Sunday, May 12, 2019

ताटंक छन्द,"बचपन की दीवाली"

लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।
माँ-बाबूजी के साये में,
दुनिया की खुशहाली थी।

डट जाते हम सब बच्चे भी,
घर की साफ-सफाई में,
कोई छज्जे पर चढ़ जाता,
कोई लिपटा छाई में।
सुविधाओं का पतझड़ था पर,
खुशियों की हरियाली थी।
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

पाकर अपने खेल-खिलौने,
छत,आँगन,चौबारे में,
पुलकित मन मेरा हो उठता,
दिखती खुशियाँ सारे में।
कितनी खुश थी माँ जब मैंने,
ढूँढी खोई बाली थी।
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

चखने की चाहत व्यंजन की,
भूख याद वो आती है,
भरे पड़े पकवान आज पर,
खुशबू वो ललचाती है।
दीपों से जगमग घर होते,
सुखद बड़ी उजियाली थी।
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

एक थान कपड़े से सबकी,
वेश-भुषा बन जाती थी,
चार लड़ी को खोल पटाखों,
का मैं ढेर लगाती थी।
खुशियों का था बड़ा पिटारा,
प्रेम परोसी थाली थी,
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

गाँवों की कच्ची सड़कों पर,
चलते रिश्ते पक्के थे,
सपने जिन पर दौड़ा करते,
वो दुर्लभ से चक्के थे।
उस छोटे से जीवन में ही,
दुनिया सारी पा ली थी।
लगती थी जो प्यारी हमको,
बचपन की दीवाली थी।

सुचिता अग्रवाल"सुचिसंदीप"
तिनसुकिया, असम

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