत्पल ने जैसे ही अंदर से आई इन आवाजों को सुना वह अंदर की तरफ दौड़ कर गया।
"क्या हुआ? उत्पल ने झुंझलाते हुए धाइ से पूछा।
धाइ ने पहले पूजा की तरफ इशारा किया जो बेसुध पड़ी थी क्योंकि उसने अभी अभी प्रसव की असीम पीड़ा को झेला था।
"बच्चा क्या है? लड़का या लड़की?"
उत्पल ने धाइ की गोद में लपेटे हुए बच्चे को देखकर कहा।
धाइ ने बच्चे को उत्पल की गोद मे थमाया और बाहर निकल गयी।
"हे भगवान, ये क्या? अब मैं क्या करूँ?पहला बच्चा है, सब पूछेंगे क्या जवाब दूँगा? " अनंत सवालों से घिरा उत्पल माथा पकड़ कर बैठ गया।
अगले ही पल वह उठकर बाहर आया और धाइ माँ से रोकर प्रार्थना की कि बच्चा किन्नर है आप यह बात किसी को भी मत बताइयेगा, बस लड़की हुई है। यही बताना । आपका हम पर बहुत उपकार होगा।"
धाइ ने हाँ में अपनी गर्दन हिलादी, गूंगी थी बोल तो वो वैसे भी नहीं सकती थी, उत्पल की दयनीय दशा पर उसे तरस आ गई थी।
पूजा भी कुछ दिनों में सामान्य हो गयी। लड़की थी इसलिए भी घर के अंदर ही उसे रखा जाने लगा। बस थोड़ा आसान था यह राज छुपा कर रखना और दोनों मिलकर शालिनी की परवरिश करने लगे।
आखिर कब तक? एक न एक दिन इस राज को भी समाज के सामने आना ही था।
"स्कूल से अकेली आ रही शालिनी पर गाँव के उद्दंड, मनचले गिरोह की नजर बहुत बार पड़ चुकी थी।
हैवानियत की सीमा को लांघ कर दरिंदों ने शालिनी के राज को सरेआम कर दिया।
गाजे बाजे ढोल मजीरा के साथ किन्नर  समाज शालिनी को अपने साथ ले जाने के लिए चला तो आया लेकिन मानवता के अधिकार को तरसता यह उपेक्षित समाज,एक परिवार और समाज में मिली इज्जत की जिंदगी अपनी ही जाती की लड़की को जीते देखकर गर्व से  झूम उठा।
शालिनी के रूप में हक़ की जिंदगी को जीते देखकर किन्नर समुदाय फूला नहीं समा रहा था।
आत्मिक संतुष्ठता से अभिभूत होकर ढेर सारा आशीर्वाद देते हुए ढोल मजीरे की आवाजें दूर जाने लगी, पूजा ने राहत की साँस लेते हुए शालू को जोर से गले लगा लिया।

#सर्वाधिकार सुरक्षित
#स्वरचित
सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

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